योग का संक्षिप्त इतिहास
Brief history of Yoga
योग का इतिहास
- भारत में ही नहीं वरन् विश्व के प्राचीनतम साहित्य वेदों में ही सर्वप्रथम योग का संकेत मिलता है। ऋग्वेद के प्रथम, नवम् मण्डल में यह संकेत मिलता है कि प्रारम्भ में आर्यगण सांसारिक भोगो में ही पूर्णतया लीन थे, तथा इहलौकिक सुख - सम्पत्ति की कामना के लिए ईश्वर की स्तुति एवं दान व यज्ञ आदि कर्म किया करते थे।
- वेदो के मुख्य प्रतिपाद्य 1. विषय ब्रहमज्ञान था। इसके अतिरिक्त कर्मकाण्ड ब्रहमज्ञान को प्रेरित करने में सहायक थे। वैदिक शिक्षा सभी प्रकार से मनुष्य के लिए उपकारी थी। उन मनुष्यो के लिए भी, जो कि अति मलिन अन्तःकरण वाले थे, तथा जो सांसारिक बन्धनो में बधे हुए थे। उन मलिन चित्त में ज्ञान का उदय नहीं हो सकता था । उनके चित्त की शुद्धि के लिए कर्मकाण्ड पर आधारित यज्ञ, जप, दान आदि कर्म आदि बताये गये चित्त की शुद्धि के बाद जब उनमें ज्ञान ग्रहण करने की योग्यता उत्पन्न हो गयी तब उन्हें कर्मकाण्ड से हटाकर परमात्मा स्वरूप में लगाया गया है। जिसका स्पष्ट संकेत इस ऋचा में मिलता हैं
ऋचो अक्षरे परमे व्योम समासतेः। - ऋग्वेद , 1 /64/ 39
- अर्थात् जिसे ब्रहम कहते है। जिसका अधिष्ठान परम् व्योम है । इसी में वेदो की ऋचायें एवं विश्व के समस्त देवो का निवास है, जो इस ब्रहम तत्व को नहीं जानता है। उसके लिए शब्दात्मिका ऋचायें निष्प्रयोज्य है, जो उस अक्षर ब्रह्म को जानता है, वही ब्रहम सम्बन्धी चर्चाओ में स्थान पाने योग्य है । वेदो में प्रतिपाद्य विषय ब्रहम ज्ञान ही है, तथा ब्रहमज्ञानी व्यक्ति ही वेदज्ञानी हो सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि योग विद्या का प्रारम्भ वेदो से ही हुआ।
- कुछ विद्वानो का मत है, तथा आधुनिक शोधो से स्पष्ट हुआ है कि योग सिन्धु कालीन सभ्यता से प्रारम्भ हुआ है। पुरातत्वविदो ने कुछ समय पहले जो मोहन जोदड़ो आदि में धार्मिक अवशेष प्राप्त हुए है। उनमें जो नर देवता की मूर्ति मिली है, वह त्रिमुखी है, तथा वह एक योग मुद्रा में बैठी हुई है । इससे प्रतीत होता है कि सैन्धव कालीन सभ्यता में यौगिक विचार धारा का प्रचलन उस समय भी था । आधुनिक शोधो से पता चलता है कि सिन्धु सभ्यता, वैदिक सभ्यता के पश्चात् वैदिक मूलक सभ्यता है। यह सभ्यता भारतीय संस्कृति की प्रबल विशेषता लिये हुए संस्कृति थी जो कि मिश्रित संस्कृति से युक्त थी।
- इस प्रकार उत्खनन से प्राप्त देवी देवताओ की प्रतिमाये, आध्यात्मिक प्रतीक चिन्ह वैदिक कालीन चिन्हो से समानता लिये हुए है। इन्ही कारको के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि मोहन जोदड़ो तथा हड़प्पा की सभ्यता से भिन्न नहीं थी, वरन् वैदिक सभ्यता का ही अंग है। इससे यह स्पष्ट होता है कि योग सम्बन्धी विचार धारा का उल्लेख सर्वप्रथम हमें ऋग्वेद में प्राप्त होता है वैदिक मन्त्रो की रचना योग का ही परिणाम कहा जा सकता है ।
- ऋषि - मुनियो ने वैदिक मन्त्रो में इसे प्रकार प्रकट किया
तद्यदेनांस्तपस्यमानान्ब्रहमा..
अर्थात्
- तपस्या परायण व्यक्तियो के हृदय मे स्वयंभू ब्रहमा आविर्भूत हुआ, इसलिए वह ऋषि कहलाए। इसी कारण वेदो को अपोरूषेय एवं ऋषियो को मन्त्र दृष्टा कहा गया है। इससे स्पष्ट होता हैं कि योग का प्रारम्भ ऋग्वैदिक काल से पूर्व ही हो जाता है। योग को किसी काल से सम्बद्ध करना सही नहीं है । क्योकि यौगिक ज्ञान काल की सीमाओ से परे है, तथा मनुष्य की अन्तरात्मा से सम्बन्ध ज्ञान है।
- अतः कहा जा सकता है कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही योग विद्या प्रचलित थी । इस बात की पुष्टि के लिए हमें योग के प्रथम वक्ता कौन थे, इस बात पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है.