हिन्दी के आदिकाल की प्रमुख प्रकृतियाँ
आप अभी आदिकालीन परिस्थितियों का अध्ययन कर चुके हैं और निश्चित ही आपके मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इन परिस्थितियों में किस प्रकार के साहित्य की रचना हुई। अत: इकाई के इस अंश में आपको इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों के विषय में विस्तृत जानकारी देंगे आपकी सुविधा के लिए प्रमुख आदिकालीन प्रवृत्तियों का वर्गीकरण तीन स्तर पर किया जा रहा है- धर्म संबंधी साहित्य, चारण काव्य और लौकिक साहित्य.
अब क्रमश: हम इन्हीं बिन्दुओं के आधार पर आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख करेंगे
1 धर्म संबंधी साहित्य
- धर्म संबंधी साहित्य के अंतर्गत उस साहित्य का उल्लेख किया जा रहा है जो किसी मत विशेष के प्रचार-प्रसार करने हेतु लिखा गया जैसे – सिद्ध संप्रदाय, नाथ संप्रदाय, जैन संप्रदाय आदि यद्यपि आचार्य शुक्ल ने इन्हें साहित्यिक रचनाओं के रूप में स्वीकार नहीं किया था। लेकिन आप जान सकते हैं कि ये धर्मसंबंधी रचनाएं केवल धर्म प्रचार मात्र नहीं थी, अपितु इन्हें उत्तम काव्य की कोटि में रखा जा सकता है। इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि, इधर जैन, अपभ्रंश चरित काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है, वह सिर्फ धार्मिक संप्रदाय के मुहर लगने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है, अपभ्रंश की कई रचनाएं, जो मूलत: जैन धर्म भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निस्संदेह उत्तम काव्य हैं। यह बात बौद्ध सिद्धों की कुछ रचनाओं के बारे में भी कहीं जा सकती हैं। (हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, भाग-1)
सिद्धकाव्य किसे कहते हैं ?
2 सिद्ध काव्य
- सिद्ध संप्रदाय को बौद्ध धर्म की परंपरा का हिन्दू धर्म से प्रभावित एवं धार्मिक आन्दोलन माना जाता है। तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्र द्वारा सिद्धि चाहने के कारण इन्हें सिद्ध कहा जाने लगा। इन सिद्धों की संख्या 84 मानी गई है। राहुल सांकृत्यायन ने तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है, जिनमें सरहया, शबरपा, कण्हपा, लुइपा, डोम्मिपा, कुक्कुरिपा आदि प्रमुख हैं। केवल चौदह सिद्धों की रचनाएं ही अभी तक उपलब्ध हैं।
- सिद्धों द्वारा जनभाषा में लिखित साहित्य को सिद्ध साहित्य कहा जाता है। यह साहित्य बौद्धधर्म के वज्रयान का प्रचार करने हेतु रचा गया। अनुमानतः इस साहित्य का वस्तुत: रचनाकाल सातवीं से तेरहवीं शती के मध्य है। इन सिद्ध कवियों की रचनाएं दोहाकोश और चर्यापद के रूप में उपलब्ध होती है सिद्ध साहित्य में स्वाभाविक सुख भोगों की स्वीकृति और गृहस्थ जीवन पर बल दिया गया है तथा पाखण्ड एवं बाह्य अनुष्ठानों का विरोध तथा स्व शरीर में परमात्मा का निवास माना है। यही नहीं गुरू का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है। आचार्य द्विवेदी का कथन है कि इन रचनाओं में प्रधान रूप से नैराश्य भावना, काया योग, सहज शून्य की साधना और भिन्न प्रकार की समाधि आदि अन्य अवस्थाओं का वर्णन है।
- यद्यपि सिद्ध सम्प्रदाय का अभीष्ट काव्य लेखन नहीं था। वो तो केवल अपने विचारों एवं सिद्धांतों की अभिव्यक्ति के लिए जनभाषा में साहित्य रचते थे और उनकी भाषा शैली में जो अक्खड़पन और प्रतीकात्मकता है उसकी प्रभाव परवर्ती हिंदी साहित्य पर पड़ा है। आप देखेंगे कि वे सिद्ध कवि अपनी बात सीधे ढंग से न कहकर तंत्र-मंत्र के अंतर्गत प्रयोग किए जाने वाले विशिष्ट शब्दों के माध्यम से ही प्रकट करते थे। राहुल सांकृत्यायन ने परवर्ती हिंदी कवियों पर उनके प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा है कि “यही कवि हिंदी काव्य धारा के प्रथम सृष्टा थे। नये-नये छन्दों की सृष्टि करना इनका ही कार्य था उन्होंने दोहा, सोरणा, चौपाई, छप्पय आदि कई छन्दों की सृष्टि की जिन्हें हिंदी कवियों ने बराबर अपनाया है।
- सरहपा या राहुलभ्रद का समय 769 ई० के लगभग माना जाता है। इनके ग्रंथों की संख्या 32 है। जिनमें कायावाश, दोहाकाश, सरहपाद गीतिका को प्रमुख माना जाता है.
वे कहते हैं
पडित सअल सत्य वक्टवाण्आ।
बुद्ध बसन्त या जाणआ।
अर्थात् पडित सभी शास्त्रों का व्याख्यान करते हैं, किन्तु देह बसने वाले बुद्ध (ब्रहम) को नहीं जानते। सरहपा के अतिरिक्त शबरपा, लुइप, कण्डपा आदि हैं। जिनके ग्रंथों की अनुमानित: संख्या 16 है । कण्हपा की रचनाओं की संख्या 74 मानी जाती है, पर कण्हपा गीतिका तथा दोहाकांश प्रमुख है। आप जान पायेंगे कि इन ग्रंथों में दर्शन तथा तम-विद्या है। उन्होंने मनुष्य के जीवन का मूल उद्देश्य सहजानंद की प्राप्ति को माना है, जो मात्र मोह के त्यागने पर शरीर के अंदर ही प्राप्य है जिसका मार्गदर्शक गुरू है। यही साधना मार्ग परवर्ती कवियों के लिए भी मार्ग दर्शक है।
नाथ कवियों की विशेष प्रवृत्ति पर प्रकाश डालिए?
3 नाथ काव्य
- नाथ संप्रदाय को सिद्धों की परंपरा का विकसित रूप माना जाता है। नाथ संप्रदाय में नाथ शब्द का अर्थ मुक्ति देनेवाला है। यह मुक्ति सांसारिक आकर्षण एवं भाग विलास से होती है तथा निवृत्ति मार्ग का दर्शक गुरू होता है। दीक्षा के उपरांत गुरू वैराग्य की शिक्षा देकर इन्द्रिय निग्रह, कुण्डलिनी जागरण, प्राण-साधना, नारी विरति के साथ हठयोग की प्रक्रिया अपनाता है। इनके साहित्य में प्रयुक्त प्रतीक सूर्य, चंद्र, गगन, कमल आदि है जो सूर्य 'ह' और चन्द्र 'ठ' के प्रतीक है और इनका मिलन हठ योग कहा गया है। आचार्य शुक्ल ने इन ग्रंथों की भाषा देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी मानी है।
- नाथ योगियों की संख्या नौ मानी गई है- नागार्जुन, जडभरत, हरिशचन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पटनाथ, जलंधरनाथ और मलयार्जुन है। इस संप्रदाय का आचार्य गोरखनाथ को माना जाता है तथा मत्स्येन्द्रनाथ उनके गुरू थे। गोरखनाथ के ग्रंथों की संख्या चालीस मानी जाती है, परन्तु हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल आदि ने प्रमुखतः चार ग्रंथ ही माने हैं- सदी, पद, प्राण-संकल्पी, शिष्यादर्शन । इनमें संयम, साधना तथा ब्रहमचर्य पर जोर दिया गया है तथा गुरू की महत्ता का बखान किया गया है।
गोरख नाथ कहते हैं
जाणि के अजाणि होय बात तूं ले पाणि |
चेलेहोइआं लाभ होइगा गुद होइआं हाणि ॥
- अर्थात् तू जानबूझकर अनजान मत बन और यह बात पहचान ले या जान ले कि शिष्य बनने में लाभ ही लाभ है और गुरू बनने में हानि है।
- नाथ योगियों ने आचरण-शुद्धि और चरित क्षमता पर बहुत जोर दिया है। उनके योग में संयम और सदाचार का बड़ा महत्व था। कबीर तथा अन्य भक्ति कालीन संत कवियों के साहित्य में प्राप्त कुंडलिनी जागृत करने की क्रिया का आधार भी नाथ योगियों का हठयोग है। आचार्य द्विवेदी कहते हैं कि नाथपंथ ने ही अनजाने परवर्ती संतों के लिए श्रृद्धाचारण प्रधान पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी हिंदी साहित्य की भूमिका)
जैन काव्य का महत्व स्पष्ट कीजिए ?
4 जैन काव्य
- जैन का अर्थ होता है सांसारिक विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त करने वाला यह शब्द 'जिन' से बना है यानी विजय पाने वाला। जो सांसारिक आकर्षण पर प्राप्त की जाती है। बौद्ध संप्रदाय से पूर्व ही जैन संप्रदाय का अम्युदय हो चुका था और उसके प्रवर्तक भी महावीर स्वामी थे जिनका अविर्भाव भी महात्मा बुद्ध से पहले आया था। जैन संप्रदाय में दया, करूणा, त्याग तथा अहिंसा, इंद्रिया निग्रह, सहिष्णुता, व्रतोपवास आदि को महत्व दिया गया है। जैन कवियों एवं मुनियों ने अपने धर्म प्रचार के लिए लोकभाषा ही अपनाई जो अपभ्रंश से प्रभावित हिंदी है। इनकी अधिसंख्य रचनाएँ धार्मिक हैं जिनमें जैन संप्रदाय की नीतियों, अध्यात्म और आगमों का विवेचन है और कुछ चरितकाव्य हैं। इनकी कृतियाँ रास, फागु, चरित, चउपई आदि काव्यरूपों में उपलब्ध है तथा अधिकतर उपदेशात्मक है। रस काव्यों में प्रेम-विरह एवं युद्ध आदि का वर्णन है।
- लौकिककाव्य होने के कारण इनमें धार्मिक तत्वों का समावेश भी हो गया है। अपभ्रंश काव्य परंपरा में प्रथम जैन कवि स्वयंभू हैं जिनका आविर्भाव सातवीं शती में हुआ था। इनकी प्रमुख कृतियाँ है – रिट्टनेमि चरिउ (अरिष्टनेमि चरित), पउम चरिउ (पद्म चरित) तथा स्वयं भूछन्दस। इनमें से पउम चरिउ में राम कथा है जो जैन धर्मानुसार रूप ग्रहण करती है तथा पांच खण्डों में विभक्त है। अरिष्टनेभि चरित में महाभारत और कृष्ण कथा चारकाण्डों में वर्णित हैतथा कौरव पाण्डव युद्ध का वर्णन भी मिलता है लेकिन वह भी जैन धर्म की रीतिके अनुसार कृष्ण चरित में उभरते परिवर्तन के रूप में ही है।
- दूसरे महत्वपूर्ण कवि पुष्पदंत हैं जिनका आदिर्भाव दसवीं शती के आरंभ माना जाता है। पुष्पदंत पहले शैव थे, बाद में जैन दीक्षा ग्रहण की थी। इनकी कृतियाँ हैं पुरिसगुणालंकार, महापुराण और णायकुमार चरिउ इसमें से प्रथम कृति दो भागों पुराण उत्तर पुराण जो तीन खण्डों में विभक्त हैं। तेईस तीर्थंकरों एवं भरत का चरितोल्लेख लिए हुए है। नागकुमार चरित में नौ संधियों में विभक्त चरितकाव्य है जो मूलतः श्रुत पंचमी के व्रत की महिमा लिए हुए है तथा अपभ्रंश भाषा में लिखी गई है। यह व्रतानुष्ठानिक कथा है। ने के आधार पर 24 कामदेवों में से एक के रूप में जन्म लिया था। यह नागकुमार ने व्रतानुष्ठान अपभ्रंश भाषा में लिखित नागकुमार के अलौकिक एवं चमत्कारिक कार्यों का वर्णन है। यही नहीं, आदिकालीन आधार सामग्री हेतु इसके अतिरिक्त मेरूतुंग की 'प्रबंध चिंतामणि, मुनि रामसिंह की पाहुड़ दोहा, धनपाल की भविसयत्तकहा भी जैन साहित्य की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
चारणकाव्य का स्वरूप स्पष्ट कीजिए?
5 चारण काव्य
- आदिकाल की विशेष प्रवृत्ति रही हैं कि कवियों आश्रयदाता राजा के राज्याश्रित कवियों द्वारा उनकी प्रशस्ति एवं वीरता तथा शौर्य का गायन किया है तथा युद्धों का सजीव चित्रण भी ऐसे कवियों को चारण कवि या दरबारी कवि कहा जाता था। ये चारण कवि अपने आश्रयदाता के यश, शौर्य, गुण में और वीरता की अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करने में कुशल स्वामी भक्ति कवि थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि, निरन्तर युद्धों के लिए प्रोत्साहित करने को भी एक वर्ग आवश्यक हो गया था। चारण इसी श्रेणी के लोग थे।
- उनका कार्य ही था हर प्रसंग से आश्रयदाता के युद्धोन्माद को उत्पन्न कर देने वाली घटनाओं का अविष्कार (हिंदी साहित्य की भूमिका) चारण कवियों ने अपने काव्य का प्रणयन अधिकतर डिंगल भाषा (राजस्थानी ) में ही किया है : बोलचाल की राजस्थानी भाषा के साहित्यिक रूप को डिंगल कहा जाता है जो वीरगाथात्मक काव्य के लिए सर्वथा उपयुक्त है। चारण काव्यकारों में चंद बरदाई, प विजय, जगनिक, नरपतिनाल्ह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें प्राय: सभी ने रासो काव्य परंपरा में अपनी काव्य कृतियाँ प्रस्तुत की हैं। चंद बरदाई ने पृथ्वीराजरासो, नरपति नाल्ह ने वीसलदेवरास, दलपति विजय ने खुमाणरासो तथा जगनिक ने परमालरासो (आल्हा खण्ड) की के रचनाएं की जगनिक ने परमात्मा रासों में क्षत्रिय जीवन का युद्ध लिए ही अभीष्ट माना है-
बारह बरस लौ कूकर जिए औ तेरह लै जिए सियार।
बरस अठारह सभी जीये, आगे जीवन को धिक्कार ।।
नरपति नाल्ह ने विग्रह राज (बीसल देव) का चरित वर्णन किया ।
यहीं पर आपको यह बताना भी अधिक उपयुक्त होगा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल वीरगाथा काल की आधार सामग्री में गृहीत पुस्तक भट्ट केदारकृत जयचंद प्रकाश तथा मधुकर कवि रचित जयमयंकजस चंद्रिका आज भी अनुपलब्ध हैं और उनका उल्लेख दयालदास कृत राठौड री ख्यात में ही मिलता है। अनुमान किया जा सकता कि ये दोनों कृतियाँ महाराजा जयचंद के प्रताप और पराक्रम की गाथा से परिपूर्ण हो सकती हैं।
लोकाश्रित ढोला मारू रा दूहा का महत्व स्पष्ट कीजिए?
6 लौकिक काव्य
- जनता की चित्तवृत्तियों का सर्वाधिक सटीक वर्णन लौकिक या लोक साहित्य परक कृतियों में मिलता हैं। ये प्रमुख रचनाएं ऐसी होती हैं जो कभी कवि विशेष द्वारा रची गई होती हैं, पर कालान्तर में वे लोक कंठाश्रित हो जाती हैं और जो उनका गायन वाचन करते हैं उनकी अपनी काव्यात्मक सम्वेदना कब कितना योगदान करती हैं, उसकी कोई पहचान संभव नहीं होती है। दूसरी ओर ऐसी भी लौकिक परंपरा की काव्य कृतियाँ सामने आती हैं जिसमें विशेष विषयों से संबंध जुड़ा होता है जिसका साहित्येतर प्रवृत्ति के रूप में जनता के मनोरंजन हेतु प्रस्तुत किया जाता है। इसमें अमीर खुसरों द्वारा मुकारियों तथा पहेलियों का सृजन किया गया है। दूसरी ओर भक्ति एवं श्रृंगार की प्रकृति को लेकर विद्यापति ने साहित्य (पदावली) की रचना की धनपाल जैसे जैन कवि ने सामान्य व्यक्ति को नायक बनाकर काव्य सृजन नई प्रवृत्ति आरंभ की।
- अमीर खुसरों का आविर्भाव तेरहवीं शती (सन् 1255 ई.) में हुआ और उन्होंने लगभग सौ ग्रंथ की रचना की। उनमें से बीस ग्रंथ ही उपलब्ध होते हैं। उनकी काव्य कृति में पहेलियाँ, दो सुखन, मुकरियाँ, ढकोसला आदि संग्रहित हैं। उनकी रचनाएं प्रायः खड़ी बोली हिंदी का प्रारम्भिक किंतु ऐतिहासिक रूप है। कुछ उद्धाहरण द्रष्टव्य है
एक थाल मोती से भरा। सब के सिर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाल फिरे मोती उससे एक न गिरे
मुकरी का उदाहरण -
मेरा मोसे सिंगार करावत आगे बैठ के मान बढावत
वासं चिक्कन ना कोउ हीसा
ऐ सखि साजन ना सखि सीसा
- विद्यापति बिहार (दरभंगा) निवासी कवि हैं जिन्होंने मैथिली भाषा में श्री कृष्ण एवं राधा विषयक प्रेम विरह भावों को अभिव्यक्ति दी है। विद्यापति के प्रथम आश्रयदाता राजा कीर्ति सिंह और बाद में मैथिली नरेश शिव सिंह थे। विद्यापति ने अपने अधिकांश ग्रंथों की रचना संस्कृत में की। इनमें शैव सर्वस्वसार, प्रमाणभूत पुराण संग्रह, भू परिक्रमा, पुरूष परीक्षा, लिखनवली, गंगा वाक्यावली, दान वाक्यावली, विभागसार, दुर्गाभक्ति तरंगिनी प्रमुख हैं। हिंदी साहित्य के अंतर्गत विद्यापति के तीन ग्रंथ उल्लेखनीय हैं- कीर्तिलता, कीर्तिपताका तथा पदावली. कीर्तिलता और कीर्तिपताका चरित काव्य है, पदावली श्रृंगारिक एवं भक्ति परक रचना है। कीर्तिलता राजा कीर्ति सिंह चरित विषयक रचना है जो कवि द्वारा अवहट्ठ (अपभ्रंश) की प्रथम रचना है और जिसे सुनने से पुण्य प्राप्ति होती है। भृंग-भृंगी संवाद द्वारा कहानी आगे बढ़ाई गई है। पृथ्वीराज रासो में शुक शुकी सम्वाद है। इस रूप में दोनों कृतियों में साम्य है। पदावली पद संग्रह है जो मैथिली (भाषा) में रची गई है। वस्तुतः इस विद्यापति पदावली के गीतों का सर्वाधिक प्रचार चैतन्य महाप्रभु ने किया है। वे भाव विभोर इन नीतियों का गायन करते थे। इन पदों (82) में राधाकृष्ण प्रेम का श्रृंगारिक चित्रण है। राधा के अप्रतिम सौन्दर्य का चित्रण विद्यापति करते है-
लोल कपोल ललित मनि-कुण्डल, अधर बिम्ब अध आई।
भौंह भमर नासा पुट सुन्दर देखि कर लजाई
- विद्यापति के इस गीत काव्य के नायक राधा-कृष्ण हैं, परन्तु यह केवल भक्ति रचना नहीं है। वास्तव में विद्यापति ने राधा-कृष्ण की प्रणय लीला से सम्बद्ध पदों की रचना श्रृंगार चित्रण को ध्यान में रखकर की है। डॉ. रामकुमार वर्मा कहते हैं, उन्होंने (विद्यापति ने) श्रृंगार पर ऐसी लेखनी उठाई है जिससे राधा और कृष्ण के जीवन का तत्व प्रेम के सिवाय कुछ नहीं रह गया है। " ( हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास) भविष्यत्त कहा यह अपभ्रंश में रचित कथा काव्य है जो श्रुतपंचमी के महात्मय का वर्णन है। इसके रचयिता जैन संप्रदाय में दीक्षित कवि (दसवीं शती) है | यह कृति बाईस संधियों में रचित दम्पत्ति धनपाल और कमलश्री के पुत्र भविष्यदत्त की कथा है जिसे उसका सौतेला भाई बंधुदत्त धोखा देकर सारी संपत्ति हड़प कर लेता है। भविष्यदत्त की सच्चरित्रता तथा वीरता के कारण राजपुर के राजा बंधुदत्त को दंडित कर भविष्यदत्त से अपनी बेटी का विवाह कर देते हैं। विवाह के उपरांत भविष्यदत्त को मनि विमल बुद्धि उपदेश देते हैं तथा उन्हीं के माध्यम से उसे अपने पूर्वजन्म की कथा का पता चलता है। अंत में भविष्यदत्त तपस्या करके निवार्ण की प्राप्ति करते हैं। यह काव्य कडवकबद्ध शैली में रचित प्रकृति, रूप, नखशिख वर्णनों का श्रेष्ठ आंकलन है जिसमें वीर श्रृंगार तथा शांत तीन रसों का समावेश है तथा इसकी भाषा अपभ्रंश या पुरानी हिंदी है | ढोलामारू रा दूहा, सन्देशरासक की परंपरा में रचा गया लोककाव्य है और बीसलदेवरासो की भांति सन्देश काव्य है। बचपन में हुए विवाह के उपरांत मारू अपने पति ढोला को कई सन्देश भेजती है। अंत में मार (मारवणी) लोकगीतों के गायक ढोढी का दायित्व सौंपती हैं और वह अपने उद्देश्य में सफल होती है और उन दोनों का मिलन सम्भव हो जाता है। यद्यपि परदेश में ढोला का प्रेम मालवाणी के साथ विकसित हो जाता है। इधर मारवणी की मृत्यु के बाद मालवणी और ढोला का पुनर्मिलन हो जाता है।
- ढोलाकाव्य सौष्ठव से परिपूर्ण अनुपम लोकगाथा है। जिसमें श्रृंगार का संयोगकालीन वर्णन मर्यादित एवं अलौकिक है। नख-शिख पंरपरा युक्त वियोग वर्णन में हृदय की सच्चाई का स्वाभाविक एवं प्रभावशाली वर्णन है। मारवणी ढोढी के समक्ष अपने सन्देश में नारी हृदय को खोल कर रख देती है-
ढाढी एक संदेसड़उ, प्रीतम कहिया जाइ
सा घण बलि कुइला भई भसम ढँढोलिसि आइ।
ढाढ़ी जे प्रीतम मिलइ, यूं कहि दाखनियाह
ऊँजर नहिं छई प्रणिय था दिस झल रहियाह ।
अर्थात् घनि (पत्नी) जलकर कोयला हो गई है। अब आकर उसकी भस्म ढूंढना । अब उसके पंजर में प्राण नहीं है केवल उसकी लौ तुम्हारी ओर झुककर जल रही हैं, मारवणी का वह निवेदन जहाँ एक ओर चारण काव्यों के प्रणयन की व्यापकता बढ़ाता है, वही जन साधारण के कवि की स्वान्तः सुखाय लोक भावनाओं को जीवंत रूप में सहज ही प्रस्तुत करता है।
Question-
1. सिद्धकाव्य किसे कहते हैं ?
2. नाथ कवियों की विशेष प्रवृत्ति पर प्रकाश डालिए।
3. जैन काव्य का महत्व स्पष्ट कीजिए |
4. चारणकाव्य का स्वरूप स्पष्ट कीजिए ।
5. लोकाश्रित ढोला मारू रा दूहा का महत्व स्पष्ट कीजिए।