आदिकालीन साहित्य का विशिष्ट स्वरूप
- सामान्यत: इसमें अतिश्योक्ति ही है कि आदिकाल वीरगाथात्मक काव्य में आश्रयदाताओं के शौर्य गान, प्रशस्ति प्रकाशन और अतिरंजना पूर्ण अमिसिकतताका काल है। भावगत इकाई में यह अध्ययन कर चुके हैं कि इसी भ्रम के कारण इस काल खण्ड को वीरगाथा काल कहने के लिए आचार्य शुक्ल को दुविधा में डाला था। अब आप अध्ययन कर यह अवश्य ही अनुभव करेंगे कि दसवीं से चौदहवीं शताब्दी ईस्वीं का यह काल खण्ड साहित्य और भाषा की दृष्टि से विकास का काल था। युद्धों की निरंतरता और वैदेशिक आक्रांताओं द्वारा इस देश को तहस-नहस करने के बीच भी आश्रयदाताओं की साहित्यिक अभिरूचि की सशक्तता के परिणाम स्वरूप इस काल में निम्न प्रकार से भाषा एवं साहित्य के स्वरूप का अववाहन किया जा सकता है
आदिकालीन भाषा एवं साहित्य
क. संस्कृत साहित्य-
ख. प्राकृत साहित्य-
ग. धर्म संप्रदाय गत साहित्य - स्फुट साहित्य, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य
घ. देश भाषा साहित्य
- विषम परिस्थितियों में भी आदिकाल में वीरगाथा, भक्ति एवं श्रंगार के साथ धार्मिक, लौकिक और नीतिपरक आध्यात्मिक रचनाएं लिखी गई हैं।
- संकेत रूप में आप पुन: जान लीजिए कि इस युग और परिवेश में चंद बरदाई, विद्यापति, अमीर खुसरों, स्वयंभू, पुष्पदंत, रामसिंह, सरहपा, कण्हपा, गोरखनाथ, अब्दुर्रहमान, नरपति नाल्ह तथा जगनिक आदि ने राष्ट्रीय भावना से 'दूर रहकर आश्रयदाताओं के प्रशस्ति-गायन, शौर्य-वर्णन की अतिशयता, ऐतिहासिक विसंगतियों के बीच विकसित काव्यधारा में भक्ति, नीति और प्रकृति का चित्रण भी किया गया है।
- उक्त साहित्य सर्जना के आधार पर आचार्य शुक्ल का यह कथन अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है – “आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य - परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।
- जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अत: कारण स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है (रामचंद्र शुक्ल हिन्दी साहित्य का इतिहास, भूमिका,)