हिन्दी साहित्य के आदिकाल में लौकिक काव्य
आदिकाल के लौकिक काव्य की विषय वस्तु पर प्रकाश डालिए ?
- आदिकाल में लिखित काव्य प्रक्रिया का यह स्वरूप आपके सामने प्रस्तुत है जिसे कहा जाता है-लौकिक काव्य । यद्यपि खुसरोकी पहेलियों का उल्लेख आधार सामग्री के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कर ही चुके थे। अन्य और परवर्ती सामग्री उन्हें बीसवीं शती के दूसरे दशक तक उपलब्ध हो गई होती तो यह संभव था कि इस प्रक्रिया में वह भी आपके अध्ययन के लिए उपलब्ध करा दी गई होती। पर शुक्ल जी के समय में जब हिंदी शब्द सागर की भूमिका को वे इतिहास का रूप दे रहे थे, तब साधनों के अभाव और लेखक की सीमाओं के कारण ऐसा संभव नहीं हो सकता था।
- परवर्ती काल में हिंदी साहित्येतिहासकारों के प्रतिस्पर्धात्मक इतिहास लेखन ने गर्भगृहों, मंदिरों-उपासरों, निजी पुस्तकालयों के द्वार खटखटाए और सामग्री की खोज में लगे तो आदिकाल की इस प्रवृति प्रक्रिया का क्षेत्र विस्तार हुआ और अब इस क्षेत्र में ढोलामारूदा दूहाका उल्लेख अनिवार्य हो गया है। 'वसंतविलास', जयचंद्र प्रकाश जयमंयकजसचिद्रका, को भी लौकिक काव्य के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। यद्यपि हम और पिछली इकाई में (पांचवीं में) आपको यह बता चुके हैं कि 'जयचंद्र प्रकाश' और जयमयंकजस चंद्रिका का उल्लेख ही हैं, वह भी राठौढा री ख्यात में उल्लेखकार ने स्वयं इन कृतियों के संबंध में में कुछ भी विवरण नहीं दिया है।
- पूरक आप यह जान कर अपना ज्ञान-वर्द्धन करेंगे कि इन लौकिक काव्यों की वर्ण्य वस्तु श्रृंगार रस प्रधान है। वीर रस का उसमें योगदान नहीं है। वीर और श्रृंगार रस एक दूसरे के होते हैं पर यह नितान्त श्रृंगारिक रचनाएं हैं। 'ढोला मारू रा दूहा' प्रेमकाव्य है, वसंत विलास में वसंत और स्त्रियों पर उसके विलास पूर्ण प्रभाव का मनोहारी चित्रण किया गया है।
उसका ही एक उदाहरण दृष्टव्य है -
इणिपरि कोइलि कूजइ, पूजइ यूवति मणोर।
विधुर वियोगिनि धूजइ, कूजइ मयण किशोर ।
अर्थात् एक ओर आम्रवृक्षों पर कोयल कूकती है, दूसरी ओर पति युक्त युवतियाँ विलास मग्न होकर मनोरंजन करती हैं। इसे देखकर विधुर जन और वियोगिन नारियाँ कांपने लगती हैं, क्योकि मदन किशोर (कामदेव) का कूजन उनके मन में प्रिय के अभाव का आभास देता रहता है। आदिकाल के स्तर पर लौकिक काव्य में ऐसी रचनाएं हैं जो इस काल खण्ड में लिखी गई हैं, पर उनकी वर्ण्य वस्तु रीतिकालीन है।