हिन्दी साहित्य की आदिकालीन परिस्थितियाँ
आदिकालीन परिस्थितियों की चर्चा करने से पूर्व आपको आदिकाल के स्वरूप को समझने का संकेत ऊपर किया जा चुका है। जिससे आप भलीभाँति जान चुके हैं कि आदिकालीन साहित्य सर्जना के लिए किस प्रकार की परिस्थितियाँ थीं जो तत्कालीन दरबारी कवियों को काव्य रचना के लिए बाध्य करती थी। आपके समक्ष इन परिस्थितियों की निम्नाकित चार वर्गों में रखा जा रहा है।
आदिकालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ
- हिन्दी साहित्य का यह प्रथम काल खण्ड तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता एवं अव्यवस्था, गृह कलह और पराजय और आंतरिक हताशा का कालखण्ड था। दूसरी ओर विदेशी आक्रमण राज्यों की स्वतंत्रता पर हावी हो रहे थे। सम्राट हर्ष वर्धन (सन् 606-643) के निधन के बाद उत्तर भारत में केन्द्रीय शक्ति का क्षय और राजसत्ता अस्थिर हो गई थी, दक्षिण भारत में राष्ट्रकूटों का साम्राज्य स्थापित हो चुका था । मुहम्मद बिन कासिम के सिंध पर आक्रमण पर वहां का राजा दाहिर की पराजय का कारण वहां के जाट और ब्राहमण राजाओं के सहयोग का अभाव रहा है। आप इतिहास पर दृष्टि डालें तो इस कालखण्ड में अनेक छोटे-छोटे राज वंश गुर्जर, तोमर, राठौर, चौहान, चालुक्य, चंदेल, परमार, गाहड़वार आदि सत्ता प्राप्ति के लिए पारस्परिक युद्ध, गृह कलह और विघटन के कारण सामन्तवाद को प्रोत्साहित कर रहे थे तथा देश एकतंत्र व्यवस्था में न रहकर अनेक राज्यों में बट गया था। राष्ट्रीयता या देशभक्ति की भावना सर्वथा लुप्त थी। राज-भक्ति, आश्रयदाता का शौर्य-गान एवं प्रशंसा तथा अनुचित कार्यों के समर्थन का प्रचलन बढ़ चला था।
- सन् 800 से 1020 ई० तक के पाल शासकों ने गजनवी के तुर्कों का सामाना केवल व्यक्तिगत वीरता, शौर्य, आत्मबल और देश हित में प्राणोत्सर्ग करने के लिए ही रहा, सामूहिक रूप से गजनी के आक्रमणों से लोहा लेना नहीं। आपसी फूट, कलह तथा विलासिता के कारण भारतीय शक्ति ध्वस्त होती रही और इस्लाम का आगमन, उनकी बढ़ती सत्ता-भूख के सामने दोषपूर्ण राजनीति अपनी चेतना खो चुकी थी। दसवीं से 1026 की अवधि में महमूद गजनवी ने सत्रह बार भारत पर आक्रमण क्रिया और अनेक भारतीय शक्तिशाली राजपूतों को अपने बीच कर लिया। मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत के पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्र पर राज्य स्थापित किया।
- अधिकांश आदिकालीन साहित्य में हिंदु शासकों के या तो पारस्परिक युद्धों का या फिर तुर्क- अफगानों से किए गए युद्धों अव्यवस्थाओं, लूट-मार तथा भारतीय राजतंत्र के पराजय के वातावरण में दरबारी कवियों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के यश-प्रशस्त शौर्यका गान उपलब्ध होता है लेकिन उससे अधिक पराजित हिन्दुओं को जैन एवं बौद्ध धर्म से संबंधित साहित्य के माध्यम से चित्रित किया गया है। चंद बरदाई, विद्यापति, अमीर खुसरो, स्वयंभू, पुष्पदंत, हरिभ्रदसूरि, रामसिंह के अतिरिक्त कण्हपा सरहपा ने तत्कालीन परिवेश को शब्द दिए हैं।
आदिकालीन धार्मिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ
- हिन्दी साहित्य के आदिकाल धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी अस्थिर, एक दूसरे को प्रभावित करने तथा परिस्परिक आदान-प्रदान का था । ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आठवीं से लेकर बारहवीं शती तक भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त लगभग अपरिवर्तनीय हैं, किन्तु उनका बाह्य आकार परिवर्तित होता हुआ प्रतीत होता है। आपके समक्ष धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का पृथक रूप से उल्लेख अधिक उपयुक्त है।
धार्मिक परिस्थितियां
- ईसा की सातवीं शती यानी हर्षवर्धन के समय में ब्राहमण और बौद्ध धर्मों में समान आदर भाव था। हर्ष स्वयं बौद्ध मतावलंबी थे और बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार काफी मात्रा में था फिर भी उदार एवं धार्मिक सहिष्णुता के परिणाम स्वरूप विभिन्न धर्मों में पारस्परिक सौहार्द्र था तथा समन्वय की प्रवृत्ति की झलक भी मिलती थी। हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरांत केन्द्रीय सत्ता के अभाव से देश खण्ड राज्यों में विभाजन हुआ तो धार्मिक अराजकता के विस्तार के साथ वैदिक विधि-विधान और कर्मकाण्ड के चलते ब्राहमण और बौद्ध धर्म संप्रदाय अपनी पवित्रता खो चुके थे। आम जन सिद्धियों की दिग्भ्रांतता का शिकार हो रहा था। हीनयान वज्रयान, महायान, सहजयान में बिखरा बौद्ध धर्म तंद्ध-मंत्र, हठयोग जैसे पंचमकारों (मांस, मैथुन, मत्स्य, मद्य तथा मुद्रा) को भी विशेष स्थान प्राप्त होता जा रहा था। इनके बिना साधना अधूरी मानी जाती थी। वास्तव में बौद्धमत वाममार्गी हो चुका था। दूसरी ओर धर्म-नियम संयम और हठयोग द्वारा साधना के कठिन मार्ग से बढ़ने वाले नाथसिद्ध के रूप में जाने गए। डॉ० लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय ने लिखा है- “इस काल के हिन्दी प्रदेश और उसकी सीमाओं के आस पास जैन धर्म, बौद्ध धर्म के वज्रयानी रूप, तांत्रिक मत, रसेश्वर-साधना, उमा-महेश्वर-योग साधना, सोम सिद्धांत, वामाचार, सिद्ध और नाथ पंथ शैवमत, वैष्णवमत, शाक्त मत आदि विभिन्न मत प्रचलित थे। जैन- वैष्णव, शैव, शक्ति आदि संप्रदायों की प्रतिद्वन्द्विता राष्ट्रीय शक्ति का ह्रास कर रही थी। भीतरी विद्वेष से जर्जर देश में इतिहास से टकराने वाला संकल्प न रह गया। दुर्भाग्यवश ये धर्म मनुष्य की सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति के साधन बनने के स्थान पर विच्छेद-भाव उत्पन्न करने के साधन बने ।
- काल में वैदिक, बौद्ध एवं जैन धर्मसाथ-साथ प्रचलित थे और वैदिक धर्मका कभी-कभी बौद्ध या जैन धर्म से संघर्ष भी हो जाता था, पर धीरे-धीरे वैदिक या ब्रहमण धर्म बल पकड़ता गया तथा बौद्ध एवं जैन धर्म कमजोर पड़ते गए। इसका प्रमुख कारण यह है कि युद्धों के उस काल में अहिंसा पर आधारित बौद्ध जैन धर्म सीमाओं की मनोवृत्ति के अनुकूल नहीं हो सकते थे, इसलिए शैव मत का प्रभाव भी बढ़ता गया। निस्संदेह इस काल खंड में अनेक मत-मतांतरों से परिपूर्ण प्रतिद्वन्द्वी धार्मिकदल, इस्लाम की बढ़ती शक्ति, ब्राहमणविरोध, वैदिक और बौद्ध धर्मो का अत: संघर्ष तथा सांप्रदायिक विद्वेष कई रूपों में देखने को मिलता है।
सांस्कृतिक परिस्थितियाँ
- सम्राट हर्षवर्धन के समय तक भारत सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से सम्पन्न और संगठित था। उस समय की सांस्कृतिक उत्कर्ष को संगीत, चित्र, मूर्ति तथा स्थापत्य आदि कलाओं के रूप में आंका जा सकता था। जातीय एवं राष्ट्रीय गौरव का यह भाव सर्वत्र देखा जा सकता था। हिन्दी साहित्य यह काल दो संस्कृतियों के संक्रमण एवं हास-विकास का काल था जिसके एक छोर पर भारतीय संस्कृति का उत्कर्ष था तो दूसरे छोर पर आदिकाल के समापन काल में मुस्लिम संस्कृति की संस्थापना थी। तभी तो कहा गया है कि भारत में मुस्लिम संस्कृति के समय में दीर्घ काल से चली आती हुई समन्वय की एक व्यापक प्रक्रिया पूर्णता को पहुँच रही थी। (हिंदी साहित्य का इतिहास सं. नगेन्द्र,)
- ईसा की ग्यारवीं शती में इस्लामिक संस्कृति के प्रवेश से भारत की दोनों संस्कृतियों (हिंदू-मुस्लिम) का एक दूसरे से प्रभावित होना सहज स्वाभाविक था। प्रारंभ में ये दोनों संस्कृतियाँ परस्पर प्रतिद्वन्द्वी के रूप में आमने-सामने थी, पर सत्ता में बढ़ते मस्लिम प्रभाव के कारण मुस्लिम संस्कृति एवं कला का प्रभाव भारतीय जन-जीवन पर पड़ने लगा था। इस्लाम मूर्ति-विरोध सर्वविदित है। लेकिन इसमें दो मत नहीं है कि दोनों संस्कृतियाँ परस्पर किसी न किसी रूप में एक समान प्रभाव ग्रहण करती है।
हिन्दी साहित्य सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ
हिन्दी साहित्य के आदिकाल से समाज विभिन्न वर्णों तथा जातियों में विभाजित तथा असंगठित समाज-व्यवस्था का शिकार था। भारतीय राजसत्ता समाज के हित को भूलकर आपसी फूट और झगड़ों में डूबी थी यद्यपि वीसल देव व राणा सांगा जैसे राष्ट्रीय भावना युक्त क्षत्रिय भी इस समाज का अंग थे, पर अधिसंख्य लोगों में इस भावना का अभाव था। आप इसे दो स्तर पर भली प्रकार समझ सकते हैं
सामाजिक परिस्थितियाँ -
- आदिकाल में समाजिक रीतिरिवाजों और विधि विधान की कट्टरता का प्रचलन पहले से ही विद्यमान था तथा जनता शासनऔर धर्म दोनों ही ओर से निराश्रित और निरतंर युद्धों के झेलने के कारण बुरी तरह त्रस्त थी ईश्वर के प्रति अनास्था का भाव विकसित हो रहा था। समाज का उच्चवर्ण भोग विलासिता में लीन था और निर्धन या निम्न वर्ण शोषण का शिकार था। नारी भोग की वस्तु रह गई थी। सती प्रथा तथा अंधविश्वासों के अभिशाप से पूरा समाज ग्रस्त था। साधु-सन्यासी शाप और वरदानों के बीच जनसामान्य पर आतंक जमाए थे। आदिकालीन कवियों ने अपने परिवेश और वातावरण से ही अपनी काव्य रचनाओं की सामग्री जुटायी है।
- सामाजिक संकीर्णता अपने अनेक प्रतिबन्धों के रूप में आम व्यक्ति को सता रही थी। तभी लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय ने लिखा है कि इस काल के समाज में विभिन्न वर्गों के विविध प्रकार के उत्सव और वस्त्राभूषणों के प्रति प्रेम प्रचलित था। अरिवेट, मज्ज युद्ध, घुड़सवारी, द्यूत-क्रीड़ा, संगीत-नृत्य आदि मनोरंजन के साधन थे और कवियों का विशेष आदर था.... शक्ति और शैवों को छोड़कर शेष लोग खान-पान में सात्त्विकता बरतते थे। (हिन्दी साहित्य का इतिहास,)
आर्थिक परिस्थितियाँ
- आदिकाल के इस काल खण्ड में समाज अपनी आर्थिक परिस्थितियों से भी जूझ रहा था, आर्थिक परिस्थितियों की अस्थिरता का मूल कारण तद्युगीन युद्ध ही कहे जा सकते हैं। विदेशी आक्रांताओं का मुख्य उद्देश्य भारतीय संपत्ति को पहुँचाना या फिर धन, स्वर्ण आदि लूट कर अपने देश ले जाना था. यही नहीं, समय-समय पर यवन आक्रमणकारी देश में प्रविष्ट होकर हमारे खेतों में खड़ी फसलों को रौंद कर, जलाकर नष्ट कर देते थे। नगरों, गांवों, मंदिरों तथा संग्रहालयों को तोड़कर लूट कर के हमारी ज्ञान संपदा भी नष्ट करते थे। लगातार युद्धों एवं आक्रमणों का दुष्परिणाम अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था पर व्यापक रूप से पड़ा। जनता निर्धनता और लूटमार से आक्रांत एवं त्रस्त हो चुकी थी और उसको जीवन यापन के साधन जुटाना भी दुर्लभ हो गया था। साहूकारों और सामंत आम निर्धन जनता को ऋण ग्रस्त कर बेहाल किए हुए थे। सत्ता जनता के प्रति गहरी निरपेक्ष थी वह उनके कल्याण और आर्थिक उद्धार करने के स्थान पर उनका शोषण ही कर रही थी। यह स्पष्ट है कि यह काल खण्ड सामाजिक एवं आर्थिक अराजकता का था। जमींदार, सेना नायक, शासक जागरूक थे. कर्तव्य-पालन के प्रति उदास थे। अत: आर्थिक अनुदारता के सत्ता पक्ष के इस स्वरूप से जनता निर्धन, आश्रयहीन एवं कमजोरअर्थ साधनों के कारण उच्च वर्गीय शोषण का भी शिकार थी।
हिन्दी साहित्य के आदिकाल की साहित्यिक परिस्थितियाँ
त्रिभाषात्मक साहित्यिक सर्जना
- आदिकालीन हिन्दी साहित्य का विवेचन करते हुए आपके सामने यह प्रस्तुत किया जा चुका है कि तत्कालीन समय में परंपरागत संस्कृत साहित्य धारा में प्राकृत और अपभ्रंश की साहित्य सर्जना मूलकधारणा और जुड़ गई थी । इसीलिए आदिकाल की साहित्यिक परिस्थिति, साहित्य एवं भाषा के स्वरूप तथा स्थिति विशेष के अध्ययन की अपेक्षा रखती है।
- आदिकाल की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक परिस्थितियों की अस्थिरता और अराजकताका अध्ययन अभी तक आप कर ही चुके हैं। अब आप आदिकालीन साहित्य एवं भाषा की परिस्थितियाँ कैसी थीं यह भी जान लीजिए। नवीं से ग्यारहवी शती ईस्वी तक कन्नौज और कश्मीर संस्कृत साहित्य के मुख्य केन्द्र थे और इस काल खण्ड में एक ओर संस्कृत साहित्य धारा के आनन्दवर्धन, अभिनव गुप्त, कुन्तक, क्षेमेन्द्र, भोजदेव, मम्मट, राजशेखर तथा विश्वनाथ जैसे काव्यशास्त्री तो दूसरी ओर शंकर, कुमारिल भट्ट, एवं रामानुज जैसे दर्शनिकों और भवभूति, श्री हर्ष, जयदेव जैसे साहित्यकारों का सर्जनात्मक सहयोग था ।
- इसी काल खण्ड में प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं की साहित्य सर्जना भी हो रही थी। स्वयंभू, पुष्पदंत तथा धनपाल जैसे जैन कवियों ने अपनी प्राकृत एवं अपभ्रंश तथा पुरानी हिन्दी की मिश्रित रचनाएं भी प्रस्तुत की थीं। सरहपा, शबरपा, कणहपा, गोरखनाथ, गोपीचंद जैसे नाथ सिद्धों ने अपभ्रंश तथा लोकभाषा हिंदी में अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। राजशेखर की कर्पूरमंजरी, अमरूक का अमरूशतक तथा हाल की आर्यासप्तशती, अपभ्रंश की उत्तम कृतियों इसी कालखण्ड की देन हैं। वास्तव में यह काल मीमांसा-साहित्य सर्जना की प्रवृत्तियों का रहा हैं। आप ये जान लें कि संस्कृत भाषी साहित्य तत्कालीन राज प्रवृत्ति सूचक है तो प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य धर्म ग्रंथ मूलक भाषा की प्रवृत्ति का परिचालक है और हिंदी जन मानस की प्रवृत्ति की रचनात्मक वृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है।