संस्कृत साहित्य में भारवि का स्थान और जीवन वृत्त | Sanskrit Sahitya Aur Bharavi Ka Jeevan

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संस्कृत साहित्य में भारवि का स्थान और जीवन वृत्त | Sanskrit Sahitya Aur Bharavi Ka Jeevan


 संस्कृत साहित्य में भारवि का स्थान और जीवन वृत्त

 

⏩ भारवि के समय की भाँति इनका जीवन वृतान्त भी अभी तक कहीं भी उपलब्ध नहीं हुआ है । इनके महाकाव्य से इस विषय में तनिक भी सहायता नहीं मिलती है। पूरे ग्रन्थ में कवि ने अपने विषय में कहीं भी परिचयात्मक संकेत कुछ भी नहीं लिखा है। 

⏩ परन्तु सबसे पहले दक्षिण के एक शिलालेख में इनका नामोल्लेख पाया जाता है। अनुमान यही होता है कि भारवि दक्षिण भारत के रहने वाले थे । इस अनुमान की हाल ही में यथेष्ट पुष्टि हुई है। 

⏩ अभी कुछ वर्ष बीते आचार्य दण्डी विरचित गद्यात्मक अवन्तिसुन्दरी कथा तथा उसी का पद्यात्मक अवन्तिसुन्दरी नामक सारांश उपलब्ध हुए हैंजिनसे भारवि के विषय में भी बहुत कुछ बातें ज्ञात हुई हैं। सौभाग्यवश दण्डी ने कथा के आरम्भ में अपने पूर्वजों का वृतान्त विस्तार के साथ दिया है जिसमें लिखा है कि दण्डी के चतुर्थ पूर्वपुरुषजिनका नाम दामोदर थानासिक के समीपस्थ अपनी जन्म भूमि को छोड़कर दक्षिण प्रान्त में चले गये । 

 अवन्ति सुन्दरी कथा के सम्पादक पण्डित रामकृष्ण कवि ने इन्हीं दामोदर के साथ भारवि की एकता मानी है अर्थात् उनकी सम्मति में भारवि ही आचार्य दण्डी के चतुर्थ पुरुष ( प्रपितामह ) थेपरन्तु जिस पद्य के आधार पर यह अभिन्नता मानी जाती है उसके पाठ अशुद्ध होने के कारण इस सिद्वान्त को अब बदलना पड़ा है । 

⏩ भारवि दण्डी के प्रपितामह नहीं थे प्रत्युत प्रपितामह के मित्र थेक्योंकि भारवि की सहायता से ही दामोदर राजा विष्णुवर्धन की सभा में प्रविश्ट हुए । जो कुछ होइतना तो निश्चित है कि भारवि दक्षिण भारत के रहने वाले थे और चालुक्यवंशी नरेश विष्णुवर्धन के सभापण्डित थे। कुछ विद्वानों ने भारवि को त्रावणकोर प्रदेश का निवासी सिद्ध किया है। 

⏩ भारवि का जीवन वृतान्त भी अन्धकारमय है केवल कुछ किवदन्तियाँ ही उनके संबंध में संस्कृत कवियों से सुनी जाती हैं । एक किंवदन्ति उनको धारा नगरी का निवासी तथा राजा भोज का समकालीन बतलाती है । पिता का नाम श्रीधर तथा माता का नाम सुशीला बतलाया गया रसिकवती कन्या से उनका विवाह हुआ था जो कि भडौच के निवासी चन्दकीर्ति की पुत्री थी । 

⏩ यद्यपि भारवि के पिता भी उच्चकोटि के विद्वान् थेपर भारवि उनसे भी बढ़कर थे। सुनते हैं कि इनके पिता अपने पुत्र के वैदुष्य से परिचित होने पर भी सभा में इनका इसलिए तिरस्कार किया करते थे जिससे वे पाण्डित्य बढ़ाने मेंशास्त्राभ्यास करने में और दत्तचित् होंपरन्तु पण्डित समाज में अपनी निन्दा जिस पर पिता के द्वारा की गईसुनकर भारवि मन ही मन जल भुन गए और पिता को मार डालने का निश्चय किया। एक रात मारने के लिए तलवार लेकर गए भी परन्तु जब माता के सामने पिता के निन्दा के कारण को छिपकर सुनातब बेचारे बड़े मर्माहत हुएपिता के सामने गये और सरल हृदय की सच्ची बातें कह सुनाई । 

पितृघातरुपी घोर मानस के लिए पिता से प्रायश्चित भी पूछापिता ने ससुराल में जाकर सेवावृत्ति स्वीकार करने को कहा । बेचारे ससुराल में और अपने ससुर की गायें नित चराया करते थे। इनकी धर्मपत्नी भी वहीं थी। कार्यवश पत्नी ने इनसे पैसे माँगेपरन्तु उस समय भारवि के पास पैसे कहाँ झट इन्होंने अपना वह प्रसिद्ध से पद्य पत्नी को किसी गुणग्राही साहूकार के पास गिरवी रखने के लिए दिया वह नीतिमय पद्य था ।

 

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमपदां पदम् ।

वृणुते हि विमृश्यकारिणां गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।

 

⏩ पद्य के मर्म को समझने वाले किसी महाजन ने बहुत सा द्रव्य देकर इस पद्य को खरीद लिया और अपने शयनागार के सामने तख्ती पर इसे लिखकर लटका दिया। कार्यवश वह विदेश गया वहाँ उसे कई वर्षों तक ठहरना पड़ा। जब लौटकर रात को घर आयातब उसने अपनी पत्नी के पास ही किसी वयस्क पुरुष को सोते हुए पाया। पत्नी के कुव्यवहार से मर्माहत हो उसने सोते समय ही दोनों को मार डालने की ठानी परन्तु घर में घुसने के समय उसका माथा सहसा विद्धीत न क्रियाम् . वाली तख्ती से टकराया। उसने श्लोक पढ़ा- सहसा करने से रुक गयापत्नी को जगाया । तब उसके आश्चर्य की सीमा न रहीजब उसने वयस्क पुरुष को अपना वहीं प्यारा इकलौता पुत्र पाया । 

⏩ कल्पित अनिष्ट की आशंका से उसका अंग सिहर गया उसने भार बुलवायाबड़ा सम्मान किया और पत्नी तथा पुत्र की जीवन रक्षा वाले श्लोक के रचयिता के सामने अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट की। भारवि परम शैव थे। यह तथ्य किरातार्जुनीय के शैव माहात्म्य प्रतिपादककथानक तथा अवन्तिसुन्दरी कथा के उल्लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है । यह भी बात ज्ञात होती है कि निरन्तर राजसाहचर्य के कारण यह राजनीति के बड़े भारी पण्डित बन गए थे। राजशेखर ने लिखा है कि कालिदास तथा भतृमेष्ठ की तरह उज्जयिनी में भारवि की भी परीक्षा ली गई थी। जिसमें उत्तीर्ण होने पर इनके यश की वृद्धि हुई थी ।

 

1. श्रूयते चोज्जयिन्यां काव्यकारपरीक्षा 

इह कालिदासमेष्ठावत्रामररुपसूरभारवयः । 

हरिश्चन्द्रगुप्तौ परीक्षिताविह विशालायाम् ॥

 

दीपशिखा कालिदास की भाँति भारवि की भी आतपत्र भारविसंबा थी। काव्य रसिकों ने जिस उक्ति के उपर मुग्ध होकर इन्हें इस विरुद से विभूषित किया थावह इस प्रकार है

 

उत्फुल्लस्थलनलिनी वनादमुष्माउदधृत सरसिजसम्भवः परागः । 

वात्याभिर्वियति विवर्तितः समन्तादाधन्ते कनकमयातपत्रलक्ष्मीम् । किरात 5/39 ।। 


स्थल कमलिनी के वन के विकसित हैं। उनसे पीत पराग झर रहे हैं। हवा झोंके से बह रही है । इससे पराग उड़कर आकाश में फैला जा रहा है। इस प्रकार कमल का पराग सुवर्ण-निर्मित छत्र की शोभा धारण कर रहा है। आकाश में फैला हुआ पराग सुवर्ण के बन छत्र की तरह जान पड़ता है।

 

श्लोक का भाव बिल्कुल अनुपम हैएकदम नवीन है काव्य प्रेमियों को कवि का भाव इतना पसन्द आया कि उन्होंने भारवि को आतपत्र भारविही कहना प्रारम्भ कर दिया |

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