ताम्रपाषाण काल, ताम्रपाषाणकालीन स्थल सामान्य ज्ञान जानकारी
ताम्रपाषाण काल (2000 ई. पू. 500 ई. पू.)
- ताम्रपाषाण काल को अंग्रेजी में Chalcolithic Age कहते हैं।
- मनुष्य द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली प्रथम धातु तांबा थी। इस काल में प्रस्तर तांबा के साथ-साथ निम्न गुणवत्तायुक्त कांसे का भी प्रयोग होता था।
आहार / गिलुन्द / बनास संस्कृति (3000 ई. पू. 1500 ई. पू.)
- राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में बनास नदी घाटी में बनास संस्कृति का विकास हुआ।
- ताम्रपाषाण संस्कृति की मुख्य विशेषताओं को दर्शाने वाले स्थल आहार के नाम पर इसे आहार संस्कृति भी कहा जाता है।
- आहार को ताम्रवती कहा गया है, क्योंकि यहां से पत्थर के बजाय ज्यादातर तांबे के ही औजार प्राप्त हुए।
- आहार के उत्तर-पूर्व में स्थित गिलुन्द से भी पत्थरों के नगण्य उपयोग तथा ईंटों के अधिक प्रयोग के साक्ष्य प्राप्त हुए गिलुन्दर से फलक उद्योग भी प्राप्त हुए हैं।
- एच. डी. संकालिया के द्वारा किए गए उत्खनन में यहां से अग्निकुण्ड का साक्ष्य भी मिला है।
कायथा संस्कृति (2000 ई. पू. 1800 ई. पू.)
- 1664 ई. में वी. एस. वाकड़कर द्वारा कायथा संस्कृति को प्रकाश में लाया गया।
- कायथा संस्कृति हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन मानी जाती है। यहां के कुछ मृदभांडों पर प्राक् हड़प्पाई तथा कुछ पर हड़प्पाई प्रभाव दिखाई देता है।
स्वाल्दा संस्कृति (2000 ई. पू. 1800 ई. पू.) -यह संस्कृति ताप्ती नदी घाटी में स्थित थी।
एरण / नवदाटोली / नागदा / मालवा संस्कृति (1700 ई. पू. 1200 ई. पू.) -
- मालवा संस्कृति अपने मृदभांडों (चित्रित काले व लाल मृदभांड) की उत्कंष्टता के लिए जाने जाते हैं। मालवा संस्कृति के लोग कटाई, बुनाई में भी दक्ष थे। यहां से चरखे तथा तकलियों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
- एच. डी. संकालिया द्वारा उत्खनित नवदाटोली मालवा संस्कृति का सबसे विस्तृत ताम्रपाषाणकालीन ग्रामीण स्थल है। यहां से सर्वाधिक फसलों की संख्या प्राप्त हुई है।
जोरवे संस्कृति ( 1400 ई. पू. 700 ई. पू.)
- जोरवे संस्कृति के अन्तर्गत प्रमुख स्थल महाराष्ट्र में गोदावरी व उसकी सहायक प्रवरा नदी घाटी में स्थित जोरवे, नेवासा, दायमाबाद ईनामगांव, प्रकाश, चंदोली आदि हैं। इस संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता पूर्ण शवाधान एवं कलश शवाधान पद्धति है। यहां घरों के फर्श के नीचे बड़ी संख्या में बच्चों के शवों के साथ कलश भी दफनाए जाते थे, जिनमें मृतक की आवश्यकता की वस्तुएं रखी जाती थीं।
- यहां मृतक को उत्तर दक्षिण दिशा में दफनाया जाता था। जबकि उत्तर भारत में आंशिक समाधान पद्धति थी इस संस्कृति के शवाधानों से प्राप्त अस्थियों के अध्ययन से वयस्कों व शिशुओं में दंतक्षरण तथा शिशुओं में स्कर्बी रोग का पता चलता है।
- जोरवे संस्कृति के अन्तर्गत ईनामगांव से कृतिम सिंचाई के प्राचीनतम् साक्ष्य प्राप्त होते हैं। यहां से बस्ती की किले बंदी के भी साक्ष्य प्राप्त होते हैं। यहां केन्द्र में शासक वर्ग, पश्चिम में शिल्पी व प्राचीर के किनारे शेष लोगों के रहने के साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जिससे सामाजिक दूरी जाहिर होती है।
- जोरवे संस्कृति के अन्तर्गत नेवासा नामक स्थान से पटसन, नैदानिक मृदभांड व टोटीदार बर्तन के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। यहां से रेशम उत्पादन के विश्व के प्राचीनतम् साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
- इस संस्कृति के अन्तर्गत दायमाबाद नामक स्थान से तांबे का रथ, भैंसा, हाथी व गैंडा के साक्ष्य तथा गणेश पूजा के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। दायमाबाद हड़प्पाकालीन स्थल भी था। हड़प्पा काल में यहां से कांसे का रथ मिला है, जिसमें दो बैलों की जोड़ी जुती है और इसे एक नग्न मानव चला रहा है।
पूर्वी भारत स्थित ताम्रपाषाणकालीन स्थल
- उत्तर प्रदेश स्थित खैराडीह व नरहन, बिहार स्थित चिरान्द, सेनुआर, सोनपुर व ताराडीह, बंगाल स्थित पांडू रजार ढीबी व महीसादल से भी ताम्रपाषाणकालीन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं।
दक्षिण भारत स्थित ताम्रपाषाणकालीन स्थल :
- दक्षिण भारत में ब्रह्मगिरी, मास्की, संगेनकल्लू, पिकलीहल, उतनूर, पोचमपल्ली, नागार्जुनकोण्ड, कोडक्कल आदि स्थानों से ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इनकी सर्वप्रमुख विशेषता भस्म टीले (Ash Mont) हैं, जो मवेशी रखने वाली बस्ती के अवशेष हैं। यहां वर्ष के अन्त में मवेशी के गोबर व बाड़े की लकड़ियों को जला दिया जाता था, जिनसे भस्म टीलों का निर्माण हो गया था।
लौह युग :
- दक्षिण भारत में ताम्रपाषाणकाल का अन्त व लोह युग का प्रारंभ 1000 ई. पू. में हुआ। यहां से लाल व काले मृदभांडों के साथ लौह उपकरण भी प्राप्त होते हैं। लौह उपकरणों में कृषि उपकरणों की अपेक्षा युद्धास्त्रों की संख्या अधिक है। इस प्रकार उत्तरी भारत के विपरीत दक्षिण भारत में लौह युग पाषाणकाल के तुरन्त बाद प्रारंभ हो जाता है।
वृहदपाषाणकाल :-
- तत्पश्चात् दक्षिण भारत में महापाषाणकाल / वृहदपाषाणकाल (Megalithic Age) की शुरूआत हुई महापाषाणकाल की सूचना हमें उनकी यथार्थ बस्तियों से कम तथा उनकी कब्रों से ज्यादा मिलती है। ये कब्रें रिहायशी इलाकों से बाहर, वृत्ताकार या चौकोर होती थीं, जिनके ऊपर गोल पत्थर व भीतर आवश्यकता की वस्तुएं रखी जाती थीं, जिनमें लौह उपरकरण भी होते थे। उदाहरणार्थ अदिचनल्लूर व महुरझारी से प्राप्त करें। कब्रगाह मुख्यतः दो प्रकार के थे- पिट्टबरीयल (आंशिक शवाधान) एवं शिष्टबरीयल (पूर्ण शवाधान)
ताम्र निधान संस्कृति
- ताम्र संचय का सबसे प्रथम साक्ष्य 1822 ई. में कानपुर (उत्तर प्रदेश) के पास बिदुर से ताम्र मत्स्य भाले के रूप में प्राप्त हुआ है। परन्तु ताम्र संचय का सबसे बड़ा भण्डार (424 ताम्र उपकरण) मध्य प्रदेश के गंगेरिया नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। अब तक ताम्र संचय के कुल 85 स्थान प्रकाश में आए हैं, जिनमें सर्वाधिक स्थल उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुए हैं। इटावा (उत्तर प्रदेश) के पास साईपाई नामक स्थान से ताम्र संचय के साथ गरिक मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। इस आधार पर ताम्र संचय का संबंध गैरिक मृदभांड से मान लिया गया।
गैरिक मृदभांड संस्कृति (2000 ई. पू. 1500 ई. पू.) :
- इस संस्कृति का सर्वप्रथम साक्ष्य उत्तर प्रदेश स्थित बदायूं के पास रिसौली और बिजनौर के पास राजपुरपरशु से प्राप्त हुआ है। इस संस्कृति से जुड़े सर्वाधिक स्थल गंगा-यमुना दोआब में स्थित आलमगीरपुर, हस्तिनापुर, अहिच्छत्र, अतरंजीखेड़ा, साईपई नामक स्थान से पाए गए हैं। इस संस्कृति का नामकरण हस्तिनापुर से प्राप्त मृदभांडों के आधार पर किया गया है। यह संस्कृति तांबे के प्रयोग से संबंधित थी।
काले व लाल मृदभांड संस्कृति (2400 ई. पू. 100 ई.) :
- इस संस्कृति का सर्वप्रथम साक्ष्य उत्तर प्रदेश स्थित अतरंजीखेड़ा नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। तत्पश्चात् जोधपुर एवं नोह से भी इस संस्कृति के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। काले व लाल मृदभांड उत्तर में रोपण से लेकर दक्षिण में आदिचनाल्लूर तथा पश्चिम में लाखववाल से लेकर पूर्व में पांडु राजार ढीवी तक प्राप्त हुए हैं। इस मृदभांड का भीतरी व बाहरी किनारा काले रंग तथा शेष मृदभांड लाल रंग से चित्रित होता था।
चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति
- इस संस्कृति का सर्वप्रथम साक्ष्य उत्तर प्रदेश स्थित अहिच्छत्र नामक स्थान से प्राप्त हुआ है, जबकि सबसे बड़ा स्थल हरियाणा के पास बुखारी है। यह मृदभांड लोहे के प्रयोग से संबंधित था। इस संस्कृति से संबंधित गंगा-यमुना दोआब से प्राप्त स्थलों से लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं, परन्तु हस्तिनापुर से लोहे के उपकरण का साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है। हस्तिनापुर से चावल तथा अतररंजीखेड़ा से गेहूं व जौ के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा इस संस्कृति से संबंधित अन्य किसी स्थान से अनाज के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। कृषि उपकरणों में जखेरा से लोहे की बनी हंसिया व कुदाली प्राप्त हुई है। भगवानपुरा, दधेरी, नागर व कटपालन से भी इस संस्कृति के साक्ष्य प्राप्त होते हैं, परन्तु यहां से लोहे के उपकरण प्राप्त नहीं होते हैं। अतः इन्हें परवर्ती हड़प्पा संस्कृति का विस्तार माना जाता है।
उत्तरी काले पॉलिशदार मृदभांड संस्कृति :
- इस संस्कृति का सर्वप्रथम साक्ष्य तक्षशिला नामक स्थान से प्राप्त होता है, जो मोर्यकालीन है। उत्तर प्रदेश व बिहार से भी इस संस्कृति के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। यह संस्कृति आवश्यक रूप से लोहे से संबंधित थी। कालांतर में द्वितीय नगरीकरण, पक्की ईंटों व आहत मुद्रा से संलग्न हो गई।