आधुनिककालीन हिन्दी-खड़ी बोली
आधुनिककालीन हिन्दी
➽ हिन्दी के आधुनिक काल तक आते-आते ब्रजभाषा जनभाषा से काफी दूर हट चुकी थी और अवधी ने तो बहुत पहले से ही साहित्य से मुँह मोड़ लिया था।
➽ 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेजी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिन्दी पर भी पड़ा।
➽ नवीन राजनीतिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया।
➽ जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया तब उनका स्थान खड़ी बोली धीरे-धीरे लेने लगी। अंग्रेजी सरकार ने भी इसका प्रयोग आरंभ कर दिया ।
➽ हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारंभ में एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा ।
➽ 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते-आते खड़ी बोली गद्य-पद्य दोनों की साहित्यिक भाषा बन गई।
➽ इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित
करने में विभिन्न धार्मिक,
सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी
सहायता की ,फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी ।
खड़ी बोली
भरतेन्दु-पूर्व युग :
➽ खड़ी बोली गद्य के आरंभिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर के दो रचनाकारों सदासुख लाल 'नियाज' ('सुखसागर) व इंशा अल्ला खां ('रानी केतकी की कहानी ) - तथा फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकता के दो मुशियों- लल्लू लालजी (प्रेम सागर ) व सदल मिश्र ('नसिकेतोपाख्यान') के नाम उल्लेखनीय हैं।
➽ भारतेन्दु- पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिन्दी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था। इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों-राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिन्द' व राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी के स्वरूप निर्धारण के प्रश्न पर दो सीमांतों का अनुगमन किया राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का गँवारूपन दूर कर कर उसे उर्दू-ए मुअल्ला बना दिया तो राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया।
भारतेन्दु युग (1850 ई०-1900 ई०):
➽ इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग में हुआ।
➽ हिन्दी सही
मायने में भारतेन्दु के काल में 'नई
चाल में ढली' और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के
बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक
मंडल भी तैयार किया, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा
गया। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली
को माध्यम रूप में अपनाकार युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया । लेकिन पद्य
रचना के मामले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने के प्रश्न पर विवाद बना रहा
जिसका अंत द्विवेदी युग में जाकर हुआ।
द्विवेदी युग (1900 ई० – 1920 ई०) :
➽ खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1903 ई० में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका के संपादकत्व का भार संभाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे लेखकों की वर्तनी अथवा व्याकरण संबंधी त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बखूबी अंजाम दिया।
➽ गद्य तो भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिष्ठित होने लगी। इस प्रकार ब्रजभाषा, जिसके साथ 'भाषा' शब्द जुड़ा है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात् 'बोली' बन गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ 'बोली' शब्द लगा है, 'भाषा' बन गई, और इसका सही नाम 'हिन्दी' हो गया।
➽ अब खड़ी बोली दिल्ली के आस-पास
की मेरठ-जनपदीय बोली नहीं रह गई अपितु वह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम
बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएं विकसित हुईं। महावीर प्रसाद
द्विवेदी, श्याम सुंदर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के अवदान
विशेषतः उल्लेखनीय हैं ।
छायावाद युग (1918 ई० – 1936 ई०) एवं उसके बाद :
➽ साहित्यिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में छायावाद युग का योगदान महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा और राम कुमार वर्मा आदि ने इसमें महती योगदान दिया। इनकी रचनाओं को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम समर्थ है।
➽ हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यंजना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएं हैं।
➽ हिन्दी काव्य में छायावाद युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई०- 1946 ई०) प्रयोगवाद युग (1943 से) आदि आए। इस दौर में खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता गया। पद्य के ही नहीं, गद्य के संदर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था।
➽ कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आचोलना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भाषा-शैलियाँ और मर्यादाएं स्थापित की उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है।
➽ गद्य-साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य-साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर किया गया है, जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद-पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग; नाटक के इतिहास में प्रसाद-पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग; आलोचना के इतिहास में शुक्ल पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।