आधुनिक हिंदी साहित्येतिहास के अध्ययन की: आर्थिक परिवेश
➽उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में देश की जनता में अंग्रेजी राज्य के प्रति राजभक्ति दिखाने और उनसे सुधार की प्रार्थना करने की प्रवृत्ति थी। पर अंग्रेजी शासन में इससे कोई अंतर नहीं आया और उनकी अत्याचारपूर्ण नीति में यंत्रों के विकास के साथ ही आर्थिक शोषण और टैक्सों का एक नया अध्याय और जोड़ दिया गया। सामाजिक क्षेत्र में आर्थिक परिस्थिति का प्रभाव अधिक मुखरित हुआ। वर्ग संघर्ष की बढ़ती भावना ने मार्क्सवादी विचारधारा को बढ़ावा दिया। देश के आर्थिक शोषण से अनेक कठिनाईयां उपस्थित हुई।
प्रथम उत्थान-
➽ राजनीतिक एवं सामाजिक परिवेश के मूल में देश जनता की आर्थिक अवस्था विद्यमान रहती है। सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध के बाद शासन में परिवर्तन हुआ तथा यह आशा जगी कि देश की आर्थिक अवस्था सुधरेगी। प्रारंभ में अंग्रेजी सरकार ने भारतीय औद्योगिक विकास में रूचि नहीं दिखलाई जिसके परिणामस्वरूप भारतीय संपदा विदेश जाने लगी। प्रथम उत्थान के चिंतकों के लिए यह चिंता का विषय बन गया। अंग्रेजी माल की खपत हेतु सरकार ने कुछ कर भी निश्चित किए। भारतीय कपड़े पर कर का बोझ लादकर अपनी हित साधना में लग गए। शनैः शनैः भारत के बाजारों में विदेशी वस्तुएं भारी मात्रा में दष्टिगोचर होने लगीं। विदेशी वस्तुओं का प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा जिसके परिणामस्वरूप भारतीय उद्योग धंधों की स्थिति दिन प्रतिदिन गिरती चली गई। राष्ट्रीय चिंतक विदेशी वस्तुओं को ही अपनी आर्थिक अवनति । कारण समझ कर विदेशी वस्तुओं का विरोध करने लगे। परिणाम यह हुआ कि महंगाई, अकाल, टैक्स, एवं दरिद्रता आदि प्रथम युग की मुख्य आर्थिक समस्याएं बन गईं। राजनीतिक चेतना को जन्म देने वाली 'इंडियन नेशनल कांग्रेस ने भी अपने आदर्शों में आर्थिक स्वतन्त्रता की मांग को समाविष्ट किया।
द्वितीय उत्थान-
➽ द्वितीय उत्थान में
आते-आते आर्थिक स्वतन्त्रता एवं आर्थिक राष्ट्रीयता का आदर्श राजनीति में
महत्वपूर्ण आधार स्वरूप सम्मिलित किया गया। आर्थिक भावना ने कांग्रेस आंदोलन को
अधिकाधिक प्रेरित किया। कृषकों की आर्थिक विपन्नता तथा जमींदारों के अत्याचारों ने
आंदोलन के आर्थिक पक्ष को और भी अधिक दढ़ता प्रदान की। भारत वर्ष कृषि प्रधान देश
है। इसलिए कृषकों पर माल-गुजारी का भार डालकर और जमींदारों के अत्याचारों को
बढ़ावा देकर अंग्रेज सरकार ने उनको अत्यधिक दरिद्रता के गर्त में धकेल दिया।
कृषकों के गह उद्योग धंधों का विनाश कर दिया। प्रथम महायुद्ध तक भारतीय यह आशा
लगाए बैठे थे कि अंग्रेज भारतीय उद्योग धंधों को नवीन रूप प्रदान करेंगे किंतु ऐसा
नहीं हुआ। उनकी आशाओं पर पानी फिर गया। यह निश्चय हो गया कि सरकार भारत का
औद्योगिक विकास नहीं करना चाहती है क्योंकि उसे कच्चा माल एवं तैयार माल के लिए
भारत जैसा बाजार चाहिए। ऐसा निश्चय करते ही कांग्रेसी उग्रपंथियों ने विदेशी
वस्तुओं के बहिष्कार का मार्ग अपनाया। भारतीय पूंजीपतियों का इसमें अपूर्व सहयोग
मिला ।
ततीय उत्थान-
➽ द्वितीय महायुद्ध के बाद
अंग्रेजी अर्थ-नीति में परिवर्तन परिलक्षित होने लगा। इसका कारण यह था कि अंग्रेज
इस तथ्य से पूर्ण अवगत हो गए थे कि भारत के प्राकृतिक साधनों का विकास करने में
उनके साम्राज्यवादी हितों को बढ़ावा मिलता है। युद्ध काल में ही वे ऐसा अनुभव करने
लगे थे। युद्ध काल एवं उसके बाद से ही भारत की औद्योगिक उन्नति की ओर सरकार का
विशेष ध्यान गया। परिणाम यह हुआ कि शोषण की प्रक्रिया में भी तीव्र गति से
बढ़ोत्तरी हुई। सरकार ने मात्र उन्हीं उद्योग-धंधों पर ध्यान दिया जिसमें उनकी
पूंजी लगी थी। शनैः शनैः भारत में पूंजीवाद की जड़ें गहरी होती गई और भारतीय
उद्योग धंधे चल पड़े। अंग्रेजों की व्यापार नीति से प्रभावित भारतीय पूंजीपतियों
ने भी स्वतन्त्रता आंदोलन की अग्नि में घी डालना प्रारंभ कर दिया। यांत्रिक विकास
प्रक्रिया ने बेकारी को जन्म दिया जो विकराल समस्या का रूप धारण कर उपस्थित हुई।
वर्ग संघर्ष बढ़ने लगा क्योंकि मध्य वर्ग एवं मजदूरों में राजनीतिक चेतना का उदय
हो चुका था। चतुर्थ उत्थान तक आते आते इस वर्ग-संघर्ष ने अपना प्रबल रूप प्रदर्शित
कर दिया। परिणामस्वरूप बेरोजगारी, महंगाई, देशव्यापी दरिद्रता की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। कुछ लोगों
के पास पूंजी का अंबार लगने लगा। आर्थिक ढांचा चरमरा गया। पूंजीवाद ने मानव समाज
में शुद्ध आर्थिक संबंधों की स्थापना की जिससे श्रमिक वर्ग की चेतना का आधार भी
शुद्ध आर्थिक अर्थात् स्वार्थमय हो गया वे अपने संगठन को दढ़ता प्रदान करने हेतु
एक जुट हो गए। शनैः शनैः युग विचारकों एवं चिंतकों का ध्यान यथार्थ की कठोर
परिस्थितियों एवं निम्न वर्ग की करुण-दशा ने पूर्ण रूपेण अपने पर केन्द्रित कर
लिया। वर्ग संघर्ष से व्यापक जागति आई। दलित वर्ग विद्रोही बन गया। आर्थिक संबंधों
में कल्पना और भावना का स्थान समाप्त हो गया। यथार्थ ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया।
➽ गणतंत्र भारत में आर्थिक परिस्थिति में पूर्ण परिवर्तन आया। श्रमिकों, कृषकों एवं दलितों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया। सभी को रोटी, कपड़ा एवं मकान की सुविधा प्रदान की जाने लगी। पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के प्रशंसनीय प्रयत्न किए गए जो वर्तमान काल में भी चल रहे हैं। इनके परिणाम स्वरूप शिक्षा, यातायात के साधनों, परिवहन की सुविधा, पेय चल, प्रकाश, कृषि, स्वास्थ्य सेवा, परिवार नियोजन आदि सभी क्षेत्रों को उन्नतिशील बनाया गया। साथ ही कल-कारखानों तथा गह उद्योग-धंधों का विकास करके आर्थिक प्रगति के पथ पर भारतीय जन जीवन तन-मन-धन से तत्पर है।
➽ कानून द्वारा दलित और शोषित वर्ग-कृषक एवं श्रमिक की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन किया गया है। समाजवादी व्यवस्था की स्थापना से पूंजीवादी व्यवस्था में न्यूनता आई है। पंचवर्षीय आयोजनों द्वारा देश के प्राकृतिक संसाधनों का अधिक से अधिक दोहन एवं उपयोग कर देश की आर्थिक स्थिति सुधारने हेतु निरंतर प्रयत्न चल रहे हैं। पर्वतीय नदियों पर बांध बांधकर जलाशय तैयार कर विद्युत उत्पादन के अनेक कार्य सम्पन्न हो गए हैं तथा अनेक महत्वपूर्ण कार्य चल रहे हैं। सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण किया जा रहा है। पेय जल के लिए तालाबों का निर्माण कर वर्षा जल को एकत्रित किया जा रहा है, नल कूप की व्यवस्था गांव-गांव तक पहुंच गई है। गांव-गांव तक पक्की सड़कों का निर्माण हो चुका है।