छायावादी के कवि और उनकी रचनाएँ ।Chaayavaad ke kavi aur unki rachnaye

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 छायावादी  कवि (रचनाकार) और उनकी रचनाएँ 

छायावादी  के कवि और उनकी रचनाएँ ।Chaayavaad ke kavi aur unki rachnaye



 

भाग -01


छायावादी के कवि (रचनाकार) और उनकी जानकारी 

 

छायावादी कवियों के जीवन चरित्र तथा उनके काव्यों के विवेचन से इनकी चार कोटियाँ सामने आती हैं- 

 

01 साहित्य साधक - इनका एक मात्र लक्ष्य साहित्य साधना करना था। आजीवन साहित्य साधना में लगे रहे। 

02 जीवन केन्द्रित-  ये कवि तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय भाग लेते थे। साथ-साथ काव्य सजन का कार्य भी करते थे। इनका मुख्य लक्ष्य आंदोलन एवं साहित्य सजन दोनों न होकर जीवन में सफलता प्राप्त करना था। इसलिए जीवन केन्द्रित कहा जा सकता है। 

03 प्रणयी- ये कवि प्रेमी थे इनके जीवन का मुख्य लक्ष्य प्रणय था। इन्होंने लौकिक प्रेम को प्रधानता दी है तथा नारी के लौकिक, मांसल सौन्दर्य का चित्रण किया है। लौकिक सौन्दर्य का अनुभूतिपरक वर्णन सराहनीय है। 

04  हास्य व्यंग्य-

 


1. साहित्य साधक - छायावादी कवि और उनकी रचनाएँ 

 

  • "स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा 
  • भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति।।" के कहने वाले महाकवि, भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास वास्तविक साहित्य साधक थे। जीवन से दुखी किसी से मोह माया नहीं रह गई थी अगर रही भी होगी तो स्मति संचारी भाव में यही स्थिति छायावादी मनीषियों तथा मनीषिणी की थी चारों वैयक्तिक जीवन के दुख से संतप्त होकर उसे विस्मत कर साहित्य साधना में लग गए थे। 
  • प्रसाद की पत्नियां मरती गईं, प्रेमिकाओं से सच्चा प्रेम न मिला। पंत आजीवन कुंवारे रहे। प्रेमिका मिली तो प्रकृति। 
  • निराला की पत्नी एवं सरोज की मृत्यु ने उनकी कमर तोड़ दी। केवल स्मतियों में संजोए रहे। 
  • महादेवी वर्मा का विवाह डॉ. एस.एन. वर्मा से हुआ किंतु आजीवन बिना तलाक के रहीं जीवन का सुख नहीं भोगा। 
  • रत्नावली का परित्याग कर ही तुलसी गोस्वामी तुलसीदास बने। साहित्य साधना का आनन्द सच्चा साहित्यकार ही जानता है। 
  • छायावाद की चतुष्टयी के जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत, पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तथा महादेवी वर्मा चारों साहित्यकार सच्चे साहित्य साधक थे।

 

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय और उनकी रचनाएँ 

 

जयशंकर प्रसाद का व्यक्तित्व 

  • कविवर जयशंकर प्रसाद (सन् 1890-1937 ई.) का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत् 1946 वि. को वाराणसी के प्रसिद्ध तंबाकू के भारी व्यापारी 'सुंघनी साहू' के पुत्र रूप में हुआ। प्रसाद के पितामह शिवरतन साहू काशी के अति प्रतिष्ठित नागरिक थे। अवधि में सुघनी' सूंघने वाली तंबाकू को कहते हैं। 
  • यह परिवार अति उत्तम कोटि की तम्बाकू का निर्माण करता था इसीलिए नाम ही 'सुघनी साहू' पड़ गया। भरा-पूरा परिवार था। कोई भी धार्मिक अथवा विद्वान काशी में आता तो साहू जी उसकी अत्यधिक सेवा करते थे। दानी परिवार था। कवियों, गायकों तथा कलाकारों की गोष्ठियां उनके घर पर चलती रहती थीं। 'महादेव' नाम से प्रसिद्ध थे। शैशवावस्था में ही खेलने की अनेक वस्तुओं में से लेखनी का चयन किया था। नौ वर्ष की अवस्था में 'कलाधर' उपनाम से कविता रचकर अपने गुरु 'रसमय सिद्ध को दिखलाई। इनका परिवार शैव था। घर पर ही संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी तथा फारसी आदि भाषाओं के पढ़ने की व्यवस्था थी।

 

  • बारह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। अग्रज शंभुरतन का ध्यान व्यवसाय की ओर अधिक न था। देवी प्रसाद की मृत्यु के बाद गहकलह ने जन्म लिया। मकान बिक गया। कॉलेज की पढ़ाई छूट गई। आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। उपनिषद्, पुराण, वेद एवं भारतीय दर्शन का अध्ययन घर पर चलता रहा। प्रसाद जी कसरत किया करते थे। दुकान बही पर बैठे-बैठे कविता लिखा करते थे। माता की मृत्यु के दो वर्ष बाद अनुज भी चल बसे।

 

  • सत्रह वर्ष की अवस्था में उत्तरदायित्व का भार आ गया। स्वयं विवाह करना पड़ा। तीन विवाह किए। साहित्य साधना रात्रि में होती थी। प्रसाद की कविता का आरंभ ब्रजभाषा से हुआ।

 

जयशंकर प्रसाद कृतित्व

 

काव्य-

  • 'उर्वशी' (चम्पू) प्रेम राज्य' (चम्पू), 'वन मिलन', 'अयोध्या का उद्धार', 'शोकोच्छवास', 'बभ्रुवाहन', 'कानन कुसुम', 'प्रेम पथिक', 'करुणालय', 'महाराणा का महत्व', 'झरना', 'आंसू', 'लहर' एवं कामायनी ( महाकाव्य ) । संकलन- 'चित्राधार

 

कविताएं- 

  • 'प्रभो', 'रजनीगंधा', 'देव मंदिर', 'दलित कुमुदिनी', 'प्रभात', 'चूक हमारी', 'प्रेमोपालभ', 'विदाई', 'नमस्कार', 'पतितपावन', 'रमणी हृदय', 'खोलो द्वार', 'श्रीकृष्ण जयंती', 'विनोद बिंदु', 'मकरंद बिंदु', 'गंगा सागर', 'विरह, मोहन', 'मिलन', 'प्रियतम', 'मेरी कचाई', 'तेरा प्रेम', 'तुम्हारी स्मरण', 'हमारा हृदय', 'मिल जाओ गले', 'अनुनय', 'तेरा रूप', 'सागर संगम', 'आत्म कथा', आदि समय समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कथाएं- 'मर्म कथा', 'सत्यव्रत' तथा 'भरतचतुर्दशपदी स्वभाव, विनय', 'दर्शन', 'भुखमरी नींद' । गद्य काव्य प्रबोधिनी'  

  • कहानी- 'आकाश द्वीप', 'इन्द्रजाल', 'आंधी', 'प्रतिध्वनि' 
  • उपन्यास -'कंकाल' 'तितली', 'ईरावती' । निबंध काव्य और कला तथा अन्य निबंध।

 

जयशंकर प्रसाद के काव्य की साहित्यिक विशेषताएं 

  • प्रेम पथिक' की रचना पहले ब्रजभाषा में की गई थी बाद में उसे खड़ी बोली में रूपांतरित कर दिया गया। 'झरना' के पूर्व की सभी रचनाएं द्विवेदी युग में लिखी गई थीं। प्रसाद जी की आरंभिक शैली संस्कृत गर्भित है। 
  • 'झरना' में कवि ने आंतरिक कल्पना द्वारा सूक्ष्म भावनाओं को व्यक्त किया है। बाह्य सौंदर्य का चित्रण करते समय भी उन्होंने सूक्ष्म और मानसिक पक्ष को व्यक्त करने की ओर ध्यान दिया है। 'आंसू' का आरंभ कवि की विरह-वेदना से हुआ है। अंत में 'आंसू' को विश्व - कल्याण की भावना से संबंधित कर दिया है। अंत तक आते-आते कवि अपने व्यक्तिगत जीवन की निराशा और विषाद से ऊपर उठकर अपनी पीड़ा को करुणा का रूप देकर विश्व प्रेम में बदल देता है। 'लहर' गीत कला का सुंदर उदाहरण है। कल्पना की मनोरमता, भावुकता तथा भाषा शैली की प्रौढ़ता सर्वत्र दष्टिगोचर होती है। 'कामायनी' अंतिम कृति है। इसके द्वारा मानव सभ्यता दिखलाई गई है। 
  • संक्षिप्त कथानक में मानव जीवन के अनेक पक्षों को समन्वित करके मानव जीवन हेतु व्यापक आदर्श व्यवस्था का प्रयत्न किया है। पात्रों के चरित्रांकन में मनुष्य की अनुभूतियों, कामनाओं और आकांक्षाओं की अनेक रूपता वर्णित है। यह कामायनी की चेतना का मनोवैज्ञानिक पक्ष है। मनु श्रद्धा, इड़ा एवं मानव के द्वारा मानव मात्र के मनोजगत के विविध पक्षों का चित्रण चिंता, आशा, वासना, ईर्ष्या संघर्ष एवं आनंद आदि सर्गों में किया गया है इतिहास में रूपक का भी अद्भुत सम्मिश्रण हो गया है। पात्रों के ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ सांकेतिक अर्थ भी है। मनु- मन, श्रद्धा- हृदय तथा इडा-मस्तिष्क का प्रतीक है। बुद्धिवाद के विरोध में हृदय पक्ष की प्रधानता दिखलाई गई है। शैव दर्शन के आनंदवाद को जीवन के पूर्ण उत्कर्ष का साधन स्वीकारा गया है। 'कामायनी' गौरवशाली उपलब्धि है।

 

सुमित्रा नंदन पंत का जीवन परिचय और उनकी रचनाएँ 

 

सुमित्रा नंदन पंत का व्यक्तित्व 

  • कविवर सुमित्रा नंदन पंत जन्म (सन् 1900 1977 ई.) ग्राम कौसानी, जनपद अल्मोड़ा, वर्तमान उत्तरराखंड (पुराने उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनके पिता का नाम गंगा दत्त पंत तथा माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। सबसे छोटी संतान थे। जन्म देते ही इनकी माता कुछ घंटे बाद ही इनको छोड़कर चल बर्सी। जिसके परिणामस्वरूप अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा की गोद में पलने लगे तथा प्रकृति के उस मनोरंजक परिवेश का इनके व्यक्तित्व पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। 
  • पंत की प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। इसके पश्चात् अल्मोड़ा गवर्नमेंट हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। काशी के जय नारायण हाई स्कूल से स्कूल लीविंग की परीक्षा पास की। सन् 1916 ई. में क्योर सेन्ट्रल कॉलेज प्रयाग से एफ.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। संस्कृत, अंग्रेजी तथा बंगला का अध्ययन किया। 
  • सन् 1950 में आल इंडिया रेडियो के परामर्शदाता नियुक्त हुए। सन् 1957 तक रेडियो से संबद्ध रहे। 'कला और बूढ़ा चांद काव्य ग्रंथ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा लोकायतन पर सोवियत भूमि पुरस्कार, 'चिदंबरा' पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने पंत को पद्म भूषण' की उपाधि से विभूषित किया।
  • पंत में यथार्थ के विषम एवं दारुण रूप के अभाव का कारण भी कुछ सीमा तक प्रकृति के उस प्रभाव को ही स्वीकारा जा सकता है। प्रकृति के प्रति प्रगाढ़ प्रेम ने इन्हें जीवन की नैसर्गिक व्यापकता तथा अनेक रूपता से पूर्ण रूपेण वंचित कर दिया।

 

"छोड़ द्रुसों की मदु छाया, 

तोड़ प्रकृति से भी माया, 

बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लीचन? 

छोड़ अभी से उस जग को।"

 

  • इस पद्यांश के विवेचन से ऐसा लगता है कि पंत नारी सौंदर्य की अपेक्षा प्राकृतिक सौंदर्य को अधिक महत्व देते हैं। नारी सौंदर्य की यह उपेक्षा जीवन की उपेक्षा के भाव को व्यक्त करती है। बालिका भी नारी का लघु रूप है। इस विश्व के प्रति कवि का मोह अभी समाप्त नहीं हुआ है।

 

सुमित्रा नंदन पंत कृतित्व-

  • 'गिरजे का घंटा', 'ग्रंथि', 'वीणा', 'पल्लव', 'गुंजन', 'युगांत', 'युगवाणी', 'ग्राम्या', 'उत्तरा', 'स्वर्ण किरण, 'स्वर्ण धूलि', 'अंतिमा', 'किरण, पतझर, एक भाव क्रांति', 'लोकायतन', 'कला और बूढ़ा चांद', 'चिदंबरा', 'गीत हंस' तथा 'रजत शिखर आदि काव्य रचनाएं हैं।

 

सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक विशेषताएं- 

  • पंत के काव्य विकास के प्रथम सोपान में 'वीणा', 'ग्रंथि' पल्लव' और गुंजन काव्य आते हैं। ये छायावादी प्रवृत्ति की प्रमुख रचनाएं हैं। 'वीणा' में प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति कवि का अनन्य अनुराग है। 'ग्रंथि से वह प्रेम की भूमिका में प्रवेश करता है तथा उसे नारी-सौंदर्य आकृष्ट करने लगता है। पल्लव' छायावादी पंत का चरम बिंदु है। अब कवि अपने ही सुख-दुख में केंद्रित था किंतु गुंजन' से वह अपने में केंद्रित न रहकर विस्तत मानव जीवन अर्थात् मानवतावाद की ओर उन्मुख होता है।

 

  • द्वितीय सोपान में पंत की तीन रचनाएं 'युगांत', 'युगवाणी' तथा 'ग्राम्या' आती हैं। इस काल में कवि पहले गांधीवाद से प्रभावित है। बाद में मार्क्सवाद अपनी ओर आकर्षित कर लेता है तथा अंत में वह प्रगतिवादी बन जाता है।

 

  • मार्क्सवाद की भौतिक स्थूलता कवि के मूल संस्कारी कोमल स्वभाव के विपरीत होने के कारण वह पुनः अंतर्जगत की ओर मुड़ जाता है। इस काल की प्रमुख रचनाएं स्वर्ण किरण', 'स्वर्ण धूलि', 'उत्तरा', 'अतिमा', 'कला और बूढ़ा चाँद', 'किरण', 'पतझर', एक भाव क्रांति' तथा 'गीत हंस है। इस काल में कवि पहले विवेकानंद और रामतीर्थ से प्रभावित होकर बाद में अरविंद दर्शन से प्रभावित होता है।

 

  • सन् 1955 ई. के बाद की पंत की कुछ रचनाओं कौवे', मेंढक' आदि पर प्रयोगवादी कविता का प्रभाव दष्टिगोचर होता है। परंतु कवि को यह रूप सहज नहीं लगता और वह पुनः उसे छोड़कर अपने प्रकृत अर्थात् वास्तविक रूप पर लौट आता है। पंत छायावादी चार उन्नायकों में से एक हैं। वे अति सुकुमार एवं संवेदनशील कवि हैं। उन्हें प्रकृति का मंजुल-मसण कवि कहा जाता है। वे निरंतर प्रगतिशील रहे हैं। वातावरण तथा अध्ययनशीलता उनकी प्रगतिशीलता के प्रमुख कारण रहे हैं। 
  • वातावरण संबंधी प्रभाव उन पर उनकी जन्मभूमि कौसानी का सबसे अधिक पड़ा है जिसकी प्राकृतिक सुषमा में वे पले, बड़े हुए हैं उसने इन्हें मुग्ध कर लिया है। इसके अतिरिक्त वातावरण संबंधी द्वितीय प्रभाव उन पर सन् 1930 ई. के बाद देश में दिखलाई पड़ने वाली विकट राजनीतिक परिवेश तथा जनसाधारण के कष्टों की विभीषिका का पड़ा, जिसने उन्हें गांधीवाद से मार्क्सवाद की ओर मोड़ दिया। दर्शन की दृष्टि से वे सबसे अधिक स्वामी विवेकानंद एवं स्वामी रामतीर्थ के वेदांत संबंधी विचारों से प्रभावित हुए तथा अंत में उन पर अरविंद दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। पंत काव्य में प्रकृति के मनोरम रूपों का मधुर एवं सरस चित्रण मिलता है। 
  • आंसू की बालिका तथा पर्वत प्रदेश में पावस आदि कविताओं में प्रकृति के मनोहर चित्र विद्यमान हैं जिनमें कवि की जन्मभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य का अपूर्व वैभव दष्टिगोचर होता है। कवि पंत आदर्श प्रेमी रहे हैं। कवि की आदर्शवादी भावना निरंतर प्रबल होती गई है। यह आदर्शवादी भावना ही परिवर्तन कविता में सर्ववाद का रूप ग्रहण कर लेती है। कवि 'तिमिर त्रास' का निवारण करना चाहता है किन्तु प्रकृति प्रेम को - एक तरह से ठोस यथार्थ जीवन के प्रति आसक्ति की सीमा बन जाता है त्यागना भी नहीं चाहता है। 'गुंजन' तक की रचनाओं में पंत ने विचार को सजीव सरस रूप में ही प्रस्तुत किया है। पंत की सौंदर्य भावना और कल्पना का प्रसार प्रकृति और जीवन के सुकुमार रूपों की ओर अधिक रहा है।

 

  • 'पल्लव' की भूमिका में पंत ने भाषा, अलंकार, छंद, शब्द और भाव के सामंजस्य पर विचार व्यक्त किए हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि कवि भाषा प्रयोग के संबंध में कितना जागरूक है। पंत की शैली में लाक्षणिक वैचित्र्य, विशेषण विपर्यय विरोध चमत्कार, मानवीकरण, प्रतीक विधान तथा अन्योक्ति विधान विद्यमान हैं। भावों और विचारों की सरलता एवं स्पष्टता के अनुरूप ही शैली प्रायः प्रसादगुण युक्त है। सजगता भाषा के मंथर गंभीर प्रभाव और अलंकार विधान के रूप में दष्टिगोचर होती है। अनुभूति के प्रवाह एवं वेग के अनुरूप ही भाषा में प्रवाह एवं आवेश है। ग्राम्य' आदि में उनकी भाषा शैली एवं भाव बोध प्रगतिवादी चेतना से प्रभावित हैं। जहां कविता की भाषा में वक्ता, सांकेतिकता आदि के स्थान पर सरलता तथा सपाट बयानी परिलक्षित होती है आध्यात्मिक सत्य पर कवि की आस्था बनी हुई है किन्तु वह भौतिक समद्धि की अनिवार्यता को भी स्वीकारता है। नई शैली में छायावादी कविता की सांकेतिकता, उपचार वक्रता तथा बौद्धिकता आदि का समावेश है।

 

पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय और उनकी रचनाएँ 

 

पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी व्यक्तित्व

  • पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (1897 1962 ई.) का जन्म संवत 1953 वि. वसंत पंचमी के दिन ग्राम गढ़कोला जनपद उन्नाव में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. राम सहाय त्रिपाठी था। वे मेदिनीपुर के महिषदल राज्य में नौकरी करते थे। इनकी मां सूर्य का व्रत रखती थी, इनका जन्म भी रविवार को हुआ था इसीलिए इनका नामकरण सूर्य के आधार पर सूर्यकांत किया गया। साहित्य क्षेत्र में अपनी निराली प्रकृति के कारणस्वरूप उपनाम 'निराला' हो गया।
 

  • निराला की शिक्षा बंगाल में ही हुई। ये आरंभ से स्वच्छंद प्रकृति के थे। अतः स्कूली शिक्षा में इनका मन न रमा। स्कूल छोड़कर घर पर ही अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त किया। साहित्य, संगीत और कला के अतिरिक्त कुश्ती एवं घुड़सवारी का भी इन्हें अत्यधिक शौक था। हिंदी, अंग्रेजी, बंगला तथा संस्कृत का गहन अध्ययन किया। इनके काव्य पर बंगला का स्पष्ट प्रभाव दष्टिगोचर होता है।

 

  • तेरह वर्ष की अवस्था में ही इनका विवाह हो गया था। इनकी दो संताने एक पुत्र एक पुत्री थी पिता की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने स्वयं महिषादल राज्य में नौकरी कर ली किंतु बाइस वर्ष की आयु में पत्नी का देहांत हो जाने पर इन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र रूप से साहित्य साधना करने लगे।

 

  • निराला के विराट वपु में कोमल एवं भावुक हृदय विद्यमान था। वे उदार एवं दानी प्रकृति के थे। असहाय गरीबों के प्रति उनके मन में अपार प्रेम था। ठंड से सिकुड़ते दरिद्रों को देखकर वे उन्हें अपने पहने हुए वस्त्र तक उतारकर दे देते थे। छायावादी चार स्तंभों में प्रमुख होने पर भी वे छायावादी कवियों में सर्वाधिक विद्रोही एवं क्रांतिकारी प्रकृति के थे। वस्तुतः वे स्वच्छंदतावादी थे।

 

  • पुत्र छोटी आयु में चल बसा। पत्नी की मृत्यु हो जाने पर बालिका सरोज ननिहाल में पली विवाह योग्य होने पर अपने घर लाकर उसका विवाह बड़ी कठिनाई से किया। एक वर्ष के अंदर ही विधवा होकर बीमार पड़ गई। औषधि के अभाव में नानी के यहां वह चल बसी निराला की कमर टूट गई। उसकी स्मृति में मानों श्राद्ध स्वरूप सरोज स्मति' की रचना की।

 

  • निराला का जीवन अभावों तथा दुखों से परिपूर्ण था किंतु इन्होंने कभी किसी विपत्ति के समक्ष सिर नहीं झुकाया। अभावों एवं पीड़ाओं की तीव्र एवं मर्मांतक व्यथा को झेलते हुए भी ये साहित्य साधना में तल्लीन रहे। मगर कब तक कोई इस प्रकार जी सकता है? निराला मन और बुद्धि से तो संघर्षों की उपेक्षा करते हुए अविचलित रहे किंतु उनकी चेतना के भीतर जैसे कुछ टूट रहा था, घुल रहा था। उनके जीवन के अंतिम वर्ष जहां उनकी चेतना के अथक-अविचल संघर्ष की कहानी कहते हैं, वहां उनके जीवन की विपत्तियों और व्यथाओं की दुर्निवार शक्ति को भी व्यंजित करते हैं।

 

पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी कृतित्व काव्य-

  • 'अनामिका', 'परिमल', 'गीतिका', तुलसीदास', 'कुकुरमुत्ता', 'अणिमा', 'बेला', 'अपरा', 'नए पत्ते', 'अर्चना', 'आराधना', गीत कुंज', सांध्य काकली', 'राम की शक्ति पूजा', 'सरोज स्मति, (शोक गीत)।

 

  • काव्य ग्रंथों के अतिरिक्त इन्होंने उपन्यास, कहानी, आलोचना एवं निबंध आदि के क्षेत्र में अपनी लेखनी चलाई है। साहित्यिक विशेषताएं- निराला ने क्रांति एवं विरोध का स्वर मुखरित करते हुए समाज की व्यथा एवं वेदना को वाणी दी तथा विषमता से पीड़ित मानवता की छटपटाहट को अंकित किया है। विधवा के प्रति हिंदू समाज जिस प्रकार असहनशील होकर उस दुखों की मारी पर भीषण अत्याचार करता है उससे कवि का भावुक हृदय तड़प उठता है। 
  • उन्होंने विधवा' कविता में उसके हाहाकार तथा वेदना को मुखरित किया है। रानी और कानी कविता द्वारा समाज पर करारा व्यंग्य किया है जहां कन्या के विवाह के समय उसके आंतरिक सौंदर्य को न देखकर बाह्य सौंदर्य एवं धन को प्रमुखता दी जाती है।

 

  • प्रयोगवाद के जन्मदाताओं में निराला का प्रमुख स्थान है। वे दीन दुखियों की दुर्दशा पूंजीपतियों द्वारा गरीबों का शोषण, अछूतों का उत्पीड़न आदि देख सिहर उठे हैं जिसके परिणामस्वरूप उनके काव्य में नव जागरण का संदेश सुनाई पड़ता है। आर्थिक विषमता पर तीव्र प्रहार किया है। जिस व्यवस्था में कुछ लोग सुख भोगते रहे एवं विलासिता में निमग्न रहे तथा अन्य जी तोड़ श्रम करके भी पेट भर अन्न के लिए तरसते रहे वह व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट करने की कामना करते हुए कवि बादल से आग्रह करते हुए कहता है

 

छिन्न भिन्न कर पत्र, पुष्प, वन, उपवन

वज्रघोष से ए प्रचंड! आतंक जमाने वाले। 

  • यहां पत्र, पुष्प, पादप उन धनिकों के प्रतीक है जो समाज को लूट-लूटकर अपनी तिजोरियां भरने में लगे हुए हैं। कवि कहता है कि हे बादल इन शोषकों को छिन्न-भिन्न करके अपने प्रचंड निर्घोष से उन्हें आतंकित कर दे। कवि का अत्यधिक संवेदनशील एवं परदुख कातर हृदय दीन दुखी, असहायों के प्रति गहरी करुणा से भरा है। इन शोषितों के प्रतिनिधि के रूप में कवि ने मजदूर किसान और भिक्षुक के चित्र उपस्थित किए हैं। 'भिक्षुक' कविता में कवि ने भिखारी की विपन्नावस्था का चित्रण किया है। 'बादल राग' कविता में कृषकों की विपन्नता का चित्र उपस्थित किया है।

 

  • स्वदेशाभिमान एवं राष्ट्र प्रेम की भावना अति ज्वलंत थी। वे भारत माता के साकार रूप की वंदना करते हैं। देश की परतंत्रता से वे इतना व्यथित एवं क्षुब्ध थे कि उन्होंने देशभक्तिपरक अनेक गीत लिखे हैं। उनके अपने उद्बोधन गीत में 'भारतीय वंदना, 'तुलसीदास', 'छत्रपति शिवाजी का पत्र आदि कविताओं में उनके देशभक्ति के भाव मुखरित हुए हैं। निराला का प्रेम एवं सौंदर्य चित्रण अनुपम है। उनकी दष्टि प्रकृति एवं मानव दोनों के सौंदर्य से अभिभूत है। उन्होंने निश्छल पुनीत प्रेम के अनेक गीत लिखे हैं जिनमें कहीं प्रेयसी के मादक पुनीत प्रेम का चित्रांकन किया है, कहीं प्रिया के नूपुरों की कर्णप्रिय झंकार एवं उसकी अलकों की मोहक गंध की संभार है तो कहीं प्रेम की प्रेरणादायक भक्ति का निरूपण |

 

  • निराला छायावाद के प्रमुख चार स्तंभों में थे। अतः उनके काव्य में छायावादी प्रवृत्ति का मिलना स्वाभाविक है। प्रकृति पर चेतना का आरोप अर्थात् प्रकृति का नर-नारी के रूप में चित्रण निराला काव्य में हुआ है। जूही की कली' ऐसी ही कविता है। दर्शन तथा रहस्य भावना निराला में रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानंद के दार्शनिक विचारों से आई प्रकृति के अनेक रम्य एवं मनोहारी चित्र अंकित किए हैं। शृंगार, वीर, रौद्र, करुण आदि विभिन्न रसों का सुंदर परिपाक मिलता है। करुण रस का सुंदर स्वरूप सरोज स्मति में विद्यमान है।

 

  • भाषा बंगला से प्रभावित संस्कृतिनिष्ठ एवं समास बहुला है। भाषा भाव, विषय एवं विचारानुसार परिवर्तित होती रहती है। शैली वैविध्यपूर्ण है। छंदों के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रयोग किए हैं। मुक्त छंद के जन्मदाता ही नहीं सफल प्रयोक्ता भी है। अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह आदि अलंकारों का सक्षम प्रयोग किया गया है। मानवीकरण तथा ध्वन्यार्थ योजना आदि की सार्थक योजना की है। निराला बहुमुखी प्रतिभा के कवि हैं। काव्य में उन्होंने भाव, भाषा तथा छंद की दृष्टि से नवीन प्रयोग किए हैं। मुक्त छंद और संगीतात्मकता उनकी विशेष देन है। निराला की देन अविस्मरणीय है तथा आधुनिक काल के साहित्य में उनका स्थान अप्रतिम है।

 

महादेवी वर्मा का जीवन परिचय और उनकी रचनाएँ 

 

महादेवी वर्मा व्यक्तित्व

  • महादेवी (सन् 1907 1987 ई.) का जन्म फर्रुखाबाद में हुआ। पिता का नाम गोविंद प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती हेमरानी था। 
  • पति का नाम रूपनारायण वर्मा था जिन्होंने इस शर्त पर अलगाव कर लिया था कि दोनो पुनः विवाह नहीं करेंगे। महादेवी वर्मा का मुख्य क्षेत्र काव्य है। उनकी गणना छायावादी कवियों की वहत चतुष्टयी में की जाती है। उनके काव्य में वेदना की प्रधानता है। काव्य के अतिरिक्त उनकी गद्य की श्रेष्ठ रचनाएं भी हैं। प्रयाग में साहित्यकार संसद की स्थापना करके साहित्यकारों का मार्ग दर्शन किया। 
  • आरंभिक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। इसके बाद इनकी विधिवत शिक्षा प्रयाग में हुई जहां इन्होंने सन् 1933 ई. में दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया। ये कुशल चित्रकार भी थीं। नारी को अपनी स्वतंत्रता तथा अधिकारों के प्रति सजग किया। उनके रेखाचित्रों में गद्य का चित्रात्मक भावमय एवं कवित्वपूर्ण रूप विद्यमान है। 
  • पीड़ित पशुओंमानवों तथा पालतू जानवरों के प्रति विशेष लगाव था। इन्होंने मार्मिक शब्द चित्र उपस्थित किए हैं। साहित्य सेवाओं के लिए राष्ट्रपति ने इन्हें 'पद्मभूषण उपाधि से विभूषित किया 'नीरजा' पर 'सेक्सरिया पुरस्कार' तथा 'यामा' पर मंगला प्रसाद पुरस्कार' डेढ़ लाख रुपये के पश्चात् 'ज्ञान पीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। 18 मई, सन् 1983 ई. में इन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने सर्वश्रेष्ठ कवयित्री के रूप में भारत भारती' पुरस्कार से सम्मानित किया और भागीरथी की प्रतिमा' भेंट कृतित्वः की।

 

  • काव्य- 'नीरजा', 'नीहार, 'रश्मि', सांध्यगीत, दीप शिखा एवं यामा' .  

  • गद्य- 'अतीत के चलचित्र', 'स्मति की रेखाएं', 'पथ के साथी', मेरा परिवार' तथा 'श्रृंखला की कड़ियां । 
  • अनूदित- 'सप्तपर्णा'

 

महादेवी वर्मा  साहित्यिक विशेषताएं- 

  • महादेवी को आधुनिक मीरा कहा जाता है। महादेवी वेदन की कवयित्री हैं। उनके काव्य में करुणा सहानुभूति, नारी की करुण दशा तथा उसके प्रति संवेदना विद्यमान है। सामाजिक जीवन की विकृतियों पर असंतोष व्यक्त किया है। इनकी कविताओं में आरंभ से ही विस्मय, जिज्ञासा, व्यथा और आध्यात्मिकता के भाव मिलते हैं जो निरंतर प्रौढ़ एवं परिमार्जित होते गए हैं। 
  • महादेवी के सभी गीतों में अनुभूति और विचार के धरातल पर एकान्विति मिलती है। इनकी भावभूमि गीतिकाव्य के उपयुक्त हैं क्योंकि ये स्वानुभूति की प्रत्यक्ष विवति करती हैं। इनके गीतों में सफल संयमित भावातिरेक की व्यंजना हुई है। इनके गीत भाव प्रधान है। इनके गीतों में व्यथा, पीड़ा, आशा, अज्ञात प्रिय के प्रति प्रणय निवेदन तथा साधना की विविध अनुभूतियों की प्रधानता है। अनुभूति विचार से समन्वित करने का प्रयत्न किया है। हृदय और बुद्धि के विरोध का निराकरण किया है तथा काव्य में दोनों की अखंड स्थिति का समर्थन किया है।

 

  • इनका प्रणय निवेदन नहीं अपितु प्रणय वेदना है क्योंकि प्रणय में दुख की प्रधानता है। प्रिय से मिलन की कामना नहीं है क्योंकि मिलन व्यक्तित्व विनाशी है इसीलिए वे कहती हैं. 

 

"मिलन का मत नाम लो, मैं विरह में चिर हूं।"

 

  • महादेवी का दुखवाद नैराश्य या कर्महीनता का प्रतिपादन नहीं करता है। महादेवी ने दुख की महत्ता मात्र वैयक्तिक जीवन के संदर्भ में स्वीकारी है। समष्टिगत जीवन के प्रसंग में वे अथक और अमर साधना में विश्वास करती हैं। वे अमरों के लोक की कामना नहीं करती हैं वे तो मात्र मिटने के अधिकार को स्थायित्व प्रदान करने की आकांक्षिणी हैं। उनका दुखवाद एक सीमा तक समाज कल्याण की भावना से भी संपक्त है। वे जब अपने जीवन की तुलना नीर भरी दुख की बदली" या "मंदिर के नीरव दीपक" से करती है तब वहां आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ लोक कल्याण की भावना भी विद्यमान रहती है। जिस प्रकार बादल स्वयं को गलाकर धरती की प्यास बुझाकर सुख एवं शीतलता प्रदान करता है, परिवेश को आलोक प्रदान करने वाला दीपक स्नेह और बत्ती की समाप्ति पर जलकर राख हो जाता है, उसी प्रकार महादेवी स्वयं साधना की आग में जलकर सामाजिक जीवन को अधिक सुखद एवं मंगलमय बनाने की कामना करती हुई लिखती हैं

 

"दुख प्रति निर्माण उन्मद 

ये अमरता नापते पद बांध देंगे अंक संसति से तिमिर में स्वर्ण बेला।"

 

महादेवी बौद्ध दर्शन के प्रभाव को मात्र अपनी लोकमंगल विधायिनी पीड़ा की स्वीकृति तक सीमित स्वीकारती हैं। अन्यथा जहां तक सत्य के पारमार्थिक स्वरूप का संबंध है वे उपनिषदों की परंपरा को ही स्वीकारती हैं। उनके अनुसार सष्टि उस असीम सत्य की ही सौंदर्यमयी अभिव्यक्ति है. 

 

"मैं कण कण में ढाल रही अलि, 

आंसू के मिस प्यास किसी का।"

 

  • 'दीपशिखा', 'बादल', 'निशा', 'मंदिर', 'दिव' आदि उनके प्रिय बिंब हैं। वे लोकोत्तर सत्ता को स्वीकारती हैं। यह उनकी रहस्यात्मक अनुभूति है जो व्यष्टि तक सीमित न होकर समष्टि तक व्याप्त है। लोक कल्याण की यही भावना उनकी दढ़ आस्थाअचल साधना, तथा आत्मबलिदान के रूप में गीतों में बिखरी हुई दष्टिगोचर होती है। महादेवी ने मध्यकालीन रहस्य साधना की परंपरा को स्वीकारते हुए उसे लोक-कल्याण के साथ संपक्त करके अपने युगबोध के अनुरूप रूप प्रदान करने का प्रयास किया है। रहस्यवाद के इस नए आयाम का उद्घाटन करने का श्रेय महादेवी वर्मा को है। इसके लिए उन्होंने अभिव्यक्ति की सांकेतिकता और सूक्ष्मता के अलावा प्रतीक विधान और आलंकारिता का आश्रय लेकर उसे पूर्ण सफलता प्रदान करने के लिए विभिन्न योजनाएं की हैं।

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