आधुनिक हिंदी साहित्येतिहास: सांस्कृतिक धार्मिक परिवेश
➽ भारतीयों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति अपार श्रद्धा और वर्तमान परिस्थितियों के प्रति क्षोभ उत्पन्न हो रहा था। भारत के इतिहास में वास्तव में यह वह परिवर्तन काल है जहां से मध्यकालीन बोध का प्रभाव घटने लगा और उसके स्थान पर आधुनिक चिंतन एवं वैचारिक प्रधानता आई। इस परिवर्तन में पारलौकिक दष्टिकोण के स्थान पर आधुनिक इहलौकिक दष्टिकोण को महत्व प्रदान किया जिसके परिणामस्वरूप ईश्वर ने अपना परलोक त्याग कर इहलोक में सामान्य मानव का विकास किया। इसी दष्टिकोण से स्वर्गीय राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है
मैं नहीं संदेश स्वर्ग का लाया,
भूतल को स्वर्ग बनाने आया।
साकेत
➽ मध्ययुगीन ईश्वर चिंतन आधुनिक काल में आकर मनुष्य चिंतन का रूप धारण कर लेता है। व्यक्तिगत उन्नति का स्थान सामाजिक उन्नति ने ले लिया। मानव चेतना व्यष्टि तक सीमित न रहकर समष्टि चिंता का रूप धारण कर गई जिससे राष्ट्रीयता को लांघकर विश्व बंधुत्व एवं विश्व संस्कृति की ओर अग्रसर होकर वैश्वीकरण की भावना से ओत-प्रोत हो गई। आधुनिक साहित्य का यही मुख्य दष्टिकोण है जो किसी न किसी रूप में साहित्य में पल्लवित, पुष्पित होकर व्याप्त है।
➽ इंग्लैंड से ईसाई मत के वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप विश्व स्तर पर प्रचार-प्रसार का आंदोलन चल पड़ा। इसका अभिप्राय यह नहीं था कि इससे पूर्व ईसाई मिशनरियां इस कार्य में कभी संलग्न नहीं हुई थीं वे निरंतर अपने कार्य में लगी हुई थीं किंतु ईसाई धर्मानुयायिओं ने उक्त आंदोलन को तीव्रता प्रदान की जिससे प्रचार की प्रक्रिया में तेजी आ गई ।
➽ ईसाई मिशनरियों का यह आंदोलन इंग्लैंड से प्रेरित होकर भारत पहुंचा। वे अति उत्साह के साथ अपने आंदोलन काल में लग गए जिसकी प्रतिक्रिया भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक क्षेत्र पर हुई। भारतीयों में यह धारणा प्रबल हो गई कि अंग्रेज पश्चिमी शिक्षा पद्धति के नाम पर हमारी संस्कृति का विनाश करने पर तुले हुए हैं। क्योंकि उनका मानना था कि साहित्य और संस्कृति को विनष्ट कर देने से राष्ट्र स्वयं नष्ट हो जाता है। यही उनका परम उद्देश्य था ।
➽ दो संस्कृतियों का अंतरावलंबन परिवर्तन हेतु उतना प्रभावकारी नहीं होता है जितना सामाजिक ढांचे को बदलने वाला बुनियादी ढांचा ढांचे में परिवर्तन का कारण आर्थिक एवं सांस्कृतिक होता है। मुगलों की पराजय के साथ-साथ हिंदू जाति के कट्टरपंथी समुदाय का हास होने लगा। नवयुग की चेतना का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य धार्मिक दष्टिकोण एवं संस्कृति में परिवर्तन है। इस युग में मध्यकालीन धार्मिक एवं सांस्कृतिक भावना का अति परिमार्जित एवं सुसंस्कृत रूप मिलता है। अन्य धर्मों की सहिष्णुता इस युग की धार्मिक परिस्थितियों की प्रमुख विशेषता है। भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता धर्मनिरपेक्षता है। भारतीयों की उपासना पद्धति में बदलाव आ गया।
द्वितीय उत्थान
➽ द्वितीय उत्थान में धार्मिक भावना का प्रमुख आधार मानवतावादी विचारधारा बनी। मानवतावादी विचारधारा का शनैः शनैः विकास हुआ। तथा ततीय उत्थान में गांधी, रवीन्द्र एवं अरविंद द्वारा मानवतावाद ही विश्व धर्म के रूप में स्थापित हुआ। यह मानवतावाद विश्व मानवतावाद था इसीलिए गांधी जी में धार्मिक समन्वय का रूप दष्टिगोचर होता है। गांधी जी ने वैष्णव जन की सबसे बड़ी विशेषता "पीर पराई जानना" बतलाया है। उनके अनुसार वही वैष्णव जन है, वही भगवान का भक्त है, "जो पीर पराई जाने ना" ।
➽ भगवान एक है। उसके गुणों और कर्मों के अनुसार अनेक नाम हैं। विभिन्न नाम विभिन्न धर्मों के आधार हैं। शनैः शनैः आर्थिक प्रगति और औद्योगिक विकास के कारण मानवतावादी विचारों में निम्न एवं शोषित वर्ग को महत्व दिया जाने लगा। 'कर्म को पूजा' कहा गया। गांधी जी ने हरिजनों को हरीजन स्वीकारा जिन्हें आधुनिक काल से पूर्व अछूत माना जाता था।
➽ शिक्षा में पिछड़ेपन के कारण उत्तर भारत के सांस्कृतिक विकास में गत्यावरोध आया जिसके निराकरण में पर्याप्त समय व्यतीत हो गया। ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से लोगों को ईसाई बनाकर पुण्य लूटने के चक्र में पड़ी थीं। उच्च शिक्षा के प्रभाव से एक प्रकार का धर्म निरपेक्ष दष्टिकोण बना जो मध्यकालीन धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त होने के कारण तार्किक एवं इहलौकिक हो सका। आश्रमधर्मी घेरे से बाहर निकल कर व्यक्ति के अपने निर्णय को प्रमुखता मिली। मध्यकालीन धार्मिक कथाओं को विश्वसनीय बनाने और उन्हें आधुनिक युग की समस्याओं से जोड़ने के मूल में भी यही प्रवत्ति क्रियाशील दष्टिगोचर होती है। पुराने संकीर्ण विचार भंग हुए।
ततीय उत्थान-
➽ सन् 1550 में पुर्तगालियों ने मुद्रण यंत्र मंगवाकर उनकी स्थापना करके धार्मिक पुस्तकें छापनी प्रारंभ की। राजा राममोहन राय ने सन् 1821 में 'संवाद कौमुदी' नामक साप्ताहिक बंगला पत्र निकाला जिसमें सती प्रथा के विरुद्ध निरंतर लिखना प्रारंभ किया जिससे परंपरावादी हिंदू समाज उनके विरुद्ध हो गया और उस पत्र को भी क्षति पहुंचायी।
➽ अंग्रेजी सरकार ने भारत की अर्थ नीति, शिक्षा पद्धति, यातायात एवं परिवहन के साधनों में मूल रूप से परिवर्तन किए जिसके परिणामस्वरूप समाज का आधुनिकीकरण प्रारंभ हो गया। जो पुराने धार्मिक संस्कारों, रीति-नीतियों एवं संघटनों से मेल नहीं खाता था। नवीन यथार्थ एवं पुराने संस्कारों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकतानुभूति की जाने लगी। इस सामंजस्य के साथ ही नव्य भारतीय समाज के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई व्यक्ति स्वातंत्र्य का भारतीय पुनर्जागरण में विशेष महत्व है।
➽ आधुनिक काल में ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज एवं आर्य समाज ने पुराने धर्म को नए समाज के अनुरूप परिवर्तित करने का अथक प्रयास किया है। ब्रह्म समाज एवं प्रार्थना समाज ने नवीन परिवर्तनों को स्पष्ट रूप से स्वीकारा है किन्तु आर्य समाज वैदिक धर्म के मूल स्वरूप को बनाए रखना चाहता था। उस समय की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधारा पर आर्य समाज का विशेष प्रभाव पड़ा। मध्य काल में नए परिवेश के परिणामस्वरूप जाति प्रथा, छुआछूत, बाह्याडंबर आदि के विरोध में भक्ति आंदोलन खड़ा हो गया था किंतु नवीन युग में नवीन ढंग के सामंजस्य की आवश्यकता हुई। मध्यकाल का सामंजस्य भावनामूलक था, उस काल के अधिकांश भक्त एवं संत अंतर्विरोधों के शिकार थे किंतु अब भावना से काम नहीं चल सकता था। भावना का स्थान तर्क, विवेक एवं बुद्धि ने ले लिया। ‘ब्रह्म समाज', 'प्रार्थना समाज', 'रामकृष्ण मिशन', 'आर्य समाज' एवं 'थियोसॉफिकल सोसायटी' की मान्यताएं अधिकांशतः बुद्धि विवेक एवं तर्क पर आधारित हैं।
ब्रह्म समाज
➽ आधुनिक भारत की नींव का प्रथम पत्थर रखने का श्रेय राजा राममोहन राय को है। सन् 1828 में उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की। वाराणसी जाकर कुछ वर्षों तक उन्होंने गीता, उपनिषद् आदि का गहन अध्ययन किया। इस्लामी एकेश्वरवाद का उन पर स्पष्ट प्रभाव है। ईसाई धर्म से भी वे प्रभावित थे। 'तैत्तेरेय' एवं कौशीतकी उपनिषद् दर्शन में उन्हें समस्त विचारधाराएं मिल गई। उपनिषद् के द्वारा कर्मकांड एवं अंधविश्वास का खंडन किया। मूर्ति पूजा को धर्म का बाह्याडंबर स्वीकारा। रूढ़ियों के विरुद्ध लड़ने में तर्क को आधार बनाया। जाति प्रथा को अमानवीय एवं राष्ट्रीयता विरोधी कहा। सती प्रथा का विरोध किया। विधवा-विवाह तथा स्त्री-पुरुष के समानाधिकार का समर्थन किया। ब्रह्म समाज को आगे बढ़ाने में देवेन्द्र नाथ टैगोर (1817 - 1905) तथा केशव चन्द्र सेन (1838 1884) का अपूर्व योगदान रहा है।
देवेन्द्र नाथ टैगोर
➽ इन्होंने ब्रह्म धर्म के प्रसार हेतु सुदूर यात्राएं कीं। मद्रास में 'वेद समाज मुंबई में प्रार्थना समाज' की स्थापना उन्हीं की प्रेरणा से हुई। वैष्णवों के भजन कीर्तन ने भी उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया। ईसाई धर्म की ओर उनका झुकाव था। ब्रह्म समाज में फूट पड़ने के कारण साधारण ब्रह्म समाज' और 'नव वेदांत' नामक नवीन संस्थाओं की स्थापना की।
केशव चन्द्र सेन-
➽ 1864 में मुंबई और पूना में केशवचंद्र सेन का आगमन हुआ। सन् 1896 में प्रार्थना समाज की स्थापना हुई। उनके प्रमुख उन्नायक महादेव गोविंद रानाडे थे। सामाजिक रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों के विरुद्ध निरंतर संघर्षरत रहे। धार्मिक और सामाजिक समस्याओं पर तर्कपूर्ण ढंग से विचार किया। भागवत धर्म के अनुयायी थे। संकीर्णता को कभी प्रश्रय नहीं दिया। प्रतिक्रिया एवं पूर्वाग्रह से मुक्त थे। अतीत के प्रति आदर होते हुए भी अतीत को पुनः उसी रूप में प्रतिष्ठित नहीं करना चाहते थे। पुनरुत्थानवादियों के वे विरोधी थे। क्योंकि उनका यह मानना था कि मत अतीत को कभी भी जीवित नहीं किया जा सकता हैं। वे समाज को जीवित अवयवों का संघटन मानते हैं जिसमें परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। इस प्रक्रिया के रुक जाने पर समाज मत हो जाएगा।
रानाडे
➽ मनुष्य की समानता पर रानाडे ने बार-बार बल दिया है। जाति पांति के विरोधी तथा अंतर्जातीय विवाह के पक्षधर थे। स्त्री शिक्षा को महत्वपूर्ण माना है। उनका वस्तुनिष्ठ दष्टिकोण, तर्क पद्धति, सामाजिक परिष्कार के प्रति अभिरूचि आदि ये स्पष्ट कर देते हैं कि उन पर पाश्चात्य विचारधारा का पूर्ण प्रभाव था। पाश्चात्य मत को भी अपने तर्क पर कस करके स्वीकारा है। वे भारतीय संस्कृति को नवीन वैज्ञानिक विचार प्रणाली के अनुरूप ढालने हेतु प्रयत्नशील रहे हैं।
रामकृष्ण मिशन-
➽ राम कृष्ण परमहंस के स्वर्गवासी हो जाने पर विवेकानंद ने उन्हीं के नाम से रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। परमहंस अपने संपूर्ण व्यक्तित्व से परमहंस थे। रामकृष्ण गरीब, अनपढ़, गंवार, रोगी, अर्धमूर्ति पूजक, मित्रहीन हिंदू भक्त थे जिन्होंने बंगाल को अपने व्यक्तित्व से पूर्णरूपेण प्रभावित किया। उनकी छाप पश्चिमी • बंगाल पर अब भी वर्तमान है। उनके योग्य शिष्य विवेकानंद ने उन्हें बाहर से भक्त और भीतर से ज्ञानी कहा है जबकि विवेकानन्द बाहर से ज्ञानी और भीतर से भक्त अपने गुरुवर के बिलकुल विपरीत थे।
➽ सन् 1893 में विवेकानंद विश्व धर्म संसद में सम्मिलित होने हेतु शिकागो गए। इतना सुंदर प्रवचन दिया कि समूची सभा मंत्र मुग्ध हो गई। उनके विषय में 'न्यूयार्क हेराल्ड ट्रिब्यून' ने लिखा था “विश्व धर्म संसद में विवेकानंद सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति थे। उनको सुनने के बाद ऐसा लगता थ कि उस महान देश में धार्मिक मिशनों को भेजना कितनी बड़ी मूर्खता थी।" उनका मुख्य उद्देश्य रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों का प्रचार करना था। सामाजिक कार्यों में विशेष रूचि थी। अपने गुरु के कष्टों को साक्षात देख चुके थे इसलिए उनकी प्रबल इच्छा जनता की सेवा थी जिससे समाज का कोई भी व्यक्ति गरीबी या ग्राम में रहते हुए भी रुग्णता के कष्ट से दुखी न रहे। इसी दष्टि से स्थान-स्थान पर चिकित्सालयों तथा सेवा आश्रमों की स्थापना हुई। मानवीय समता के विश्वासी स्वामी विवेकानंद ने जाति-पांति, संप्रदाय, छुआछूत आदि का प्रबल विरोध किया। गरीबों के प्रति उनकी अत्यधिक सहानुभूति थी। शिक्षित वर्ग तथा उच्च वर्ग को हेय दष्टि से देखते थे उनकी भर्त्सना करते हुए उन्होंने लिखा है
➽ "तब तक देश के हजारों लोग भूखे हैं अज्ञानी हैं मैं प्रत्येक शिक्षित वर्ग को धोखेबाज कहूंगा गरीबों के पैसे से पढ़कर भी उनकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते... उच्च वर्ग शारीरिक और नैतिक दष्टि से मर चुका है।" उन्होंने शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करने वाले कृत्य को धर्म की संज्ञा दी है। इससे आत्म गौरव एवं राष्ट्रीय गौरव प्रदान करने में सहयोग मिलता है। हीनता की भावना से ग्रस्त देश को विवेकानंद ने यह आश्वासन दिया कि भारत की संस्कृति अब भी अपनी श्रेष्ठता में अद्वितीय है तथा इस देश का आध्यात्मिक चिंतन असमानांतर है। आध्यात्मिक स्तर पर मनुष्य-मनुष्य की क्षमता, एकता, बंधुत्व और स्वतन्त्रता की ओर भी उन्होंने भारतीयों का ध्यानाकर्षण किया। भारतीय पाश्चात्य भौतिकता से अभिभूत हो गया था उसे यह प्रथम बार अनुभव हुआ कि हमारी परंपरा में कुछ ऐसी वस्तुएं अभी भी अवशिष्ट हैं जिन्हें गौरवपूर्ण ढंग से विश्व के समक्ष रखा जा सकता है। यह अनुभव कराने का एक मात्र श्रेय विवेकानंद को है।
आर्य समाज
➽ हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में आर्य समाज पूरे भारतवर्ष में फैल चुका है। गुजरात, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में आर्य समाज का विशेष प्रभाव है। इन प्रदेशवासियों का स्वभाव बंगालियों से भिन्न है। बंगाली दुबले-पतले होकर भी अपने पौरुष पर गर्व करते हैं तथा अक्खड़ होते हैं। उनमें भावुकता अभाव होता हैं। बंगाल एवं महाराष्ट्र के पुनर्जागरण में मध्ययुगीन संतों की वाणी का विशेष योगदान रहा है। आर्य समाज में संतों का कोई स्थान नहीं है।
➽ सन् 1897 में दयानंद सरस्वती ने मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। दयानंद का व्यक्तित्व असाधारण था। वे संस्कृत भाषा के उद्भट विद्वान, प्रवक्ता एवं अत्यंत मेधावी प्रतिभा संपन्न महान व्यक्ति थे। वे किसी से समझौता नहीं करते थे। दढ़ संकल्पी थे। उनके विचार अति स्पष्ट होते थे उनमें कहीं रंचमात्र भी अस्पष्टता अथवा रहस्यवादिता नहीं थी। वे वेदों को आर्य समाज का आधार मानते थे। उनके अनुसार वेद अपौरुषेय हैं। वैदिक धर्म ही सत्य एवं सार्वभौम है। अन्य धर्म अधूरे हैं। आर्य समाज की आचार संहिता में सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों पर विशेष बल दिया गया है। आर्य समाज में जाति-पांति, छुआछूत, स्त्री-पुरुष असमानता आदि का कोई स्थान नहीं है। इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था कह सकते हैं। आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ भौतिक उन्नति को भी स्वामी जी ने अनिवार्य माना है। इसी दष्टिकोण से पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान को दष्टिगत रखते हुए सन् 1886 में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना हुई तथा स्थान-स्थान पर 'दयानंद स्कूल' एवं 'कॉलेज' खोले गए। आर्य समाज हिंदूवादी दष्टिकोण का पक्षपाती है जिसने राष्ट्रीय विचारधारा को उत्तरोत्तर उन्नति की ओर अग्रसर करने में आश्चर्यजनक योगदान किया है। अंग्रेज सरकार ने आर्य समाजी संस्थाओं को बम बनाने का कारखाना मानकर उन्हें दबाने के अनेक बार अनेक स्थानों पर असफल प्रयत्न किए। उत्तर भारत के आचार-विचार, रहन-सहन, एवं साहित्य संस्कृति पर आर्य समाज का गहरा प्रभाव दष्टिगोचर होता है। आर्य समाज के आंदोलन ने गद्य की भाषा को परिष्कृत एवं परिमार्जित किया है। अस्पश्यता पर जितना प्रबल आघात इस आंदोलन ने किया उतना अन्य किसी ने नहीं किया। मध्य वर्ग में आर्यसमाज ने क्रांतिकारी कार्य किया। इसकी कार्य पद्धति प्रगतिशील एवं प्रतिक्रियावादी है।
थियोसॉफिकल सोसायटी
➽ सन् 1875 में मदाम ब्लावस्तू और ओल्कार्ट ने न्यूयार्क में 'थियोसॉफिकल सोसायटी' की स्थापना की। यह आंदोलन भारतीय धार्मिक परंपरा पर आधारित था। सोसायटी के संस्थापक सन् 1879 में भारत आए। सन् 1882 में उन्होंने अडयार (चेन्नई) में इसकी शाखा खोली। श्रीमती एनी बेसेंट इंग्लैंड में इस शाखा से जुड़ी हुई थीं जो सन् 1893 में भारत आई तथा सोसायटी को विकसित करने हेतु अपना तन-मन-धन सब समर्पित कर दिया। उनका व्यक्तित्व अति गतिमान था। उनकी भाषण कला की अनुपम रोचकता एवं आकर्षण शक्ति ने अनेक शिक्षित भारतीयों को आकृष्ट कर लिया। समस्त भारत का भ्रमण करते हुए उन्होंने हिन्दू धर्म की आध्यात्मिकता के पक्ष में अनेक ओजस्वी भाषण दिए। थियोसॉफी के आदर्शों को व्यावहारिक जामा पहनाने के लिए उन्होंने अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की। वाराणसी का 'सेन्ट्रल हिंदू कॉलेज उसी की एक कड़ी है।
धर्म सभा
➽ उत्तर भारत, बंगाल एवं महाराष्ट्र आदि में अनेक नए धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलन चले जिन्होंने समाज में अनेक सुधार किए किन्तु नवीन धार्मिक आन्दोलनों का विरोध पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रियाएं करने लगीं। बंगाल में राजा राममोहन राय के ब्रह्म समाज का विरोध करने के लिए सन् 1830 में राधाकान्त देव ने धर्म सभा की स्थापना की किन्तु धर्म सभा सन् 1857 तक किसी भी प्रकार ब्रह्म समाज का प्रभाव कम करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। सन् 1857 में स्वतंत्रता का प्रथम आंदोलन प्रारंभ हो गया। इस आंदोलन ने सुधारवादी दष्टिकोण को कमजोर बना दिया जिसके परिणामस्वरूप पुरातनवादी प्रवत्तियां पुनः सिर उठा कर खड़ी हो गईं। बंगाल में राष्ट्रीयतावादी एवं स्वच्छंदतावादी दो प्रवत्तियां उभरकर सामने आई। दोनों के मूल से वैयक्तिकता, अतीत की गौरवगाथा, अंग्रेजी सत्ता के प्रति आक्रोश, ग्रामीण बढ़ती हुई गरीबी के प्रति सहानुभूति, स्वतन्त्रता एवं समानता के प्रति आग्रह आदि की प्रवत्तियां प्रमुख रूप से क्रियाशील थीं।
➽ पुरातत्ववेत्ताओं और पुरालेखविदों ने विस्मति के गर्भ में खोई हुई विरासत - भारतीय साहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, वास्तु कला आदि का पुनरुद्धार करके विश्व में भारत का गौरव बढ़ाया तथा भारतीयों में आत्म सम्मान का भाव जागत किया। नवीन हिंदुवाद जन्मा। दो दल उभर कर सामने जाए प्रथम सुधार विरोधी थी। द्वितीय यथास्थान नवीन विचारों के सन्निवेश का पक्षपाती होते हुए भी मुख्य धारा में किसी प्रकार के परिवर्तन की आकांक्षा नहीं करता था। ऐसे विचारकों में बंकिम चन्द्र चटर्जी का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है, जो गीता के निष्काम कर्म के पक्षधर थे। उन्होंने कृष्ण से संबंधित कृष्ण चरित्र की रचना की। धर्म-सुधारकों की तरह वे आंशिक समाज सुधार में विश्वास नहीं रखते थे। उनकी मान्यता थी कि धर्म और नैतिकता के समग्र पुनर्जागरण में ही समाज सुधार समाहित होता है। अपने उपन्यासों में देश-प्रेम को उच्च स्थान दिया है। देश-प्रेम एवं धर्म दोनों को एक ही मानते थे, दोनों में कोई अंतर नहीं स्वीकारा.
➽ महाराष्ट्र की स्थिति बंगाल से अलग थी क्योंकि बंगाल पर अधिकार करने के पूरे आठ वर्ष बाद महाराष्ट्र अंग्रेजी शासन में आया। पेशवा राज्य की समाप्ति की पीड़ा अभी भुला नहीं पाया था। अपनी परंपराओं के प्रति विशेष अनुराग था। महाराष्ट्र ने देशव्यापी गरीबी, भुखमरी आदि का पूर्ण भांडा अंग्रेजी राज्य के सिर पर फोड़ दिया। चिपलूणकर के निबंधों में देश के पराभव का एक मात्र उत्तरदायी विदेशी शासन को ठहराया गया है। तिलक ने रानाडे के सुधारों का विरोध किया है। उनका कहना है कि सुधार समाज को बांटने वाले तथा राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने में बाधक हैं। जनता को एकत्रित करने के लिए गणेश की पूजा का श्रीगणेश किया जो वर्तमान में भी बड़े धूमधाम से 'गणेश वापा मौर्या' के नाम से मनायी जाती है। उत्तरी भारत में सनातन धर्मावलंबियों ने आर्य समाज के विरोध में अपना नारा लगाया। इन विरोधों के परिणामस्वरूप सामाजिक सुधार कार्य की गति धीमी पड़ गई किन्तु राष्ट्रीयता की भावना प्रबलतम रूप में उभरकर सामने आई। इससे पूर्व धर्म एवं संस्कृति मुख्यतः आकांक्षाओं से संबद्ध थी किन्तु आधुनिक काल में वह इहलौकिक आकांक्षाओं का भी वाहक बनी।
➽ धर्म एवं संस्कृति विषयक डॉ. नगेन्द्र
का कथन अक्षरशः सत्य है "भारतीय धर्म एवं संस्कृति के संबंध में अंग्रेज
प्रशासकों और ईसाई मिशनरियों के आक्रामक रुख के कारण धर्म सुधारकों के लिए धारदार
मार्ग से गुजरना आवश्यक हो गया। एक ओर उन्हें विदेशियों के समक्ष अपने धर्म और
संस्कृति की वकालत करनी पड़ी और दूसरी ओर देशवासियों के सामने धर्म का नया अर्थापन
करना पड़ा। इस प्रकार हर बात को तर्क संगत बनाने की दिशा में जो पहल की गई वह बहुत
फलदायक सिद्ध हुई। इस संक्रांति काल में धर्म का पल्ला पकड़ना बहुत आवश्यक था
क्योंकि धर्म अनिवार्यतः समाज सुधार के साथ जुड़ा हुआ था। पुराणपंथी और सुधारक
दोनों ने अपने मत के प्रचारार्थ धर्मशास्त्रों की शरण ली।"
➽ राजा राममोहन राय ही एक मात्र ऐसे
व्यक्ति थे जिन्हें शुद्धि-बुद्धि वादी स्वीकारा जा सकता है। सती प्रथा की समाप्ति
करने के लिए उन्हें भी धर्मशास्त्रों के साक्ष्य की आवश्यकता हुई। विद्यासागर ने
यह प्रमाणित कर दिया कि धर्म शास्त्रों में वैधव्य का कहीं विधान नहीं है। दयानंद
सरस्वती ने सामाजिक सुधारों को वैध बनाने के लिए वेदों को आधार बनाया तथा अपने मत
की पुष्टि हेतु वेदों को नवीन अर्थ भी प्रदान किया "ऋग्वेदादि भाष्य
भूमिका" जिसका उदाहरण है। तर्क संगति को महत्व मिला, रूढ़ियों का निराकरण आसान हो गया जिसके
परिणामस्वरूप • परंपरावादी
और धर्म-सुधारक दोनों ही अतीत के गौरव को जागत करने में सफल हुए। भारतीयों को आत्म
सम्मान का बोध हुआ। बराबर के स्तर पर पाश्चात्य का सामना करने एवं स्वतन्त्रता की
मांग करने का आत्मविश्वास मिला। राष्ट्रीयता में सभी सुधारों की समाविष्टि
स्वीकारते हुए राष्ट्रीयता पर अधिक बल दिया जाने लगा।
➽ परंपरावादी एवं सुधारवादी दोनों ने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली में विश्वास व्यक्त किया तथा नवीन शिक्षा संस्थाएं खोलीं। यद्यपि शिक्षा संस्थाएं तो पहले भी थीं किन्तु अब इनका रूप पूर्ण रूपेण बदल गया। पश्चिमीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। इसे अधिकांश लोग पश्चिमीकरण न कहकर आधुनिकीकरण की संज्ञा देना श्रेयस्कर समझने लगे। नवीन मानवतावाद का आविर्भाव हुआ। आधुनिक युग में मनुष्य मनुष्य की समता, स्वतन्त्रता आदि का सामाजिक न्याय के आधार पर समर्थन किया गया।
➽ अधिकांश आंदोलनों में अंतर्विरोध दष्टिगोचर होता है। ब्रह्म समाज में मूर्तिपूजा के लिए स्थान नहीं है किन्तु ऐसा कौन सा बंगाली है जो दुर्गा पूजा न करता हो ? आर्य समाज में वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं कर्मणा मानी गई है किन्तु कौन आर्य समाजी है जो अपनी जाति में लड़का-लड़की मिलते हुए अन्य जाति वालों को लड़का-लड़की देने को तत्पर है? समाज में एक ओर संस्कृतीकरण की वद्धि हो रही है तो दूसरी और लौकिकीकरण की।