भारतेन्दु युगीन काव्य की प्रमुख प्रवत्तियाँ
भारतेन्दु युगीन काव्य की प्रमुख प्रवत्तियाँ
➽ आधुनिक काल का प्रारंभ भारतेन्दु के समय में हुआ है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपने युग के प्रमुख साहित्यकार थे। उनकी बहुआयामी साहित्य सेवा के आधार पर इस युग का नाम उनके ही नाम पर किया गया।
➽ भारतेन्दु युगीन कवियों की हिन्दी काव्य रचनाओं का फलक अत्यन्त विस्तृत है। इस युग में ही गद्य साहित्य का अनूठा विकास हुआ है। गद्य की विविध विद्याएँ भारतेन्दु युग में अपने अनूठे और प्रेरक रूप में विकसित हुई हैं।
➽ इस काल की रचनाओं में एक तरफ मध्य युगीन रीति और भक्ति की प्रवत्तियाँ दिखाई देती हैं तो दूसरी ओर समकालीन परिवेश के प्रति अनूठी जागरूकता दिखाई देती है।
➽ इस काल का कवि समकालीन परिस्थितियों का मार्मिक और हृदयस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करने में अनूठी सफलता प्राप्त कर चुका है।
भारतेन्दु युग की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार है
1. राष्ट्रीयता
➽ भारतेन्दु युग की राजनीति में देशभक्ति की प्रबल धारा दिखाई देती है। ऐसी ही भावधारा इस काल के काव्य में मिलती है। इस काल की कविता में यदि विदेशी शासन के प्रति रोष है तो प्राचीन भारतीय आदर्श पर गर्व है।
भारतेन्दु की पंक्तियाँ उद्धरणीय हैं
"अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी
पै धन विदेश चलि जात यह अति ख्वारी।"
➽ इस काल का कवि भारतीय राजनीति, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भावनाओं में अनुकूल उत्कर्ष देखना चाहता है। अतीत के प्रेरक प्रसंगों को प्रस्तुत कर कवि नवयुवकों में नव भाव संचार करना चाहता है। भारतेन्दु, प्रेमधन, मैथिलीशरण गुप्त आदि की कविताओं में देशभक्ति की प्रबल भावना अभिव्यंजित हुई है।
2. सामाजिक चेतना
➽ रीतिकालीन काव्य सुरा सुन्दरी के चित्रण तक सीमित हो गया था। भारतेन्दु युग के साहित्य ने समाज की विभिन्न समस्याओं को व्यापक रूप में प्रस्तुत करने की सराहनीय भूमिका निभाई है। नारी शिक्षा, अस्पश्यता और विधवा विवाह का मार्मिक चित्रण भारतेन्दु युग की कविताओं में मिलता है।
➽ इस काल की कविता में एक तरफ मध्य वर्गीय समाज की विषमताओं को रूपायित किया गया है तो दूसरी तरफ समाज की रूढ़ियों और अंधविश्वासों का मुखर स्वर से विरोध किया गया है।
➽ इस काल की कविता में ब्रह्म समाज और आर्य समाज की नवीन सामाजिक चेतना उभरी है। सुधारवादी दृष्टिकोण इस काल की कविता की प्रमुख विशेषता है।
➽ भारतेन्दु ने अंधेर नगरी', 'भारत दुर्दशा' नाटक में वर्ण व्यवस्था और सामाजिक अंधेर के संकीर्ण विचारों का खुलकर विरोध किया है
"बहुत हमने फैलाए धर्म
बढ़ाया छुआछूत का कर्म।"
➽ इस काल के काव्य में भारतीय समाज और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेरक अनुराग दिखाई देता है। सामाजिक विषमता और निर्धनता को देखकर कवि का हृदय चीत्कार कर उठता है। यहाँ के जनजीवन के शिथिल विचारों अकाल और महंगाई में पिसते हुए मध्यम वर्ग को देखकर उनकी वाणी करुणा भाव से भीग उठती है-
“रोवहु सब मिलि, आवहु भारत भाई
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।"
3 भक्ति भावना
➽ भारतेन्दु युग में भक्ति भावना का सीमित और सामान्य रूप सामने आता है।
➽ इस काल की भक्ति भावना सम्बन्धी रचनाएँ भक्तिकाल की रचनाओं से बहुत भिन्न हैं।
➽ ऐसी रचनाओं में भक्ति और देश प्रेम को एक ही घरातल पर प्रस्तुत किया गया है। जिसमें संवेदना का प्रबल रूप दिखाई देता है।
➽ इस काल की भक्ति में निर्गुण, वैष्णव और स्वदेशानुराग समन्वित तीन धाराएँ मिलती हैं। भक्ति भावना में उपदेशात्मक रूप है। ऐसी भक्ति भावना में माधुर्य भक्ति के साथ रीति पद्धति भी उभर आई है। यत्र तत्र राम और कृष्ण पर आधारित रचनाएं मिलती हैं। 'भारतेन्दु हरिश्चन्द्र' ने निर्गुण भक्ति का पुट प्रस्तुत किया है।
"सांझ-सवेरे पंछी सब क्या करते हैं कुछ तेरा है
हम सब इक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार बसेरा है।"
ऐसी भक्ति भावना पर शृंगार पद्धति का प्रभाव दिखाई देता है -
“सुखद सेज सोवत रघुनन्दन जनक लली संग कोरे
प्रीतम अंक लगी महाराणी, शापित सुनि खग सोरे।"
➽ राम काव्य की अपेक्षा कृष्ण काव्य अधिक विस्तृत रूप पा सका है। यत्र तत्र उर्दू शैली का भी रूप मिला है। अनेक रचनाओं में ईश्वर भक्ति और देश भक्ति का अनुपम समन्वय मिलता है।
➽ प्रताप नारायण मिश्र की पंक्तियाँ उद्धरणीय है "हम आरत-भारत वासिनी पै अब दीन दयाल दया करिये।"
4.श्रंगारिकता
➽ भारतेन्दु काल में रस को काव्य की आत्मा मानकर रचना की जाती रही है। श्रंगार रस विविध रंगों के साथ सर्वत्र अल्पाधिक रूप में प्रयुक्त हुआ है। कृष्ण सन्दर्भ में तो सौन्दर्य और भंगार का वर्णन अत्यन्त प्रभावोत्पादक हो गया है।
➽ इस काल की श्रंगार भावना में संक्षिप्त नखशिख वर्णन है और षड़ ऋतु वर्णन और नायिका भेद के साथ उर्दू और अंग्रेजी की संवेदना और अभिव्यंजना भी प्रकट हुई है।
➽ भारतेन्दु की प्रेम सरोवर प्रेम माधुरी, प्रेम तरंग, प्रेम फुलवारी में भक्ति और भंगार दोनों ही भावों का समावेश हुआ है।
➽ भारतेन्दु के प्रेम वर्णन की सरसता अवलोकनीय है-
"आजु लौं न मिले तो कहा हम तो तुमरे सव भांति कहावें
मेरे उराहनों कहु नाहिं सबै फल आपुने भाग को पावैं
........प्यारे जू है जग की यह रीति विदा की समे सब कण्ठ लगावै । "
5. जनजीवन चित्रण
➽ रीतिकालीन साहित्य राज दरबार के परिवेश में रचा गया और उसमें जनसामान्य के चित्रण का प्रायः अभाव ही रहा। भारतेन्दु युग का काव्य जन सामान्य के मध्य रखा गया है। उसमें जन सामान्य की समस्याओं का विशद और विस्तत चित्रण मिलता है। इस युग का प्रत्येक कवि रूढ़ियों कुरीतियों और अत्याचार आदि को समाप्त करने का प्रेरक स्वर प्रस्तुत करता है। क्योंकि रीतिकाल का कवि राजा को प्रसन्न देखना चाहता था तो भारतेन्दु युग का कवि जनसामान्य को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता था। वह स्वस्थ समाज और प्रसन्न मनुष्यों को देखने की इच्छा रखता है। यही कारण है कि इस युग की कविता में युगीन यथार्थ के साथ प्राचीन संस्कृति का अनुपम गौरव गान मिलता है।
6. प्रकृति चित्रण
➽ भारतेन्दु युग के कवियों ने उत्तर मध्य युग की उसी कमी को पूरा किया जिसमें प्रकृति के स्वतन्त्र और प्रेरक चित्रण का अभाव था। इस युग की कविता में प्रकृति-सौन्दर्य का स्वच्छन्द रूप मिलता है।
➽ प्रकृति के माध्यम से नायक नायिकाओं की मनोदशा का सुन्दर चित्रण किया गया है। प्रकृति के विभिन्न दश्यों के चित्रण में इस काल का कवि सराहनीय रूप में सफल हुआ है।
➽ प्रकृति का हरा भरा रूप, वीरान रूप, उत्प्रेरक रूप विभिन्न कविताओं में अपनी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत हुआ है। प्रकृति का बिम्बात्मक और चित्रात्मक रूप निश्चय ही अवलोकनीय है।
"पहार अपार कैलास से कोटिन ऊँची शिखा लगी अम्बर चूमै
निहारत दीहि भ्रमँ पगिया गिरिजात उत्तंगता ऊपर झूमै । "
7 काव्य रूप
➽ भारतेन्दु युग की प्रायः सभी रचनाएँ मुक्तक काव्य पर आधारित हैं।
➽ हरिनाथ पाठक' की 'श्री ललित रामायण और 'प्रेमधन' की जीर्ण जनपद आदि कुछ एक प्रबन्धात्मक रचनाएँ अपवाद स्वरूप हैं।
➽ इस काल के अधिकांश कवियों ने गीत, लोक संगीत और विनोद से सम्बन्धित रचनाओं को मुक्तक में ही प्रस्तुत किया है।
➽ भारतेन्दु जैसे कुछ कवियों ने गज़ल के रूप में भी रचनाएं प्रस्तुत की हैं। इनकी हिन्दी रचनाओं में उर्दू का भावात्मक रूप स्पष्ट दिखाई देता है।
➽ इस युग का काव्य परम्परागत मुक्तकों के साथ नवीन प्रयोग भी सामने आया है। इस काल में काव्य के साथ गद्य की निबन्ध, समीक्षा, उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी, प्रहसन आदि विधाओं का सुन्दर विकास हुआ है।
8. भाषायी चेतना
➽ भारतेन्दु युग में राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रति प्रबल प्रेम दिखाई देता है। इस काल का कवि सहज, सुगम और उर्दू मिश्रित हिन्दी भाषा का प्रयोग करता था।
➽ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाषा में भी उर्दू ही नहीं अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का प्रयोग मिलता है।
➽ सरलता और सहजता के साथ भाषा में प्रभावोत्पादक रूप लाने के लिए लोकोक्ति और मुहावरों का भी अनुकरणीय प्रयोग इस काल की कविता की प्रमुख विशेषता है।
➽ इस काल की कविता में विभिन्न अलंकारों का सहज प्रयोग विशेष प्रभावोत्पादक बन गया है। सभी रसों का सुन्दर परिपाक भी मिलता है। हिन्दी के प्रति अनुपम अनुराग इस युग की कविता की प्रमुख विशेषता है।
"निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल।"
भारतेन्दु युग की प्रवत्तियों पर विशद चिन्तन करने के पश्चात् यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि यह हिन्दी साहित्य का नवजागरण काल है जिसमें राष्ट्रीयता, सामाजिकता और भाषायी प्रेम की अनुपम त्रिवेणी बहती है।