द्विवेदी युगीन काव्य की प्रमुख विशेषताएँ (प्रवत्तियाँ)। Major trends of Dwivedi era poetry

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द्विवेदी युगीन काव्य की प्रमुख विशेषताएँ (प्रवत्तियाँ)। Major trends of Dwivedi era poetry


 द्विवेदी युगीन काव्य की प्रमुख प्रवत्तियाँ

 

➽ हिंदी साहित्य में द्विवेदी जी का विशेष महत्त्व है क्योंकि उन्होंने तत्कालीन साहित्य में प्रचलित रूढ़ियों का संगठित और खुलकर विरोध किया। उस समय साहित्य में तीन तरह की रूढ़ियां और शिथिल परंपराएँ प्रभावी हो रही हैं।

 

➽  1. कवियों और आलोचकों का एक बहुत बड़ा वर्ग इस बात की वकालत करने में लगा हुआ था कि खड़ी बोली में कविता हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसमें वह लालित्य और माधुर्य नहीं है, जो ब्रजभाषा में है।

 

➽  2. श्रंगाररस, नायिकाभेद, उक्तिवैचित्र्य के साहित्य में सर्वाधिक महत्व दिया जाता रहा था। उस समय कविता में समस्यापूर्ति की ऐसी धूम मची हुई थी कि बहुतेरे कवि किसी न किसी समस्या का सहारा लिए बिना कविता लिख ही नहीं सकते थे।

 

➽  3. द्विवेदी जी ने पूरी शक्ति के साथ इन शिथिल परंपराओं और रूढ़ियों का विरोध किया। आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माताओं में भारतेंदु के पश्चात् दूसरा महत्वपूर्ण नाम द्विवेदी जी का है। इसलिए भारतेंदु युग के पश्चात् हिंदी साहित्य में जिस नवीन युग का आविर्भाव हुआ, उसे द्विवेदी युग कहा गया।

 

➽  इस युग में श्रीधर पाठक ने खड़ी बोली में काव्य-रचना करते हुए प्रकृति को आलंबन रूप में ग्रहण करने का आग्रह किया। छंद संबंधी नये-नये प्रयोग किये और कविताओं में रहस्य संकेत दिये। पाठक जी की कविता अपने युग से आगे थी।

➽   मैथिलीशरण गुप्त ने आदर्श चरित्रों की सष्टि की और उन्हें अलौकिकता के आकाश से उतार कर मानवीयता की भूमि पर खड़ा किया। व्याकरण सम्मत और स्वाभाविक भाषा के प्रयोग में जितनी महारत गुप्त जी को प्राप्त थी, उतनी उस काल के किसी अन्य कवि को नहीं. 

➽  रामनरेश त्रिपाठी ने कल्पित कथानकों के माध्यम से देश प्रेम की भावना जगायी। उनकी पथिक' और 'मिलन' काव्य कृतियाँ क्रमशः स्वतंत्रता प्राप्ति और हिंसात्मक क्रांति की कहानियाँ हैं। 

➽  खड़ी बोली में सर्वप्रथम महाकाव्य की रचना करने वाले हरिऔध जी रीतिकालीन नायिका के स्थान पर पति, परिवार, लोक और विश्व सेविका की प्रतिष्ठा करने में कत्कार्य हुए। इस युग के हिंदी काव्य की उल्लेखनीय प्रमुख प्रवत्तियाँ इस प्रकार हैं


द्विवेदी युगीन काव्य की  विशेषताएँ 

1. देशभक्ति- 

➽  उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतेंदु प्रेमधन, प्रतापनारायण मिश्र आदि कवियों के काव्य में देशभक्ति का जो स्वर सुनाई पड़ा था, द्विवेदीयुगीन हिन्दी काव्य में उसका उत्तरोत्तर विकास होता गया और उसका चरमोत्कर्ष मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत भारती' में दष्टिगोचर हुआ। 

➽  द्विवेदीयुगीन कवियों की राष्ट्रीय भावना भारतेन्दुयुगीन कवियों की राष्ट्रीय भावना से किचित् भिन्न और अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट एवं मुखर है। भारतेंदुयुगीन काव्य में देशभक्ति के साथ-साथ राजभक्ति का स्वर भी सुनाई पड़ता है, किन्तु द्विवेदीयुगीन काल शुद्ध राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना से अनुप्राणित है। उनमें अंग्रेजी शासन के प्रति आक्रोश एवं विद्रोह की भावना तथा भारतीय जनता को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उदबुद्ध और प्रेरित करने वाला क्रांतिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। 

कवि शंकर की बलिदान गान शीर्षक कविता -की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं 

देशभक्त वीरों मरने से नेक नहीं डरना होगा। 

प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा।

 

➽  सामान्य जनता में राष्ट्र के प्रति प्रेम उत्पन्न करने के लिए भारत के गौरवपूर्ण अतीत और उसकी प्राकृतिक छटा की भावपूर्ण छवि अंकित की गई है। 

गुप्त जी ने 'भारत-भारती' में भारत की श्रेष्ठता का उद्घोष इस प्रकार किया है

 

भूलोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीलास्थल कहाँ? 

फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ । 

सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है। 

उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन? भारतवर्ष है।

 

➽  समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों, कुरीतियों, ईर्ष्या-द्वेष, आदि का हृदयस्पर्शी चित्र प्रस्तुत कर कवियों ने भारतीय जनमानस को उसकी कमियों से अलग कराते हुए परस्पर संगठित होकर देश की उन्नति करने के लिए ओजस्वी स्वर में प्रेरित किया। रामनरेश त्रिपाठी की जन्मभूमि भारत' शीर्षक कविता में देशवासियों को द्वेष का परित्याग कर देश की उन्नति में योग देने के लिए प्रेरित किया गया है- 

 

उठो त्याग दे द्वेष एक ही सबके मत हों। 

सीऊ ज्ञान-विज्ञान कला-कौशल उन्नत हों ।। 

सुख सुधार सम्पत्ति शान्ति भारत में भर दें। 

अपना जीवन इसे सहर्ष समर्पित कर दें।

 

2. नैतिकता का प्राधान्य

➽  भारतेन्दु युग के कवियों ने अपनी कविताओं में यद्यपि नए-नए विषयों का समावेश किया फिर भी वे रीतिकालीन भंगारी भावना का परित्याग न कर सके। द्विवेदीयुग में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में रीतिकालीन श्रंगारिकता का स्पष्ट विरोध किया गया और कविता के भीतर आदर्श एवं नैतिकता की प्रतिष्ठा हुई। मात्र मनोरंजन की भावना से दूर हटकर कविता में उचित उपदेशात्मक का समावेश करने पर बल दिया गया। 

 

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए। 

क्यों आज 'रामचरितमानस सब कहीं सम्मान्य है।

सत्काव्यगत उसमें परम आदर्श का प्राधान्य है। 

-मैथिलीशरण गुप्त

 

➽ वासनात्मक प्रेम के स्थान पर प्रेम के उस स्वर्गिक रूप की झाँकी प्रस्तुत की गई जो ईश्वर का प्रतिरूप है और इसलिए यह प्रेम हृदय को आलोकित करने वाला है

 

गन्ध विहिन फूल हैं जैसे चन्द्र चन्द्रिका हीन। 

यों ही फीका है मनुष्य का जीवन प्रेम विहीन ।। 

प्रेम स्वर्ग है, स्वर्ग प्रेम है, प्रेम अशंक अशोक । 

ईश्वर का प्रतिबिम्ब प्रेम है प्रेम हृदय आलोक ।। 

                                                 -रामनरेश त्रिपाठी

 

➽  कविता के माध्यम से मनुष्य के हृदय में स्वार्थत्याग, कर्त्तव्यपालन, आत्मगौरव आदि उच्चादर्शों की स्थापना का प्रयास किया गया। इसके लिए कहीं तो सद्गुण और सत्संग की महिमा का वर्णन हुआ और कहीं दुर्गुण और कुसंग की बुराईयों पर सीधी-सरल भाषा में प्रकाश डाला गया। 

कुसंग के संबंध में रामचरित उपाध्याय की निम्नलिखित पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं

 

अति खल की संगति करने से जग में मान नहीं रहता है। 

लोहे के संग में पड़ने से घन की मार अनल सहता है।। 

सबसे नीतिशास्त्र कहता है, दुष्ट संग दुख का दाता है। 

पय में पानी रहता है, खूब औटा जाता है। 


3- मानवतावादी दष्टिकोण 

➽  आधुनिककाल से पूर्व भारतीय समाज में जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि आधारों पर भेद-भाव की अनेक दीवारें खड़ी की गई थीं। पुरुषों द्वारा स्त्रियों को मात्र वासनापूर्ति का साधन समझकर उनका निरंतर शोषण हो रहा था। आधुनिककाल में बौद्धिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रभाव से मानव मात्र की समानता का भाव विकसित हुआ। स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार देने की बात सोची जाने लगी। धीरे-धीरे परम्परागत धर्म का स्थान मानवता ने ले लिया। द्विवेदीयुगीन कवियों ने धर्म के इस आभ्यंतर स्वरूप को अच्छी तरह पहचाना और मानव के प्रति प्रेम तथा दीन-दुखियों की सेवा को सच्चा धर्म बताया

 

जग की सेवा करना ही बस है सब सारों का सार ।

विश्व प्रेम के बन्धन ही में मुझको मिला मुक्ति का द्वार ।।

                             -गोपालशरण सिंह

 

खोज में हुआ वथा हैरान, यहाँ ही था तू हे भगवान् । 

दीन-हीन के अश्रु नीर में, पतितों के परिताप पीर में। 

सरल स्वभाव कृषक के हल में, श्रमसीकर से सिंचित घन में।

तेरा मिला प्रमाण 

           - मुकुटधर पाण्डेय

 

➽  राम और कृष्ण को अवतारी सिद्ध करते हुए उन्हें मानवता का प्रतिनिधित्व करने वाले आदर्श पुरुष के रूप में कल्पित किया गया है । 

गुप्त जी ने 'साकेत' में राम के मुँह से स्पष्ट कहलवाया है- 

 

मैं आर्यों का आदर्श बताने आया। 

जन सम्मुख धन को तुच्छ जताने आया। 

सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया। इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।

 

➽  नारी को समाज में उचित प्रतिष्ठा दिलाने के लिए पाठकों का ध्यान ऐसे नारी पात्रों की ओर आकृष्ट किया गया जिनको प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय महाकाव्यों में कोई स्थान नहीं दिया गया था। मैथिलीशरण गुप्त और अयोध्यासिंह उपाध्याय ने इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयत्न किये गुप्त जी ने साकेत' के माध्यम से उपेक्षित उर्मिला की मर्मव्यथा का चित्रांकन किया 'हरिऔध जी' ने 'प्रियप्रवास' में राधा को लोक सेविका के रूप में लोगों के सम्मुख रखा और अपने प्रसिद्ध रीतिग्रंथ 'रसकलश' में परंपरागत नायिका-भेद से किंचित दूर हटकर पति, प्रेमिका, परिवार प्रेमिका, लोकसेविका आदि नायिकाओं की नई कोटियाँ निर्धारित की।

 

4. आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण 

➽ भारतेंदु युग के कवियों की दष्टि प्रकृति के स्वतंत्र रूप की ओर गयी थी, किन्तु वे अपने को परम्परागत रीतिकालीन प्रकृति चित्रण से सर्वथा मुक्त नहीं कर सके थे। भारतेन्दु ने 'चन्द्रावली' और 'सत्यहरिश्चन्द' में क्रमशः यमुना और गंगा की प्राकृतिक सुषमा का स्वतन्त्र वर्णन करने का प्रयास किया, किन्तु अलंकारप्रियता और शब्दचमत्कार के लोभ में उसका नैसर्गिक सौन्दर्य दब सा गया। द्विवेदीयुगीन कवियों ने प्रकृति को निकट से देखा और उसे पूर्णतः आलम्बन रूप में स्वीकार किया। श्रीधर पाठक, बालमुकुन्द गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, जगमोहन सिंह, रामचन्द्र शुक्ल की कविताओं में प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य के श्लिष्ट चित्र देखने को मिलते हैं। रामचन्द्र शुक्ल की ग्राम-सौन्दर्य से संबंधित कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- 

 

गया उसी देवल के पास है ग्राम पथ 

श्वेतधारियों में कई घास को विभक्त कर 

थूहरों से सटे हुए पेड़ और झाड़ हरे 

गोरज से धूमिल जो खड़े हैं किनारे पर

 

रामनरेश त्रिपाठी के खण्डकाव्यों में प्रकृति के मोहक चित्र भरे पड़े हैं। 'स्वप्न' नामक खण्डकाव्य में वर्णित वेगवती पहाड़ी नदी का यह चित्र दर्शनीय है- 

 

पर्वत शिखरों पर हिम गलकर, जल बनकर नालों में आकर

छोटे बड़े चीकने अगणित शिला समूहों से टकरा कर।।

गिरता उठता फेन बहाता अति कोलाहल हर हर 

वीरवाहिनी की गति से कहता रहता निसिवासर ।

 

5. इतिवतात्मकता 

➽ भारतेंदुयुग के कवियों ने काव्यशैली के क्षेत्र में नवीन प्रयोग न अपनाकर रीतिकालीन शब्द-चमत्कार प्रधान तथा प्रवाहपूर्ण शैली में काव्य रचनाएँ की थीं। द्विवेदी युग में कविता कथात्मक प्रवाह के साथ चलती थी। 'साकेत', 'यशोधरा' आदि रचनाओं में यह प्रवत्ति स्पष्ट है द्विवेदी युग में ब्रजभाषा कवियों को छोड़ शेष सब ने रीतिकालीन अभिव्यक्ति प्रणाली का विरोध किया। उनकी कविताओं में संस्कृति साहित्य के नये-नये छंदों और तथ्य प्रधान सीधी-सपाट भाषा का प्रयोग देखने को मिलता है। कल्पना की लम्बी उड़ानों के सहारे रचे गये संश्लिष्ट बिम्बों की हृदयस्पर्शी छटा द्विवेदीयुगीन कवियों में देखने को नहीं मिलती है। 


1907 की सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित एक कविता की निम्नलिखित पंक्तियों में इतिवत्तात्मक शैली का स्वरूप स्पष्ट हो जाएगा-

 

विद्या तथा बुद्धिनिधि प्रधान, न ग्रंथ होते यदि विद्यमान । 

तो जानते क्योंकर आज मित्र, स्वपूर्वजों के हम सच्चरित्र। 

ग्रंथ! द्रव्यादि न एक लेते, तो भी सुशिक्षा तुम नित्य देते ।

 

➽ खड़ी बोली के पूर्णतः समद्ध हो जाने के उपरान्त उसमें सूक्ष्म अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देने वाली चित्रमयी लाक्षणिक शैली का विकास हुआ जिसका चरम उत्कर्ष आगे चलकर छायावादी कवियों की कविता में देखने को मिलता है।

 

6. खड़ी बोली की प्रतिष्ठा- 

➽ द्विवेदी युग में गद्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने के साथ-साथ पद्य के क्षेत्र में भी खड़ी बोली की व्यापक प्रतिष्ठा सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। आचार्य महावीर द्विवेदी के महत्प्रयत्नों से उनके समय में खड़ी बोली के प्रतिनिष्ठित स्वरूप की स्थापना हुई और पहले से चली आने वाली व्याकरणिक असमानताएँ समाप्त हो गई। द्विवेदी जी ने स्वयं अपनी कविताओं में संस्कृतनिष्ठ समासप्रधान पदावली का प्रयोग किया और दूसरों को भी इस दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान की।

 

➽ द्विवेदीयुग की कविता में खड़ी बोली के दो स्पष्ट स्वरूप दिखाई पड़ते हैं एक उसका वह स्वरूप है जिसमें बोलचाल के सीधे सरल शब्दों का प्रयोग हुआ है और दूसरा उसका वह रूप है जिसमें संस्कृतनिष्ठ समासप्रधान शब्दावली देखने को मिलती हैं। 


महावीर प्रसाद द्विवेदी और 'हरिऔध जी की कविताओं में भाषा के इन दोनों रूपों के नमूने एक साथ देखने को मिल जाते हैं -

 

यदि कोई पीड़ित होता है, उसे देख सब घर रोता है। 

देश दशा पर प्यारे भाई आई कितनी बार रुलाई । 

सुरम्यरूपे रसराशिरंजिते

विचिवर्णाभरणे कहाँ गयी।

अलौकिकानन्द विधायिनी महा

कवीन्द्र कान्ते कविते अहो कहाँ।

                     - महावीर प्रसाद द्विवेदी


रूपोद्यान प्रफुल्लप्राय कलिका राकेन्दु बिम्बानना । 

तन्वंगी तनहासिनी सुरसिका क्रीड़ाकलापुत्तली ।। 

                            -हरिऔध

 

➽ द्विवेदी युगीन कविता की समग्र काव्य चेतना को रूपनारायण पाण्डेय की निम्नलिखित पंक्तियों से भावित किया गया है- 

 

जैन बौद्ध पारसी यहूदी मुसलमान सिख ईसाई 

कोटि कंठ से मिलकर कह दो हम सब हैं भाई-भाई। 

पुण्यभूमि है, स्वर्णभूमि है, जन्मभूमि है देश यही । 

इससे बढ़कर या ऐसी ही दुनिया भर में जगह नहीं।।

 

➽ द्विवेदीयुगीन हिन्दी कविता खड़ी बोली के आधार पर गंभीर भावों से अनुप्राणित है। उसमें मात्र मनोरंजन ही नहीं है, वरन् उसमें गहरा उपदेश समाहित है जो उस युग की अपेक्षा थी। बहुविधा स्वातंत्र्य भावना की दृष्टि से नये-नये विषयों की उद्भावना की दृष्टि से, नयी चेतना की व्याख्या की दृष्टि से, भाषा-संस्कार की दृष्टि से द्विवेदीयुगीन कविता बड़ी विशिष्ट-विशेष है।

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