द्विवेदी युग के निबंधकार और उनकी रचना
द्विवेदी युगीन लेखकों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मिश्र बंधु, डॉ. श्याम सुंदरदास, डॉ. पद्म सिंह शर्मा, अध्यापक पूर्ण सिंह, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, बनारसी दास चतुर्वेदी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सन् 1903 ई. से द्विवेदी युग का प्रारंभ हो गया।
द्विवेदी युग के निबंधकार और उनकी रचना
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
- द्विवेदी ने सरस्वती के संपादन द्वारा हिंदी भाषा एवं साहित्य को प्रौढ़ता प्रदान की। उन्होंने स्वयं निबंध लिखकर उच्चकोटि के निबंधों का आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने अंग्रेजी के निबंधकार बेकन के निबंधों का अनुव भी बेकन विचार रत्नावली के नाम से प्रस्तुत किया जिससे हिंदी के अन्य लेखकों को प्रेरणा मिली।
- सरस्वती के संपादन का कार्य भार संभालते ही द्विवेदी ने सर्वप्रथम तत्कालीन लेखकों की भाषा को संस्कारित एवं परिमार्जित किया। व्याकरणिक सुधार तथा विराम चिन्हों के प्रयोग पर बल दिया। वे भाषा के गठन एवं स्वरूप को समझाने का यत्न करते थे। हिन्दी को अन्य भाषा के शब्दों के प्रयोग से अलग न रखा जाए यह उनकी भाषाई नीति थी। जानबूझकर संस्कृत के तत्सम शब्दों का आधिक्य या बहिष्कार न किया जाए। उनकी इस भाषा नीति से प्रायः सभी निबंधकार प्रभावित हुए। उनके निबंधों में कवि और कविता प्रतिमा, कविता, साहित्य की महत्ता, क्रोध तथा लोभ आदि नवीन विचारों से ओत-प्रोत हैं। भारतेन्दु युगीन निबंधों जैसी वैयक्तिकता का प्रदर्शन, रोचकता, सजीवता एवं सहज उच्छृंखलता का द्विवेदी के निबंधों में अभाव है।
- इनके निबंधों में भाषा की शुद्धता, सार्थकता, एकरूपता, शब्द प्रयोग पटुता, आदि गुण विद्यमान हैं। किंतु पर्यवेक्षण की सूक्ष्मता, विश्लेषण की गंभीरता, चिंतन की प्रबलता इसमें बहुत कम है। इनक निबंधों की शैली व्यास है जिसके कारण पर्याप्त सरलता है तथा हास्य व्यंग्य एवं भावुकता का पूर्ण अवसर है। कवि और कविता लेख में उनकी शैली का रूप द्रष्टव्य है।
- "छायावादियों की रचना तो कभी-कभी समझ में नहीं आती। वे बहुधा बड़े ही विलक्षण छंदों का या वत्तों का भी प्रयोग करते हैं। कोई चौपदें लिखते हैं, कोई छः पदें, कोई ग्यारह पदें तो कोई तेरह पदें। किसी की चार सतरें गज-गज लंबी तो दो सतरें दो ही अंगुल की। फिर ये लोग बेतुकी पद्यावली भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं। इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरखधंधा हो जाती है। न ये शास्त्र की आज्ञा के कायल न ये पूर्ववर्ती कवियों की प्रणाली के अनुवर्ती न सत्य समालोचकों के परामर्श की परवाह करने वाले इनका मूलमंत्र है हम चुनी दीगरे नेस्त ।"
- विषयानुसार उनकी शैली में गंभीरता भी दिखलाई देती है। मेघदूत' निबंध की कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं - "कविता कामिनी के कमनीय नगर में कालिदास का मेघदूत एक ऐसे भव्य भवन के सदश्य है, जिसमें पद्यरूपी अनमोल रत्न जुड़े हुए हैं ऐसे रत्न जिनका मोल ताजमहल में लगे हुए रत्नों से भी कहीं अधिक है।" वास्तव में द्विवेदी के प्रमुख संग्रह रसज्ञ रंजन में सचमुच रसज्ञ पाठकों के रंजन की अपूर्व क्षमता विद्यमान है।
- द्विवेदी युग के अन्य निबंधकारों में माधव प्रसाद मिश्र गोविंद नारायण मिश्र, श्याम सुंदर दास, पद्म सिंह शर्मा, अध्यापक पूर्ण सिंह एवं चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के नाम प्रमुख हैं।
माधव प्रसाद मिश्र
- विषय वस्तु की दृष्टि से इन्होंने द्विवेदी का अनुसरण करते हुए विचारात्मक निबंधों की रचना की है। किंतु इनमें कहीं-कहीं शैली की विशिष्टता दिखलाई पड़ती है। माधव प्रसाद मिश्र ने धति सत्य जैसे विषयों पर निबंध लिखकर गंभीर शैली में प्रकाश डाला है।
गोविंद नारायण मिश्र
- गोविंद नारायण मिश्र की शैली में अलंकारों की प्रधानता है। संस्कृत की तत्सम शब्दावली के प्रयोगाधिक्य के कारण उनके निबंधों में जटिलता आ गई है। साहित्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है-
- "मुक्ताहारी नीर-क्षीर- विचार सुचतुर कवि कोविद राज हिम सिंहासनासिनी मंदहासिनी, त्रिलोक प्रकाशनी सरस्वती माता के अति दुलारे, प्राणों से प्यारे पुत्रों की अनुपम, अनोखी, अतुलवाली, परम प्रभावशाली सजन मनमोहिनी नवरस भरी सरस सुखद विचित्र वचन रचना का नाम ही साहित्य है।" इस परिभाषा को पढ़ने से साहित्य से अवगत होना तो दूर रहा स्वयं यह परिभाषा ही गले से नीचे नहीं उतरती है।
बाबू श्याम सुंदर दास
- श्याम सुंदर दास उच्च कोटि के आलोचक तथा सफल निबंधकार भी थे। इनके निबंध आलोचनात्मक गंभीर विषयों पर लिखे गए हैं जैसे भारतीय साहित्य की विशेषताएं, समाज और साहित्य, हमारे साहित्योदय की प्राचीन कथा तथा कर्तव्य और सभ्यता आदि। उनके निबंधों में विचारों का संग्रह तथा समन्वय ही मिलता है। आत्मानुभूतियों का प्रकाशन या जटिलता का दर्शन उनमें नहीं होता है। उनकी शैली प्रौढ़ होते हुए भी सरल है। उनके निबंधों में जटिलता कहीं दिखलाई नहीं पड़ती है। द्विवेदी जैसी सुबोधता भी उनमें नहीं है।
पद्म सिंह शर्मा
समालोचना के जन्मदाता पद्मसिंह बाबू श्याम सुंदर दास के समकालीन थे। शर्मा जी के निबंधों के दो संग्रह पदमराग एवं प्रबंध मंजरी प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने निबंधों में महापुरुषों के जीवन का चित्रण, समकालीन व्यक्तियों के संस्मरण या उनको श्रद्धांजलि साहित्य समीक्षा आदि विषयों को अपनाया है। उनकी शैली में वैयक्तिकता, भाषात्मकता एवं सरलता की प्रधानता थी। गणपति शर्मा को दी गई श्रद्धांजलि की कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं-
- “हा। पंडित गणपति शर्मा जी हमको व्याकुल छोड़ गए। हाय हाय क्या हो गया। र बज्रपात, यह विपत्ति का पहाड़ अचानक कैसे टूट पड़ा? यह किसकी वियोगाग्नि से हृदय छिन्न-भिन्न हो गया। यह किसके वियोग बाण ने कलेजे को बींध दिया यह किसके शोकानल की ज्वालाएं प्राण पखेरू के पंख जलाए डालती हैं। हा निर्दय काल-यवन के एक ही निष्ठुर प्रहार ने किस अन्य मूर्ति को तोड़कर हृदय मन्दिर सूना कर दिया।"
अध्यापक पूर्ण सिंह
- अध्यापक पूर्ण सिंह अपनी शैली की विशिष्टता के लिए निबंधकारों में ख्याति प्राप्ति निबंधकार हैं। इनके निबंधों में स्वाधीन चिंतन, निर्भय विचार प्रकाशन तथा प्रगतिशीलता के दर्शन होते हैं शैली में अनूठी लाक्षणिकता एवं चुभता व्यंग्य मिलता है। "बादल गरज- गरजकर ऐसे ही चले जाते हैं, परंतु बरसने वाले बादल जरा सी देर में बारह इंच तक बरस जाते हैं।" या "पुस्तकों या अखबारों के पढ़ने से या विद्वानों के व्याख्यानों को सुनने से तो बस ड्राइंग रूप के वीर पैदा होते हैं।"
- "आजकल भारत वर्ष में परोपकार का बुखार फैल रहा है।"
- "पुस्तकों के लिखे नुस्खों से तो और भी बदहजमी हो जाती है।" जैसे वाक्यों से अध्यापक पूर्ण सिंह की निबंध शैली की रोचकता का नमूना मिल जाता है।
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
गुलेरी ने कहानियों की तरह निबंध भी कम लिखे हैं किन्तु गुणवत्ता की दृष्टि से उनका बहुत अधिक महत्व है। उनके निबंधों में गंभीरता एवं प्रगतिशीलता का सुंदर समन्वय दिखलाई पड़ता है। उनकी शैली में सरलता, रोचकता, व्यंग्यात्मकता तथा सरसता का गुण अत्यधिक परिमाण में उपलब्ध होता है। उनका प्रमुख निबंध कछुआ धर्म है जिसकी कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं-
- "पुराने से पुराने आर्यों की अपने भाई असुरों से अनबन हुई। असुर असुरिया में रहना चाहते थे, आर्य सप्त सिंधु को आर्याव्रत बनाना चाहते थे। आगे ये चल दिए, पीछे वे दबाते गए पर ईशान के अंगूरों और गुलों का मुंजवत् पहाड़ की सोमलता का चस्का पड़ा हुआ था, लेने जाते तो वे पुराने गंधर्व मारने दौड़ते हैं। हां, उनमें से कोई-कोई उस समय का चिलकौआ नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाता था। उस समय का सिक्का गौए थीं मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी। जैसी कि तरकारियों का भाव करने में कुंजड़ियों से हुआ करती है। ये कहते कि गौ भी एक कला में सोम बेच दो। वह कहता, वाह सोम राजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर ये गौ के गुण बखानते। जैसे बुड्ढे चौबे जी ने अपने कंधे पर चढ़ी बाल-वधू के लिए कहा था कि या ही में बेटी' वैसे ये भी कहते हैं कि इस गौ से दूध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, घी होता है, वह होता है।"
- वास्तव में गुलेरी के निबंध उनके व्यक्तित्व की छाप से ओत-प्रोत हैं। उनकी शैली पर सर्वत्र उनका व्यक्तित्व छाया हुआ है। द्विवेदी युगीन निबंधकारों के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस युग के निबंध प्रायः विचार प्रधान है। भारतेंदु युगीन निबंधों की तरह इनमें तत्कालीन जीवन की अभिव्यक्ति एवं राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिवेशों का अंकन नहीं मिलता है। हास्य व्यंग्य के स्थान पर गांभीर्य की प्रधानता है। पूर्ण सिंह एवं गुलेरी के निबंधों के अतिरिक्त शेष निबंधकारों के निबंधों में वैयक्तिकता का अभाव है। निबंधों में मौलिकता नवीनता एवं ताजगी भी इनमें दष्टिगोचर नहीं होती है। इससे यह अधिक स्पष्ट हो जाता है कि इनमें निबंधत्व कम वैचारिक संग्रह अधिक है। व्याकरणिक एवं भाषाई शुद्धता एवं परिमार्जन इनमें मिलता है।