हिन्दी साहित्य के पौराणिक नाटक और नाटककार
पौराणिक नाटक और नाटककार हिन्दी साहित्य -
इस कालावधि में पौराणिक नाटकों की परंपरा भी विकसित हुई। विभिन्न लेखकों ने नाटक का विषय एवं आधार पौराणिकता को बनाया तथा अनेक श्रेष्ठ नाटकों का सजन किया जिनका विवरण इस प्रकार है -
- सेठ गोविंद दास कर्त्तव्य' 1935, 'कर्ण' 1946
- चतुर सेन शास्त्री 'मेघनाथ' 1939, 'राधाकृष्ण'
- किशोरी दास वाजपेयी 'सुदामा' - 1939
- रामवक्ष बेनीपुरी सीता की मां ।
- गोकुल चन्द्र शर्मा अभिनय रामायण।
- पथ्वी नाथ शर्मा- उर्मिला' 1950 सद्गुरु शरण अवस्थी मझली रानी ।
- वीरेंद्र कुमार गुप्त सुभद्रा परिणय' ।
- उदय शंकर भट्ट 'विद्रोहिणी अम्बा' 1935, 'सागर विजय' 19371
- कैलाश नाथ भटनागर 'भीम प्रतिज्ञा' 1934, 'श्री वत्स' 1941 |
- पांडेय बेचन शर्मा उग्र गंगा का बेटा -1940।
- तारा मिश्र- 'देवयानी 1944
- डॉ. लक्ष्मण स्वरूप नल दमयंती' 1941
- प्रभुदत्त ब्रह्मचारी- 'श्रीशुक 1944 ।
- सूर्य नारायण मूर्ति- 'महानाश की ओर 1960 |
- प्रेमनिधि शास्त्री प्रणमूर्ति 1950
- उमाशंकर बहादुर 'मोल' 1951
- गोविंद वल्लभ पं.- ययाति' 1951
- डॉ. कृष्ण दत्त भारद्वाज अज्ञात वास' 1952
- मोहन लाल जिज्ञासु- 'पर्वदान' 1952
- हरिशंकर सिन्हा 'श्रीनिवास'- मां दुर्गे 1953
- लक्ष्मी नारायण मिश्र- 'नारद की वीणा' 1946, 'चक्रव्यूह' 1954
- रांगेस राघव- स्वर्ग भूमि का यात्री 1951
- गुंजन मुखर्जी शक्ति पूजा' 1952 |
- जगदीश प्रादुर्भाव 1955 आदि
पौराणिक नाटक की विशेषताएं
डॉ. देवर्षि सनाढ्य शास्त्री ने अपने शोध प्रबंध में पौराणिक नाटकों की विशेषताओं का विवेचन, विश्लेषण करते हुए कहा है -
(i) "इनका कथानक पौराणिक होते हुए भी उसके ब्याज से आधुनिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। पौराणिक कथाओं के माध्यम से किसी ने कर्त्तव्य के आदर्श को पाठकों के समक्ष रखा है किसी ने शिक्षित पात्र के साथ सहानुभूति के दो आंसू बहाएं हैं किसी ने जाति-पांति की समस्याओं के समाधान ढूंढने का प्रयास किया है। किसी ने नारी के गौरव के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं। अधिकांश नाटककारों ने इन पौराणिक नाटकों के माध्यम से वर्तमान जीवन को सांत्वना एवं आशा की ज्योति प्रदर्शित की है।
(ii) इन नाटकों की दूसरी विशेषता यह है कि प्राचीन संस्कृत के आधार पर पौराणिक असंबद्ध एवं संगति स्थापित करने का भरसक यत्न किया है।
(iii) पौराणिक नाटक वर्तमान जीवन को संकीर्णता एवं सीमा की प्रतिबद्धता से निकालकर आधुनिक मानव समाज को व्यापकता एवं विशालता का संदेश देकर उन्हें उन्नति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए अग्रसर करते हैं। रंग मंच एवं नाट्य शिल्प की दृष्टि से इनके अनेक नाटकों में दोष दर्शन किये जा सकते हैं किंतु गोविंद बल्लभ पंत, सेठ गोविंद दास एवं लक्ष्मी नारायण मिश्र जैसे प्रौढ़ नाटककारों में दोष नहीं है। विषयवस्तु की दृष्टि से ये नाटक पौराणिक होते हुए भी प्रतिवादन शैली एवं कला के विकास की दृष्टि से आधुनिक तथा वे आज की सामाजिक रूचि एवं समस्याओं के प्रतिकूल नहीं हैं।