हिंदी नाटक विकास के खंड
हिंदी में नाटक के स्वरूप का समुचित विकास आधुनिक युग से होता है। सन् 1850 ई. से आज तक के युग को नाट्य रचना की दृष्टि से तीन खंडों में विभक्त कर सकते हैं।
(i) भारतेंदु युग ( सन् 1850-1900 ई.)
(ii) प्रसादयुग ( सन् 1901 1930 ई.)
(iii) प्रसादोत्तर युग (सन् 1931 1950 ई.)
(iv) स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1951 अब तक)
भारतेंदु युग के नाटक और नाटक कार
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने पिता बाबू गोपाल चन्द्र द्वारा रचित नाटक 'महुष नाटक' (सन् 1841 ई.) को हिंदी का प्रथम नाटक माना है। किंतु यह भी ब्रजभाषा परंपरा के पद्य बद्ध नाटकों में आता है।
- भारतेंदु युग सन् 1861 ई. राजा लक्ष्मण सिंह ने अभिज्ञान शकुन्तलम का हिन्दी अनुवाद 'शाकुन्तला' नाटक नाम से किया। भारतेन्दु ने प्रथम नाटक 'विद्या सुंदर' सन् 1868 ई में बंगला नाटक से छायानुवाद किया। उसके पश्चात् उनके अनेक मौलिक एवं अनूदित नाटक प्रकाशित हुए- 'पाखंड विडम्बनम्' – 1872, 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति – 1872, 'धनंजय' विजय, 'मुद्राराक्षस'- 1875, 'सत्यहरिश्चन्द्र 1875, 'प्रेमयोगिनी' 1875, 'विषस्य विषमौषधम्' – 1876, 'कर्पूर मंजरी' - 1876, 'चंद्रावली' 1876, 'भारत दुर्दशा'- 1876, 'नील देवी - 1877, 'अंधेरी नगरी' – 1881 तथा 'सती प्रताप' 1884 ई. आदि उल्लेखनीय हैं।
भारतेंदु के नाटक
- भारतेंदु के नाटक मुख्यतः पौराणिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर आधारित है। सत्य हरिश्चन्द्र, धनंजय विजय', 'मुद्राराक्षस' तथा 'कर्पूर मंजरी' अनूदित नाटक हैं। मौलिक नाटकों में उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, एवं धर्म के नाम पर होने वाले कुकत्यों आदि पर करारा व्यंग्य किया है। पाखंड-विडंबनम्, वैदिक हिंसा हिंसा न भक्ति ऐसा ही नाटक हैं। विषस्य विषमौषधम् में देशी नरेशों की दुर्दशा पर आंसू बहाए हैं तथा उन्हें चेतावनी दी है कि यदि वे न संभलें तो धीरे-धीरे अंग्रेज सभी देशी रियासतों को अपने अधिकार में ले लेंगे। भारत दुर्दशा' में भारतेंदु की राष्ट्र भक्ति का स्वर उद्घोषित हुआ है। इसमें अंग्रेज को भारत के शासक रूप में चित्रित करते हुए भारत वासियों के दुर्भाग्य की कहानी को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें स्थान-स्थान पर अंग्रेजों की स्वेच्छाचारिता, अत्याचारी व्यवहार, भारतीय जनता की मोहकता पर गहरा आघात किया है। 1856 ई. की असफल क्रांति को लोग अभी भूल नहीं पाए थे। भारतेंदु ने ब्रिटिश शासन एवं उसके विभिन्न अंगों की जैसी स्पष्ट आलोचना अपने साहित्य में ही है वह उनके उज्जवल देश प्रेम एवं अपूर्व साहस का द्योतन करती है।
- भारतेंदु हरिश्चन्द्र को संस्कृत, प्राकृत, बंगला एवं अंग्रेजी के नाटक साहित्य का पूर्ण ज्ञान था। उन्होंने इन सभी भाषाओं से अनुवाद किए थे। नाट्य कला के सिद्धान्तों का उन्होंने सूक्ष्म अध्ययन किया था इसका प्रमाण उनके नाटक देते हैं। उन्होंने अपने नाटकों के मंचन की भी व्यवस्था की थी। वे मंचन में भी भाग लेते थे।
- भारतेंदु के नाटकों में जीवन और कला, सौंदर्य और शिव, मनोरंजन और लोक सेवा का अपूर्व सामंजस्य मिलता है। उनकी शैली में सरलता, रोचकता एवं स्वाभाविकता आदि के गुण विद्यमान हैं।
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रेरणा तथा उनके प्रभाव से उस युग के अनेक लेखक नाट्य रचना में तत्पर हुए। श्रीनिवास दास रणधीर और प्रेम मोहिनी', राधाकृष्ण दास 'दुःखिकी बाला, महाराणा प्रताप, खंगबहादुर लाल भारत ललना, बदरी - नारायण चौधरी प्रेमधन 'भारत सौभाग्यम्', तोताराम वर्मा विवाह विडंबन, प्रताप नारायण मिश्र- 'भारत दुर्दशा' रूपक, और राधाचरण गोस्वामी तन-मन-धन' श्री गोसाई जी के अर्पण आदि नाटकों की सजना की।
- इन नाटकों में समाज सुधार, देश-प्रेम, या हास्य विनोद की प्रवृत्ति दष्टिगोचर होती है। इनमें गद्य खड़ी बोली तथा पद्य ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। संस्कृत नाटकों के अनेक शास्त्रीय लक्षणों की इनमें अवहेलना की गई है। भाषा पात्रानुकूल है। शैली में सरलता, मधुरता एवं रोचकता दष्टिगोचर होती है। भारतेंदु युगीन नाट्य साहित्य जन मानस के निकट था उसमें लोक रंजन एवं लोकरक्षण दोनों भावों का सुंदर समन्वय हुआ है। तत्कालीन नाटक पाठ्य एवं दश्य दोनों रूपों में तत्कालीन लोकहृदय का आकर्षक बने हुए थे। इनका दिव्य मंचन भी होता था।