हिन्दी साहित्य के कल्पनाश्रित नाटक और नाटककार विशेषताएं
हिन्दी साहित्य के कल्पनाश्रित नाटक और नाटककार विशेषताएं
कल्पनाश्रित इस युग के कल्पना पर आश्रित नाटकों को उनकी मूल प्रवृत्ति के अनुसार तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
(i) समस्याप्रधान नाटक
(ii) भावप्रधान नाटक
(iii) प्रतीकात्मक नाटक।
(i) समस्याप्रधान नाटक प्रकार एवं विशेषताएँ
- समस्या प्रधान नाटकों को प्रचलन में लाने का श्रेय इब्सन, बर्नाडसा आदि पाश्चात्य नाटककारों को है। पाश्चात्य नाटक के क्षेत्र में रोमांटिक नाटकों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप यथार्थवादी नाटकों का प्रादुर्भाव हुआ, जिनमें सामान्य जीवन की समस्याओं का समाधान विशुद्ध बुद्धि की दष्टि से खोजा जाता है। इनमें यौन समस्याओं को ही ग्रहण किया गया है। बाह्य द्वंद्व की अपेक्षा आंतरिक द्वंद्व को अधिक प्रदर्शित किया गया है। स्वागत भाषण, गीत, काव्यात्मकता आदि का इनमें त्याग कर दिया गया है। विषयवस्तु की दृष्टि से इन्हें भी दो उपभेदों में बांटा जा सकता है
- (क) मनोवैज्ञानिक
- (ख) सामाजिक
(क) मनोवैज्ञानिक नाटक-
- मनोवैज्ञानिक नाटकों में मुख्य रूप से काम संबंधी समस्याओं का विश्लेषण यौन-विज्ञान तथा मनोविश्लेषण के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। लक्ष्मी नारायण मिश्र के नाटक इसी कोटि के हैं।
(ख) सामाजिक नाटक-
- वर्तमान युग एवं समाज की विभिन्न समस्याओं का समाधान आदर्शवादी दष्टिकोण से प्रतिपादित किया गया है। इस वर्ग के नाटककारों में सेठ गोविंद दास, उपेंद्र नाथ अश्क, वंदावन लाल शर्मा, हरिकृष्ण प्रेमी तथा गोविंद वल्लभ पंत आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
लक्ष्मी नारायण मिश्र के नाटक और विशेषताएँ
- लक्ष्मीनारायण मिश्र के अनेक समस्या प्रधान नाटकों में सन्यासी 1931 राक्षस मंन्दिर' 1931, 'मुक्ति का रहस्य 1932, राजयोग' 1934, सिंदूर की होली 1934. 'आधी रात 1937 आदि उन्लेखनीय नाटक हैं।
- इनके अतिरिक्त इन्होंने कुछ ऐतिहासिक नाटक भी लिखे हैं। मिश्र के इन नाटकों में बुद्धि, यथार्थ एवं फ्रायड को प्रधानता दी गई है। इब्सन, बर्नाडसा आदि पाश्चात्य नाटककारों की तरह इन्होंने भी जीवन के प्रति विशुद्ध बौद्धिक दष्टि अपनाई है तथा पूर्ववर्ती रोमांटिक या रूमानी प्रवृत्ति का विरोध किया है। इनके अधिकांश नाटकों में यौन समस्याओं एवं काम समस्याओं को ही सबसे अधिक नाटक का विषय बनाकर उसे महत्व प्रदान किया है।
- सामाजिक नाटकों के क्षेत्र में उपेन्द्र नाथ अश्क, चंदावन लाल वर्मा, हरिकृष्ण प्रेमी, आदि का विशेष स्थान है। गोविंद दास ने ऐतिहासिक, पौराणिक विषयों के अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं का चित्रण अपने अनेक नाटकों में किया है जिनमें 'कुलीनता' 1940 सेवा पथ' 1940, 'दुख क्यों?" 1946 सिद्धांत स्वातंत्र्य 1938, 'त्याग या ग्रहण' 1943 संतोष कहां' 1945, 'पाकिस्तान' 1946 'महत्व किसे 1946, गरीबी और अमीरी 1946 तथा 'बड़ा पापी कौन' 1948 आदि उल्लेखनीय नाटक हैं। सेठ ने आधुनिक युग की विभिन्न सामाजिक राजनीतिक राष्ट्रीय समस्याओं का सफलतापूर्वक चित्रण किया है।
उपेन्द्रनाथ 'अश्क'-के नाटक और विशेषताएँ
- 'अश्क' ऐसे नाटककार हैं जिनमें न तो विशुद्ध यथार्थवाद है न ही आदर्शवाद। उनके नाटक यथार्थ आदर्श के मध्य की कड़ी हैं। प्रेमचंद के सान इन्हें भी आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी कहा जा सकता। इनकी भावभूमि यथार्थ है जो आदर्श अपनाए हुए हैं। उन्होंने व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की विभिन्न समस्याओं का चित्रण जहां यथार्थ के स्तर पर किया है वहीं उनकी सुधार या क्रांतिकारी नीति उन्हें आदर्शवादी बना देती है। उनके नाटकों में प्रमुख नाटक 'स्वर्ग की झलक' 1939, 'कैद' 1945, 'उड़ान' 1949, "छठा बेटा' 1949 तथा अलग अलग रास्ते 1955 आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
- इन्होंने अपने नाटकों में नारी शिक्षा, नारी स्वतन्त्रता, विवाह समस्या, संयुक्त परिवार आदि से संबंधित विभिन्न पक्षों पर सामाजिक दष्टिकोण से करारा व्यंग्य किया है। अनेक नाटकों में उन्होंने समाज की वर्तमान स्वार्थपरता, धनलोलुपता, कामुकता, अनैतिकता आदि का यथार्थवादी शैली में चित्रण किया है। अश्क की सर्वप्रमुख नाट्य विशेषता यह है कि वे समस्याओं और समाधानों का प्रस्तुतीकरण उपदेशात्मक प्रणाली या अति गंभीरता से नहीं करते हैं। अपितु वे इसके लिए हास्य व्यंग्यात्मक शैली का चयन करते हैं। जिससे उनके प्रभाव में अधिक तीव्रता एव तिखाई आ जाती है। रंगमंच एवं नाट्य शैली की दृष्टि से 'अश्क' अतुलनीय है।
वृदावन लाल वर्मा के नाटक और विशेषताएँ
- वृदावन लाल वर्मा का जो स्थान ऐतिहासिक उपन्यासकारों में है वही स्थान सामाजिक नाटकों में है। इस क्षेत्र में इनको अपूर्व सफलता मिली है। इस वर्ग के इनके नाटकों में राखी की लाज' 1943, 'बांस की फांस' 1947, 'खिलौने की खोज' 1950, 'नीलकंठ' 1951, सगुन' 1951. 'विस्तार' 1956 तथा देखा देखी' 1956 आदि प्रमुख हैं। वर्मा ने इन नाटकों में छुआछूत, विवाह, जाति पांति, ऊंच नीच, सामाजिक विषमता तथा नेताओं की स्वार्थ परता आदि से संबंधित विभिन्न प्रवत्तियों तथा समस्याओं का चित्रांकन किया है।
गोविंद वल्लभ पंत के नाटक और विशेषताएँ
- गोविंद वल्लभ पंत के सामाजिक नाटकों में अंगूर की बेटी 1936 तथा सिंदूर की बिंदी' आदि प्रमुख नाटक हैं। 'अंगूर की बेटी' जैसा कि नाम से ज्ञात हो जाता है अंगूर से जन्मी अर्थात् शराब पीने की भयंकरता से अवगत कराते हुए इस व्यवसन से मुक्ति पाने की विधि पर प्रकाश डाला गया है। सिंदूर की बिंदी विवाहिता नारी के सुहाग का प्रतीक हैं। परित्यक्ता का यह सौभाग्य छिन जाता है कि उसे अनेक भयंकर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रस्तुत उपन्यास उन्हीं समस्याओं, सहानुभूतिमय ढंगों से प्रस्तुत किया गया हैं। पंत के नाटकों में सर्वत्र समाज सुधार की भावना दष्टिगोचर होती है। कथा की प्रस्तुति इस ढंग से की जाती है कि उसमें रोचकता या कलात्मकता का अभाव नहीं आने पाता।
पृथ्वी नाथ शर्मा के नाटक और विशेषताएँ
- पथ्वी नाथ शर्मा के नाटकों में 'दुविधा', 'शाप', 'अपराधी' 1939, तथा साध 1944 आदि नाटकों की प्रमुखता है। जिसमें उन्मुक्त प्रेम विवाह तथा सामाजिक न्याय से संबंधित विभिन्न प्रश्नों को प्रस्तुत किया गया है। 'दुविधा' की नायिका स्वच्छंद प्रेम एवं विवाह में से किसी एक का चयन की दुविधा से ग्रस्त दिखाई गई है। यही समस्या साण में भी प्रस्तुत की गई है।
- इस दष्टि से पथ्वी नाथ शर्मा लक्ष्मी नारायण मिश्र के निकटस्थ हो जाते हैं। किन्तु अंतर इतना है कि इनका दष्टिकोण मिश्र की तरह अति भौतिकतावादी और अति यथार्थवादी नहीं है।
इस युग के अन्य सामाजिक नाटकों में
- उदयशंकर भट्ट 'कमला' 1939 मुक्ति पथ' 1944 तथा 'क्रांतिकारी।
- हरिकृष्ण प्रेमी 'छाया'
- प्रेमचंद प्रेम की वेदी 1933
- चन्द्रशेखर पांडेय जीत में हार 1942
- जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद- 'समर्पण' 1950
- चतुरसेन शास्त्री- 'पगन्ध्वनि' 1952
- दयानाथ झा 'कर्म पथ 1953
- जयनाथ नलिन अवसान'
- शंभूनाथ सिंह धरती और आकाश 1954
- अभय कुमार यौधेय- नारी की साधना' 1954
- रघुवीर शरण मित्र- 'भारत माता' 1954।
- श्री संतोष मृत्यु की ओर
- तुलसी भाटिया- 'मर्यादा तथा
- रामनरेश त्रिपाठी- पैसा परमेश्वर आदि उल्लेखनीय हैं।
(ii) भावप्रधान नाटक नाटककार विशेषताएं
- कल्पनाश्रित नाटकों का दूसरा वर्ग भाव प्रधान नाटकों का है। शैली की दृष्टि से इस वर्ग को गीति नाटक नाम से भी अभिहित किया गया है। इस वर्ग के नाटकों के लिए भाव की प्रमुखता के साथ-साथ पद्य का माध्यम भी अपेक्षित होता है। आधुनिक युग में रचित हिंदी का प्रथम गीति नाटक जय शंकर प्रसाद द्वारा रचित 'करुणालय' (सन् 1912 ई.) माना गया है। इसमें पौराणिक आधार पर राजा हरिश्चन्द्र तथा शनः शेष की बलि की कथा का वर्णन किया गया है। प्रसाद के पश्चात लंबे समय तक गीति नाटकों के क्षेत्र में कोई प्रयास तथा प्रगति नहीं हुई। परवर्ती युग में अनेक गीति नाटकों की रचना हुई।
- जिसमें मैथिलीशरण गुप्त 'अनध' 1925, हरिकृष्ण प्रेमी स्वर्ण विहान', उदयशंकर भट्ट मत्सयगंधा, विश्वामित्र तथा राधा आदि, सेठ गोविंद दास स्नेह या स्वर्ग 1946 भगवती चरण वर्मा 'तारा' आदि। भाव प्रधान नाटकों के क्षेत्र में सबसे अधिक सफल उदयशंकर भट्ट रहे हैं। उन्होंने अपने पात्रों की विभिन्न भावनाओं एवं उनके अंतर्द्वन्द्व को अत्यधिक सशक्त एवं संगीतात्मक शैली में प्रयुक्त किया है। इनमें पात्रों के वार्तालाप भी प्रायः लय और संगीत से परिपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किए गए हैं। इसके अतिरिक्त सुमित्रानंदन पंत रजत शिखर धर्म वीर भारती 'अंधा युग' आदि उल्लेखनीय हैं।
(iii) प्रतीकात्मक नाटक नाटककार विशेषताएं
- प्रतीकात्मक या प्रतीकवादी नाटकों का श्रीगणेश जयशंकर प्रसाद के नाटक 'कामना' (सन् 1926 ई.) से हुआ। सुमित्रानंदन पंत ज्योत्सना' 1934 भगवती प्रसाद वाजपेयी, 'छलना' 1939, सेठ गोविंददास 'नव रस', कुमार हृदय 'नक्शे का रंग' 1941, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल मादा कैक्टस' एवं 'सुंदर रस 1959 आदि सुंदर प्रतीकात्मक नाटक हैं। इस वर्ग के नाटकों में विभिन्न पात्र विभिन्न विचारों या तत्वों के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किए गए हैं।
क) सांस्कृतिक नाटक
- सांस्कृतिक चेतना से युक्त नाटकों का निर्माण इस युग में हुआ जिसमें चन्द्रगुप्त विद्यालकार अशोक एवं 'रेवा', 'सेठ गोविंद दास' 'शशिगुप्त', उदयशंकर भट्टा 'मुक्तिपथ', सियाराम शरण गुप्त 'पुण्य पाप', लक्ष्मीनारायण मिश्र – 'गरुण ध्वज' तथा गोविंद वल्लभ पंत अंतः पुर का छिद्र आदि उल्लेखनीय हैं। इतिहास के आधार पर इनके कथानक का निर्माण किया गया है। लेकिन सांस्कृतिक पुनरुत्थान की चेतना सब में विद्यमान है। इनकी सांस्कृतिक पुनरुत्थान चेतना की तुलना करने में प्रसाद से बहुत अधिक साम्य दिखलाई पड़ता है। अंतर इतना है कि प्रसाद में भावुकता, दार्शनिकता भाषागत जटिलता थी किंतु इन नाटकों में जटिलता नहीं है।
ख) समस्यात्मक नाटक
- पाश्चात्य नाटककारों मुख्य रूप से इब्सन एवं बर्नाडसा की यथार्थवादी चेतना से प्रभावित होकर हिंदी साहित्य में नाटक लिखने वालों ने समस्यात्मक नाटक लिखने की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया। फ्रायड ने मानों यह घोषणा कर दी थी कि मानव की व्यापक एवं प्रमुख समस्या काम समस्या है। किंचित इसी घोषणा से प्रभावित होकर समस्या नाटकों में यौन समस्या को मुख्य रूप से उभारा गया तथा वासना या काम भावना का प्रमुखता के साथ वर्णन किया गया। वैयक्तिक समस्याओं, उलझनों, मानसिक अंतर्द्वन्द्वों का विवेचन एवं विश्लेषण मनोवैज्ञानिक ढंग से किया गया है। हिंदी में समस्या नाटक लिखने का श्रेय लक्ष्मी नारायण मिश्र को है। वही समस्या नाटकों के अधिष्ठाता एवं संस्थापक हैं। इस प्रकार परंपरा का श्रीगणेश उन्होंने 'सन्यासी' नामक समस्या नाटक लिखकर किया। उनके अन्य समस्य नाटक राक्षस का मन्दिर', 'मुक्ति का रहस्य', 'राजयोग, सिंदूर की होली, तथा 'आधी रात' आदि प्रमुख हैं। इन नाटकों में बौद्धिकता एवं यथार्थवाद का आधिक्य है। प्रेम विवाह एवं काम समस्याओं का चित्रण निडरता से किया गया है। भावुकतावादी रोमांस के मिश्र विरोधी हैं। मिश्र के प्रयासों से नाटक विश्व में नवीनता का समावेश एवं व्यापक प्रयोग किया है।
ग) सामाजिक एवं राजनीतिक नाटक
- इस युग में सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को अनेक नाटकों में आधार स्वरूप ग्रहण किया गया है। इस दष्टि से सेठ गोविंददास, उपेंद्रनाथ अश्क, वंदावन लाल वर्मा आदि का योगदान महत्वपूर्ण है। गोविंददास के नाटकों में सिद्धांत स्वातंत्र्य सेवा पथ', 'महत्व किसे, संतोष कहां तथा गरीबी और अमीरी आदि में सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं का चित्रण किया गया है। उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटकों में स्वर्ग की झलक' 'कैद', 'उड़ान', 'छठा बेटा' आदि उल्लेखनीय हैं। स्वर्ग की झलक में नारी शिक्षा की समस्या को व्यंग्य के माध्यम से उभारा गया है। 'छठा बेटा' स्वप्न नाटक है जिसके द्वारा यह प्रदर्शित करने का यत्न किया गया है कि मानव अपनी जिन इच्छाओं की पूर्ति जागतावस्था में पूर्ण नहीं कर पाता स्वप्न अर्थात् अर्द्ध निंद्रा में उन कामनाओं की पूर्ति की प्रबल कामना करता है। अश्क के नाटकों में नारी शिक्षा, नारी स्वातंत्र्य, वैवाहिक समस्या तथा संयुक्त परिवार से संबद्ध अनेक सामाजिक समस्याओं का प्रस्तुतीकरण करके मानव को उनसे मुक्ति प्राप्त करने हेतु चिंतन के लिए बाध्य कर दिया गया है। मंचन की दृष्टि से अश्क के नाटक सफल हैं।
- सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को आधार रूप में ग्रहण करके कुछ नाटकों की भी रचना हुई है। जिनमें वंदावन लाल शर्मा कृत 'धीरे-धीरे', 'राखी लाज' एवं 'बांस की फांस' । गोविंद वल्लभ पंत कृत 'अंगूर की बेटी, 'सिंदूर की बिंदी, पथ्वी नाथ शर्मा कृत 'अपराधी एवं साधु तथा उदय शंकर भट्ट कृत 'कमला' एवं 'क्रांतिकारी' आदि उल्लेखनीय हैं। इन नाटकों में भिन्न भिन्न परिवेशों एवं समस्याओं का सफल चित्रांकन हुआ है। इनके अतिरिक्त इस युग में नीति नाटक, एवं एकांकी नाटक भी लिखे गए हैं। सिने नाटक भी लिखे जाने लगे। डॉ. राम कुमार वर्मा 'स्वप्न चित्र' तथा भगवती चरण वर्मा 'वासवदत्त' का चित्रलेख - प्रमुख है।
स्वतंत्र्योत्तर नाटक लेखन
- स्वतंत्रता के पश्चात् नाटक लेखन की गति में त्वरा आई। हिंदी नाटक साहित्य को समद्ध करने वाले नाटककारों में नरेश मेहता 'सुबह के घंटे', लक्ष्मीकांत वर्मा 'खाली कुर्सी की आत्मा शिव प्रसाद सिंह, - . 'घंटियां गूंजती हैं', मन्नू भंडारी बिना दीवारों का घर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना- 'बकरी', 'मुद्राराक्षस', 'तिलचट्टा', - शंकर घोष 'एक और द्रोणाचार्य, भीष्म साहनी- 'हानूश' एवं 'कविरा खड़ा बाजार में', विमला रैना 'तीन युग', सर्वदानंद – 'भूमिजा', श्रीमती कुसुम कुमार- 'दिल्ली ऊंचा सुनती है', सुरेन्द्र वर्मा - सूर्य की अंतिम किरण' से सूर्य की पहली किरण' तक, मणि मधुकर रस गंधर्व, सुशील कुमार सिंह, सिंहासन खाली है, ज्ञान देव अग्निहोत्री- 'शुतुरमुर्ग', गिरिराज किशोर प्रजा ही रहने दो, हमीदुल्ला समय संदर्भ' तथा प्रभात कुमार भट्टाचार्य 'काठ महल' आदि विशेष उल्लेखनीय नाटक हैं।
- 'नुक्कड़ नाटक' आधुनिक काल की देन हैं। टेलीविजन सीरियलों (धारावाहिकों) तथा टेलीविजन नाटक युग की मांग है। जिससे नाटक का बहु आयामी विकास हो रहा है। आज हिंदी नाटकों का विकास नई दिशाओं एवं विभिन्न रूपों में होना हिंदी नाटक साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।