प्रसादोत्तर नाटक (प्रसादोत्तर नाटक साहित्य)
प्रसादोत्तर नाटक
प्रसादोत्तर नाटक साहित्य को ऐतिहासिक, पौराणिक, सांस्कृतिक, सामाजिक राजनीतिक कल्पनाश्रित एवं अन्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पुनः कल्पना आश्रित नाटकों को समस्या प्रधान, भावप्रधान तथा प्रतीकात्मक नाटक तीन उप विभागों में विभक्त किया जा सकता है।
प्रसादोत्तर नाटक का वर्गीकरण
ऐतिहासिक नाटक और नाटककार
प्रसादोत्तर युग में ऐतिहासिक नाटकों की परंपरा का अत्यधिक विकास हुआ है। ऐतिहासिक नाटककारों में हरिकृष्ण प्रेमी, वंदालाल वर्मा, गोविंद वल्लभ पंत, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, उदय शंकर भट्ट तथा कतिपय अन्य नाटककारों ने अपूर्व योगदान किया है।
हरिकृष्ण प्रेमी
- हरिकृष्ण प्रेमी के ऐतिहासिक नाटकों में रक्षाबंधन' 1934. 'शिव साधना' 1936 प्रतिशोध स्वप्न भंग' 1940, 'आहुति' 1940, 'उद्धार' 1940, 'शपथ', 'कानन प्राचीर प्रकाश स्तंभ' 1954 'कीर्ति स्तंभ' 1955, 'विदा' 1958, 'संवत प्रवर्तन 1959 सापों की सष्टि 1959 'आन मान' 1961 आदि नाटकों का उल्लेख किया जा सकता है। प्रेमी ने अपने नाटकों में अति प्राचीन या सुदूर पूर्व इतिहास को नाटक विषय का चयन न करके मुसलमानों के इतिहास को चयनित करके उसके संदर्भ में आधुनिक युग की अनेक राजनीतिक, साम्प्रदायिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। उनके नाटकों ने आधुनिक भारतीय भारतीयों में राष्ट्र भक्ति, आत्मा त्याग, बलिदान, हिंदू मुस्लिम एकता आदि भावों तथा प्रवत्तियां उदीप्त की तथा प्रबलता भरी है। ऐतिहासिकता का उपयोग रोमांस के लिए नहीं किया गया है। आदर्शों की स्थापना के लिए ऐतिहासिकता का ग्रहण किया गया है। प्रेमी की रचनाएं, नाट्य कला एवं शिल्प विधान की दृष्टि से दोष रहित तथा सफल प्रमाणित हुई है।
वृन्दावन लाल वर्मा
- वृन्दावन लाल वर्मा इतिहास वेत्ता है। उनकी इतिहास विज्ञता की अभिव्यक्ति का माध्यम उपन्यास एवं नाटक दोनों हैं। उनके ऐतिहासिक नाटकों में 'झांसी की रानी' – 1948 पूर्व की ओर 1950 ब 1950 ललित विक्रम' 1953 आदि का विशेष महत्व है। इनके अतिरिक्त वर्मा ने सामाजिक नाटकों की भी सजना की। वर्मा के नाटकों में कथावस्तु एवं घटनाओं को विशेष महत्व का विषय बनाया गया है। कही कहीं उनकी घटना प्रधानता भी दष्टिगोचर होती है। दश्य विधान की सरलता, चरित्र चित्रण की स्पष्टता, भाषा की उपयुक्तता, गतिशीलता एवं संवादों की संक्षिप्तता ने उनके नाटकों को मंचन की दृष्टि से पूर्ण सफलता प्रदान की है।
गोविंद वल्लभ पंत-
- गोविंद वल्लभ पंत ने अनेक सामाजिक एवं ऐतिहासिक नाटकों की सजना की है। उनके नाट साहित्य में 'राजमुकुट' 1935. 'अंतः पुर का छिद्र' 1940 आदि प्रमुख हैं। 'राजमुकुट' में मेवाड़ की पन्ना धाय के पुत्र का बलिदान तथ 'अंतःपुर का छिद्र' में वत्सराज उदयन के अंतःपुर की कलह का चित्रण अति प्रभावोत्पादक ढंग से किया गया है। पंत के नाटकों पर संस्कृत, अंग्रेजी एवं पारसी नाटकों की विभिन्न परंपराओं का प्रभाव दष्टिगोचर होता है। नाटकों को अभिनेय बनाने का पूरा प्रयास किया गया है।
ऐतिहासिक नाटककारों में प्रमुख नाटककार
- कुछ ऐसे नाटककार हैं जिनका ऐतिहासिक क्षेत्र नहीं है उनका संबंध अन्य क्षेत्रों से है किन्तु कभी-कभी वे इतिहास को अपने नाटकों का विषय बनाकर साहित्य सजन करते हैं। ऐसे ऐतिहासिक नाटककारों में प्रमुख नाटककार एवं उनके नाटक निम्नलिखित हैं
- चंद्रगुप्त विद्यालंकार- 'अशोक' 1935, 'रेवा' 1938 |
- सेठ गोविंद दास 'हर्ष 1942 'शशि गुप्त' 1942.
- सियाराम शरण गुप्त- 'पुण्य पर्व' 1933
- उदय शंकर भट्ट मुक्ति पथ' 1944 'दाहर' 1933 'शक विजय' 1949 |
- लक्ष्मी नारायण मिश्र 'गरुणध्वज' 1948, 'वात्सराज' 1950 वितस्ता की लहरों 1953
- सत्येंद्र- 'मुक्ति यज्ञ' 1936
- जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद 'गौतम नंद' ।
- उपेन्द्र नाथ अश्क 'जय पराजय' 1936।
- सुदर्शन 'सिकंदर' 1947
- बैकुंठ नाथ दुग्गल
- बनारसी दास करुणा- 'सिद्धार्थ बुद्ध' 1955
- जगदीश चन्द्र माथुर- 'कोणार्क' 1951
- देवराज यशस्वी भोज, मानव प्रताप 1952
- चतुरसेन शास्त्री 'छत्रसाल' ।
- इनके अतिरिक्त कुछ लेखकों ने जीवनी परक नाटकों की भी रचना की है। जिनमें सेठ गोविंद दास - भारतेंदु' 1955, 'रहीम' 1955
- लक्ष्मीनारायण- 'इंदु – 19551
इन्हें भी ऐतिहासिक नाटकों में सम्मिलित किया जा सकता है।
- ऐतिहासिक नाटकों की कथित सूची यह स्पष्ट कर देती है कि ऐतिहासिक नाटकों की अत्यधिक प्रगति एवं अभिवद्धि हुई है। इनमें इतिहास और कल्पना का सुंदर समन्वय तथा संतुलित संयोग मिलता है। अधिकांश नाटकों में इतिहास की केवल घटनाओं का ही नहीं अपितु उनके सांस्कृतिक परिवेश का भी प्रस्तुतीकरण किया गया है। पात्रों का अंतर्द्वन्द्व युगीन चेतना तथा समसामयिक सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास भी नाटककारों ने किया है। पूर्व नाटककारों की तुलना से स्पष्ट हो जाता है कि इनमें कला, शिल्प एवं शैली की दृष्टि से विशेष विकास किया है। यत्र-तत्र ऐतिहासिक ज्ञान, भाव विचार तथा प्रयोगों की नूतनता पर अधिक बल दिए जाने के परिणामस्वरूप रोचकता एवं प्रभावोत्पादकता कम हो गई है।