कहानी के स्वरूप, नई कहानी अनेक रूप
हिन्दी कहानी
- नई कहानी के बाद उसकी दुर्बलताएं और उसकी उपलब्धियां कहानी की तरह स्पष्ट रहीं। यौन प्रसंगों के प्रति आवश्यक मोह, क्षणवादी-भोगवादी दष्टि, शिल्पगत चमत्कारी प्रवृत्ति आदि ने कई कहानी का अवमूल्यन किया। विरोधी प्रवृत्ति से भी आहत हुई। यही कारण है कि सन् 1960 ई. में ही नई कहानी एवं उसके लेखक पुराने लगने लगे। फिर नएपन की मांग आई जिसके फलस्वरूप अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समानांतर कहानी, सक्रिय कहानी तथा जनवादी कहानी के आंदोलन प्रारंभ हो गए।
- डॉ. देवीशंकर अवस्थी ने सन् 1960 ई. के बाद की कहानी में नई कहानी से भिन्न पाया। उनके अनुसार चौथे- पांचवे दशक के कहानीकार यथार्थ का सजन करते हैं। पांचवे-छठे दशक के कहानीकार यथार्थ की अभिव्यक्ति करते थे किन्तु समकालीन कहानीकार यथार्थ को खोजता है।
- नई कहानी के लेखकों के समक्ष कुछ मूल्य थे लेकिन साठोत्तरी कहानीकार असमंजस्य की स्थिति में आ गया। सन् 1960 ई. के बाद सामाजिक परिवेश में व्यापक परिवर्तन आने के परिणामस्वरूप गद्य-पद्य की सभी विधाओं में परिवर्तन परिलक्षित होता है। अस्पष्ट देखते हुए भी त्वरा में लिखता चला गया दष्टि भेद आ गया। सातवें दशक की कहानी बदली हुई मानसिकता की कहानी है। युवा कहानीकारों ने सभी सीमाएं फलांग कर अपने जिए हुए 'सत्य' को कहानी का रूप दिया ?
अकहानी क्या होती हैं
- अकविता के वजन पर गद्य में अकहानी का आविर्भाव हुआ। इसकी प्रेरणा परराष्ट्रीय एंटी स्टोरी' की प्रेरणा है। इसे भारतीय संस्करण कहा जा सकता है। अकहानी के प्रबल समर्थक गंगा प्रसाद विमल ने अकहानी को अभारतीय कहने वालों को अज्ञान का आग्रह भोही कहा है। उन्होंने इसे अपरिभाषेय स्वीकारा।
- डॉ. रामदरश ने अकहानी को स्पष्ट करते हुए लिखा है, 'अकहानी का 'अ' वस्तु एवं मूल्य के स्तर पर भी निषेध का स्वर मुखर करता है। वस्तु' के स्तर पर उसने सामाजिक संघर्षो से संबंधित विषयों को ग्रहण न करके यौन प्रसंगों को ही कहानी का विषय बनाया है। सभी मूल्यों का निषेध करते हुए साहित्यिक मूल्य को भी अस्वीकार कर दिया है। यथार्थ बोध या विसंगति को अपना केन्द्र बिन्दु बना लिया है।
- श्रीकांत वर्मा - झाड़ी, प्रयाग शुक्ल 'अकेले आकृतियां' एवं 'विश्वेश्वर दूसरी गुलामी' आदि कहानियों में व्यर्थता बोध को विभिन्न संदर्भों में उभारा गया है।
- अकहानी में विद्रोही स्वर के साथ साथ यौन संदर्भों तक सीमित रहने में वह विकृत और सतही बन गया दूधनाथ सिंह – 'रीछ', गंगाप्रसाद विमल 'विध्वंस, ज्ञान रंजन 'छलांग', कृष्ण बलदेव वैद- 'त्रिकोण' आदि कहानियां इसी को संदर्भित करती हैं। अकहानीकारों को सर्वाधिक सफलता संबंधाभाव और मूल्यहीनता की स्थितियों को उभारने में मिली हैं। नैतिक वर्जनाओं और निषेधों के प्रति दष्टि बहुत आक्रामक रही है।
- डॉ. नामवर सिंह ने रवींद्र कालिया आदि के शिल्प को सराहा है। उनके अनुसार "कहानी के रूपाकार और रचना विधान की दष्टि से ये कहानियां पर्याप्त समय से उपयोग में आने वाले कथागत साज संभार को एक बारगी उतारकर काफी हल्की हो गई। हल्की, लघु और ठोस यहां तक कि कभी-कभी कथा चरित्रों के नाम, ग्राम परिचय का उल्लेख करना अनावश्यक प्रतीत होता है।" वह' 'मैं' 'तुम' वाली कहानियों में गंगा प्रसाद विमल 'इंताकिता', रवींद्र कालिया 'काला रजिस्टर तथा दूधनाथ सिंह 'रीछ' का उल्लेख किया जा सकता है।
- अकहानी का महत्व जहां पुरामूल्यों के अस्वीकारने और बिगड़े हुए आपसी संबंधों के यथार्थ चित्रण में हैं, वहीं सेक्स केन्द्रित होने के कारण अकहानी न तो व्यापक बन सकी और न अधिक प्रामाणिक जीवन की बुनियादी सच्चाईयों की अवहेलना करने से अकहानी दीर्घजीवी भी न हो सकी। अकहानी के प्रमुख हस्ताक्षरों में दूधनाथ सिंह, ज्ञान रंजन, रवीन्द्र कालिया, भीमसेन त्यागी, विश्वेश्वर, गंगाप्रसाद विमल, कृष्ण बलदेव वैद तथा श्रीकांत वर्मा आदि प्रमुख हैं।
सहज कहानी क्या होती हैं
- सहज कहानी की बात उठाने वाले अमत राय हैं वे इसके प्रथम एवं अंतिम प्रवक्ता हैं। नई कहानी की असमर्थता ने राम को सहज कहानी की अवधारणा करने के लिए विवश किया।
- अमत राय के अनुसार सहज कहानी से हमारा अभिप्राय इनमें से किसी एक से या दो से या दस से नहीं बल्कि इन सबसे और इनसे अलग और भी बहुत से हैं। क्योंकि सहज कहानी से हमारा अभिप्राय उस मूल कथारस से है, तो कहानी की अपनी खास चीज है और जो बहुत सी नई कही जाने वाली कहानियों में एक सिरे नहीं मिलता।" इस उद्धरण में इनमें से पद द्वारा हितोपदेश जातक कथाओं, परी कथाओं आदि की ओर संकेत किया गया है। अमत राय सहज कथारस पर बहुत जोर देते हैं और उनके विचार से कहानी संबंधी सभी प्रयोग सहज कथा रस को ध्यान में रखकर ही सार्थक हो सकते हैं।
- सहजता की व्याख्या करते हुए अमत राय ने लिखा है, "सहज वह है जिसमें आडंबर नहीं है, ओढ़ा हुआ मैनरिज्म या मुद्रादोष नहीं हैं, आईने के समान आत्मरति की भावना से अंग-प्रत्यंग को अलग-अलग कोणों से निहारते रहने का प्रबल मोह नहीं है। अमत राय ने सहज कहानी के संबंध मे यह स्पष्ट कर दिया था कि यह न तो कोई नारा है न कोई आंदोलन। वास्तव में सहज कहानी अकेले कंठ की पुकार बनकर रह गई. इसकी वैचारिकता को कहानीकारों का समर्थन नहीं मिला है।"
सचेतन कहानी क्या होती हैं
- जब नई कहानी से संबद्ध कहानीकारों की जीवन दष्टि लड़खड़ाने लगी तथा अव्यवस्थित हो गई। गुटबंदी की प्रवृत्ति प्रधान हो गई तब कुछ युवा कहानीकारों ने यथार्थवादी दृष्टि से सचेतनता पर बल दिया। 'आधार' के सचेतन कहानी विशेषांक में कहा गया, सचेतनता एक दष्टि है, जिसमें जीवन जिया भी जाता है और जाना भी जाता है।"
- डॉ. महीप सिंह ने सचेतना दष्टि को आधुनिकता की एक गतिशील स्थिति स्वीकारा है, जो हमारे सक्रिय जीवन-बोध और मनुष्य को उसकी अनुभूतियों के साथ समग्र परिवेश के संदर्भ में स्वीकार करती है। यह सापेक्षता पर बल देती है।
- डॉ. धनंजय के अनुसार, समाज और व्यक्ति के ऊपरी संबंधों पर सूक्ष्मता से उसकी दष्टि डाली जाती है, उतनी ही व्यक्ति के आंतरिक संबंधों पर भी व्यक्ति वहां आवेगों संवेगों के साथ व्यवस्थित भावभूमि में रहता है किंतु उसकी कार्यशीलता मात्र अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की संकुचित पष्ठभूमि में नहीं होती।"
- सामाजिक चेतना का नैरंतर्य सदैव विद्यमान रहता है। सचेत दृष्टि पर्याप्त सीमा तक संतुलित एवं सामयिक होती है। जो नई कहानी में ओझल थी। 1964-65 के निकट यह स्पष्ट हुई।
- डॉ. रामदरश मिश्र के अनुसार सन् 1960 ई. के बाद अनेक अश्लील कहानियों की भीड़ में सामूहिक स्वर में रचनात्मकता के स्तर पर उसका प्रतिवाद करने का प्रयास सचेतन कहानी को एक ऐतिहासिक महत्व प्रदान करता है। सचेतन कहानीकारों में मनहर चौहान, महीप सिंह, कुलभूषण, राम कुमार 'भ्रमर' तथा बलदेव वंशी आदि उल्लेखनीय हैं।
- अकहानी सेक्स से पूर्णतया आक्रांत है। सचेतन कहानी इससे मुक्त है। अधिकांश सचेतन कहानियों में किसी न किसी सामाजिक, राजनीतिक अथवा वार्षिक विसंगतियों को उघाड़ा गया है। इसमें अनुभूति की गहनता एवं विविधता है। एक युद्ध की विभीषिका को लेकर की गई वेद राही 'दरार, महीप सिंह युद्ध मन', शैलेश मटियानी उसने नहीं कहा था' आदि कहानियां हैं दूसरी ओर हिमांशु जोशी- 'चीलें' राजकुमार भ्रमर गिरस्तिन, मनहर चौहान 'उड़ने वाली लाशें' आदि कहानियां काम संबंधों के यथार्थ का उद्घाटन करती है। जीवन की कटु विडंबना पर आधारित कहानियों में एक और सुखवीर नारायणे' तथा बलदेव वंशी एक खुला आकाश' उल्लेखनीय हैं।
समांतर कहानी क्या होती हैं
- समांतर कहानी का बीजवपन सन् 1971-72 ई. में ही हो चुका था। सारिका सन् 1974 ई. से समांतर कहानी के विशेषांकों और दौर प्रारंभ हुआ। समांतर कहानी आंदोलन में वृद्धि होती गई।
- सन् 1972 ई. में समांतर प्रथम के प्रकाशन से इसका विधिवत आरंभ माना जा सकता है। इसके मुख्य रचनाकार कमलेश्वर रहे हैं उनके अतिरिक्त शरीफ, कामता नाथ, मधुकर सिंह, जितेंद्र भाटिया से रा. यात्री मिथलेश्वर, निरूपमा सेवती आदि कहानीकारों ने स्पष्ट समर्थन दिया।
- समांतर कहानी के कुछ पक्षधर इसे आंदोलन नहीं स्वीकारते थे। से.रा. यात्री ने आंदोलन से असहमति दिखलाई है। समांतर कहानी को लेकर जागरूक समीक्षकों की टिप्पणियों में मतैक्य नहीं है। इब्राहिम शरीफ तथा विनय प्रशंसक हैं तो शैलेष मटियानी ने तीखी आलोचना की है । मटियानी के अनुसार यह आन्दोलन हिंदी कहानी के समकालीन दौर का सर्वाधिक हास्यास्पद ही नहीं क्षतिकारक है।
समांतर कहानी आंदोलन की वैचारिकता की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
- (i) समांतर कहानीकार रचना एवं सामयिक सत्यों के मध्य सामंजस्य की स्थापना करता है। अर्थात् उसका चिंतन एवं लेखन परिवेशानुसार होता है।
- (ii) समांतर कहानी का केन्द्र बिंदु सामान्य मानव है। यह सामान्य मानव के संघर्षों की पक्षधर है क्योंकि उसका पूर्ण विश्वास एकजुटता ही सामान्य मानव संघर्षो में विजयी होगी शोषक शक्तियां परास्त होंगी समांतर कहानी मानव को व्यष्टि रूप में न देखकर उसे समष्टि रूप में देखते हुए उसको उसके पूर्ण संघर्षों में दिशा निर्देशन एवं स्वरूप प्रदान करती रहती है।
- (iii) आंदोलन सुनिश्चित परिवर्तन हेतु जन-संपर्क के प्रति समर्पित है। कहानीकार जन-संघर्ष का द्रष्टा नहीं अपितु सक्रिय सदस्य है।
- (iv) समांतर आंदोलन राजनीतिक महत्व को स्वीकारता है। राजनीति में सक्रिय भाग लेते हुए क्रांति हेतु कार्य करना समांतर कहानीकार को रूचिकर प्रतीत होता है। राजनीतिक संघर्षो को वह सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अवलोकता है। एवं सांस्कृतिक संघर्ष को राजनीतिक स्वरूप प्रदान करता है। समांतर कहानी ने भाषित स्तर पर भावुकता का निराकरण करके उसे स्पष्ट, प्रत्यक्ष एवं प्रभावपूर्ण स्वरूप प्रदान किया है। डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ का कथन है, 'कार्य का कोई आग्रह इसमें नहीं है।
- समांतर कहानी के विचार अति स्पष्ट है। आंदोलन ने विचारों का दुरूपयोग किया है। समांतर कहानियां विचारों का प्रतिबिंबन नहीं करती है। भारी वेतन भोगी समांतर कहानीकार सामान्य मानव का उथला चित्रण करते हैं जो पाठक पर प्रभाव नहीं डालती। यह सब कुछ होते भी इब्राहिम शरीफ, सूर्यबाला, दिनेश पालीवाल, हिमांशु जोशी, प्रभु जोशी, मिथिलेश्वर तथा देवकी अग्रवाल आदि की कुछ अच्छी कहानियां समांतर कहानी की उपलब्धि कही जा सकती हैं।
सक्रिय कहानी की अवधारणा
- सक्रिय कहानी की अवधारण सन् 1979 ई. में राकेश वत्स ने की। राकेश वत्स अनुसार "सक्रिय कहानी का सीधा और स्पष्ट मतलब है आदमी की चेतनात्मक ऊर्जा और जीवंतता की कहानी। उस समझ और अहसास की कहानी जो आदमी को बेबसी, वैचारिक निहत्थेपन और नपुंसकता से निजात दिलाकर पहले स्वयं अपने अंदर की कमजोरियों के खिलाफ खड़ा होने के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी अपने सिर लेती है। सक्रिय कहानी एक बिंदु पर जनवादी कहानी के अति निकट है।
- यह बिंदु व्यवस्था विरोध का है। सक्रिय आंदोलन से संबद्ध कहानीकार आर्थिक सामाजिक शोषण का विरोध करते हैं। इसके लिए ये वर्तमान व्यवस्था को उत्तरदायी बतलाते हैं। सक्रिय कहानी से जुड़े कहानीकारों में सुरेंद्र कुमार, विवेक निझावन, रमेश बतरा तथा सच्चिदानंद धूमकेतु आदि मुख्य हैं। अनेक कहानीकारों ने आंदोलन धर्मिता से अलग रहकर भी सार्थक सजन किया है। रामदरश मिश्र, मदुला गर्ग, विवेकी राय मैत्रेयी पुष्पा, ललित शुक्ल, प्रेम कुमार, शशि प्रभा शास्त्री, मंजुला तथा हरिमोहन आदि की कहानियां इस संदर्भ में अवलोकनीय हैं।
जनवादी कहानी क्या होती हैं
- जनवादी कहानी एक पत्रिका और व्यक्ति पर केन्द्रित नहीं रही। सातवें-आठवें दशक में इसराइल, असगर वजाहत, मार्कंडेय, प्रदीप मांडव, नमिता सिंह तथा सूरज पालीवाल आदि की कहानियों का तेवर जनवादी है। जनवादी कहानी व्यवस्था विरोध के बिंदु पर सक्रिय कहानी के अति निकट है। जनवादी आंदोलनकारी कहानी के अति निकट है। जनवादी आंदोलनकारी कहानीकार आर्थिक सामाजिक शोषण का विरोध करते हैं तथा इसका उत्तरदायी वर्तमान व्यवस्था को बनाया है।
नौंवे दशक की कहानी में दो परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
- (i) वह पंजाब समस्या, सांप्रदायिक द्वेष आदि समसामयिक समस्याओं को अपने विचार का विषय बनाती है।
- (ii) वाद या आंदोलन से उसने अपने को मुक्त कर लिया है। शिल्प की दृष्टि से नौवे दशक में किस्सागोई का प्रत्यावर्तन दष्टिगोचर होता है।
- इस दशक में शिवमूर्ति, संजय, अवधेश प्रीत नारायण सिंह, सुनील सिंह, शिवजी श्रीवास्तव, शोभा नाथ लाला, जनकराज फरीक ललित शुक्ल, कमर मेवाड़ी, मैत्रेयी पुष्पा, नमिता सिंह तथा चित्रा मुद्गल आदि कहानीकारों ने सार्थक कहानियां लिखी हैं। वर्तमान कहानी अपने जनर्धी परंपरा को बढ़ातें हुए समूचे परिदश्य से साक्षात करने में संलग्न हैं। इस साक्षात्कार में तीक्ष्णता तथा ईमानदारी है।
लघु कथा क्या होती हैं
- वर्तमान समय कार्यव्यस्तता का काल है। पाठकों के पास कालाभाव है। पद्य में क्षणिकाओं को आधार बनाकर गद्य विद्या में लघु कथा का आविर्भाव हुआ है। जिससे संबंधित अनेक लघु कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिन में विषय वैविध्य है। उद्देश्य मनोरंजन समाज सुधार शैली व्यंग्य प्रधान, भाषा सरल भाव मार्मिक है।