नई कविता- नामकरण और विशेषताएँ
Nai Kavita Ka Nam Karan Evam Visheshtaayen
नई कविता का नामकरण
- नई कविता के नाम का आधार 'तारसप्तक' की परंपरा में निकलने वाला अर्द्ध वार्षिक संग्रह है जो सन् 1954 ई. में नई कविता के नाम से प्रकाशित हुआ था। यद्यपि इस संग्रह में संग्रहीत कविताएं प्रयोगवादी हैं जिसका संपादन डॉ. जगदीश गुप्त ने किया है। इसी के आधार पर नई कविता नाम पड़ा। नए नए प्रयोगों का कारण भी सार्थक है।
डॉ. जगदीश गुप्त का नई कविता विषयक कथन अवलोकनीय है
- "कुछ व्यक्ति ऐसे भावुक होते हैं कि अपनी तन्मयता में कविता का अर्थ बिना समझे उसके संगीत पर ही मुग्ध हो उठते हैं। नई कविता कदाचित ऐसे व्यक्तियों के लिए भी नहीं है। वह उन प्रबुद्ध विवेकशील आस्वादकों को लक्षित करके लिखी जा रही है जिनकी मानसिक अवस्था और बौद्धिक चेतना नए कवि के समान अर्थात् जो उसके समान धर्मा है एक ओर जो पुरानी कविता की अभिव्यंजना प्रणालियों, शक्तियों और सीमाओं से परिचित हैं और जिनकी परितप्ति वस्तु और अभिव्यक्ति से नहीं होती या होती है तो संपूर्ण रूप से नहीं दूसरी ओर जो नई दिशाएं खोजने में संलग्न नूतन प्रतिभा की क्षणिक असफलताओं और कठिनाइयों के प्रति सहानुभूतिशील होकर नए कवि की वास्तविक उपलब्धि की प्रशंसा करने में संकोच नहीं करते.... बहुत अंशों में नई कविता की प्रगति ऐसे प्रबुद्ध भावुक वर्ग पर आश्रित रहती है। भले ही यह वर्ग संख्या में कम हो, क्योंकि इसका महत्व संख्या से नहीं उस स्थिति से आंका जाता है जिस तक अनेक अनुभवों को संचित करता हुआ यह पहुंचा होता है।"
पंत के काव्य का विकास छायावाद, प्रगतिवाद प्रयोगवाद से होता हुआ नई कविता तक आ पहुंचा। सन् 1954 ई. में अरविंद वादी पंत का रंग पलटा और उन्होंने नई कविता के विषय में लिखा है-
- "नई कविता ने मानव-भावना को छायावादी सौंदर्य के धड़कते हुए पलने से बलपूर्वक उठाकर उसे जीवन समुद्र की उत्ताल लहरों में पेंग भरने को छोड़ दिया है....। नई कविता विश्व वर्चस्व से प्रेरणा ग्रहण करके तथा आज के प्रत्येक पल बदलते हुए युग पट को अपने मुक्त छंदों के संकेतों की तीव्र मंद गति लय में अभिव्यक्त कर, युग मानव के लिए नवीन भाव भूमि प्रस्तुत कर रही है.... नई कविता अपनी शैली तथा रूप विधान में जहां अधिक मौलिक, वैचित्र्य पूर्ण तथा वैयक्तिक हो गई है, वहां अपनी भावना में अधिक रागात्मक तथा मानवतावादी बन गई है।"
- भारतीय स्वतन्त्रता के बाद लिखी गई उन कविताओं को नई कविता की संज्ञा दी गई है जिनमें परंपरा कविता से आगे नए भाव बोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नए मूल्यों और नए शिल्प विधान का अन्वेषण किया गया। यह अन्वेषण साहित्य में कोई नई वस्तु नहीं है। इतिहास के संदर्भ में देखा जाए तो प्रायः सभी नए वाद या सभी नई-नई धाराएं अपने पूर्ववर्ती वादों या धाराओं की अपेक्षा कुछ नवीनता की खोज करती हुई दष्टिगोचर होती हैं। साहित्य में इस नवीनता की सदा प्रशंसा की जाती है, यदि वह अपना संबंध बदलते हुए सामाजिक जीवन के मूल सत्यों से बनाए रखे। इस प्रकार नित्य नित नवता की परंपरा अतीत् काल से गतिमान देखी जा सकती है। फिर स्वतंत्रता के पश्चात् लिखी जाने वाली उन कविताओं के लिए नई कविता' नाम रूढ़ हो गया जो अपनी वस्तु छवि एवं रूप छवि दोनों में पूर्ववर्ती प्रगतिवाद तथा प्रयोगवाद से विकसित होने पर भी अपना विशिष्ट स्थान बनाए हैं।
नई कविता की विशेषताएं - Nai Kavita Ki Visheshtaayen
1. आस्था
- नई कविताओं की प्रमुख विशेषता जीवन के प्रति आस्था है। नई कविता के कवियों में यह आस्था प्रायः सभी में दष्टिगोचर होती है। आधुनिक क्षणिक एवं लघु मानवतावादी दृष्टि जीवन-मूल्यों के प्रति सकारात्मक है। नई कविता में जीवन को पूर्ण रूपेण स्वीकार करके जीवन भली-भांति भोगने की प्रबल आकांक्षा विद्यमान है।
- मनोविज्ञान ने इस तथ्य को प्रमाणित कर दिया है कि हमारा जीवन क्षणभंगुर एवं क्षणिक है जिसके अनेक लघु क्षण हैं उन्हीं क्षणों में हम जीवन यापन करते हैं। क्षणिक अनुभूतियां संपूर्ण जीवनाभूति में कहीं अवरोध उत्पन्न नहीं करती हैं अपितु उनकी साधिका स्वरूप उपस्थित होती है। क्षण की सत्यता का अभिप्राय यह है कि जीवन की प्रत्येक अनुभूति, प्रत्येक व्यथा प्रत्येक सुख को सत्य मानकर जीवन को सघन रूप से स्वीकार किया जा ए।
2. लघुमानव-
- नई कविता में लघु मानवत्व के तथ्य को उभारा गया है उसे भी जीवन की संपूर्णता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। लघु मानव का अभिप्राय उस सामान्य मनुष्य से है जो अपनी संपूर्ण संवेदना, क्षुधा-तष्णा कुंठा - संत्रास तथा मानसिक ताप को लिए दिए सदैव उपेक्षित रहा है। सामान्य मनुष्य से अभिप्राय यदि मनुष्य की लघुता का अन्वेषण कर वास्तविक सत्य के रूप में उसकी प्रतिष्ठा करने से है तो निश्चय ही यह अतिवादी प्रतिक्रियावादी और असत्य जीवन धारणा है। स्वस्थ नई कविता ने कभी भी इस तथ्य को नहीं स्वीकारा है।
- नई कविता ने न तो जीवन को एकांगिता में परखा या देखा है न मात्र महान रूप में अपितु किसी भी वर्ग विशेष से में संबंधित वैयक्तिक या सामाजिक जीवन को जीवन के रूप में ही देखा है। इसमें किसी सीमा की अवधारणा नहीं की है। मनुष्य किसी वर्गीय चेतना, सिद्धांत अथवा आदर्श के सहारे गतिमान होकर यहां तक नहीं आया है। वह अपने संपूर्ण जीवन के सुख-दुख तथा राग विराग की विभिन्न परिस्थितियों में बंधा हुआ शुद्ध मानव रूप में आया है।
3. वादमोह-
- इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी वाद विशेष के मोह में पड़कर नई कविता का सजन नहीं किया है। नयी कविता न कोई वाद है न किसी वाद के अंतर्गत आती है क्योंकि एक कालावधि होती है। वाद अपने कथ्य एवं दष्टिकोण में बंधा हुआ तथा सीमित होता है। नयी कविता की ऐसी कोई कालसीमा नहीं होती।
4. वैयक्तिकता
- नयी कविता में एक विशिष्ट प्रकार की वैयक्तिकता पायी जाती है जिसका स्वाभाविक एवं मर्यादित सामाजिकता से कोई सैद्धान्तिक या व्यावहारिक विरोध नहीं था। वह न तो व्यक्ति निरपेक्ष सामूहिकता थी, न समाज-निरपेक्ष अहंवादिता कवि अधिकतर एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में ही अपनी रचनाओं में प्रकट हुए। कहीं वे अपनी आन्तरिक स्थितियों के प्रति संवेदनशील हो उठे, कहीं बाह्य परिवेश के प्रति दोनों से जन्य अनुभूतियाँ कवि की अपनी थीं, किसी सैद्धान्तिक आग्रह से अनुप्राणित नहीं। एक प्राकृतिक दृश्य के प्रति कवि की प्रतिक्रिया दर्शनीय है।
"दिन बीते कभी इस शाख पर,
किसी कोयल को कूकते सुना था;
... बार-बार कानों में कही कुहू, गूँजती हुई पाती हूँ।"
- नई कविता में कुछ ऐसी भी कविताएं मिलती हैं, जहां कवि प्रयोगवादियों की तरह परिवेश-निरपेक्ष होकर अपनी आन्तरिक स्थिति की अभिव्यक्ति करते हैं। कुंवरनारायण की गहरा स्वप्न' नामक रचना उदाहरण-स्वरूप ली जा सकती है, जिसमें कवि ने भग्नावशेषों की दुर्व्यवस्थ छायाएँ', 'उलझी हुई ईर्ष्यालु लपटें, आदि जीवन की अनेक पर्तों को खोलकर अपने जीवन-सत्य को स्वप्न में देखा है।
- दूसरी और नई कविता में उभरती हुई सामाजिक चेतना भी द्रष्टव्य है क्योंकि ऐसे भी नये कवि हुए जो मानते थे कि समाज के प्रत्येक सदस्य की छोटी सी चेतन क्रिया भी किसी न किसी अंश में सामाजिक होती है। फिर कविता तो समाज के सबसे अधिक संवेदनशील व्यक्ति की चेतन क्रिया है। अतः उसकी सामाजिकता असंदिग्ध है।" कवि कथन उद्धरणीय है
“मेरी प्रतिभा यदि कल्याणी, तो दर्द हरे,
सुख सौख्य भरे
यह नहीं कि अपने तन-मन के निजी व्यक्तिगत
दुःखों दर्दों में जिये मरे!"
सामाजिक कल्याण करने में असमर्थ होने वाला कवि-कार्य करना
नहीं चाहता।
“अगर नहीं है मेरे स्वरों में तुम्हारा स्वर
तो... पछाड़ खाये बादलों की तरह टूट
जाने दो।"
- यद्यपि नए कवि वैयक्तिक अनुभूतियों को ही अधिकतर कविताबद्ध करते रहे, तथापि उसमें उभरती हुई सामाजिक चेतना लक्षित हुए बिना नहीं रही।
5.मानव-मूल्यों का विघटन
- जिन नैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक मूल्यों को शाश्वत मानकर मानव समाज उनके सहारे जीवन में शांति और सुख प्राप्त करने के लिए युगों-युगों से प्रयत्नशील रहा है, उनको प्रथम एवं द्वितीय महायुद्धों ने झूठा, खोखला, अस्थायी पंगु और अविश्वसनीय ठहराया। सर्वत्र बढ़ती हुई व्यक्तिगत स्वार्थ- साधना, बेईमानी, चोर बाजारी, घूसखोरी आदि ने युग-युगों से समादत मानव-मूल्यों के सम्मुख भारी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिये।
- ईश्वर के अस्तित्व पर विज्ञान ने अविस्मरणीय प्रहार किया। संसार की सभ्य समझी जाने वाली जातियों द्वारा हाइटमैंत बरडन, वर्ण विवेचन जैसे असभ्य सिद्धान्तों का समर्थन और प्रचार होने लगा तो राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर ठहर पाना असंभव हो गया। इस विघटित स्थिति में नए मूल्यों की स्थापना भी आसान न थी। मार्क्सवादी दर्शन में पहले-पहल आकर्षण देखा गया पर वह भी युगीन बुद्धिजीवियों की अतिचेत और अतितार्किक कसौटी पर खरा उतर नहीं सका। इस विघटित अवस्था का सही-सही चित्रण नई कविता में बहुतायत से हुआ। आगे की अवतारणा में कवि इस मूल्यगत शून्यावस्था के कारण परम्परा विश्वासों के प्रति विद्रोही हो उठता है
"आओ, हम अतीत को भूलें, जिसके यक्ष
यक्षिणी हमकों
प्रिय लगते थे क्योंकि वे नहीं रहे।"
इस प्रकार मूल्यों की दष्टि से विघटित दुनिया को कुँवरनारायण इस प्रकार देखते हैं-
"पागल से लुटे-लुटे, जीवन से छुटे- छुटे ऊपर से सटे-सटे
अन्दर से हटे-हटे
कुछ ऐसी भी दुनिया जानी जाती है। "
विघटित मूल्यों पर भी विश्वास रखने की भयानक स्थिति को देख
कवि पूछ उठता है
"कितना भयप्रद है, प्रभु इन सबका सच
होना। "
इस प्रकार विघटित मूल्यों का स्वर नयी कविता में मुखर सुनायी पड़ता है।
6 खंडित व्यक्तित्व-
- ठीक ही है कि कवि का व्यक्तित्व नई कविता में उभर आता है। पर उपर्युक्त मूल्यों का विघटन और तज्जन्य सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं नैतिक अव्यवस्था के अनिवार्य परिणामस्वरूप जो कुछ काव्य में उभर आता है, वह उसका खंडित, घायल एवं पंगु व्यक्तित्व ही है। जो कवि बेकार रहता है, उस पर समाज, परिवार, मित्र सभी टूट पड़ते हैं और जो नौकरी पर है वह यंत्र और नौकरशाही का क्रीतदास बनकर उन दोनों के बीच पिसता जाता है। किन्तु उसकी बौद्धिक चेतना भौतिक जीवन के दब जाने से नहीं दबती। अतः उसका व्यक्तित्व कटकर दुहरा हो जाता है। एक दिखावे का, दास का व्यक्तित्व जिसने परिवेश से समझौता कर लिया है, दूसरा अन्तर का क्रांतिकारी का व्यक्तित्व जो परिस्थिति के प्रति तीव्र विद्रोही हो उठता है।
- इसके अतिरिक्त, आर्थिक दृष्टि से अधिकांश नये कवि निम्न-मध्यवर्ग के थे उनका भी समाज में दुहरा व्यक्तित्व दिखा। एक दिखावा, ठाटबाट और भौतिक दृष्टि से सम्मानित बनने के सफल-असफल प्रयासों से युक्त नुमाइशी व्यक्तित्व, दूसरा परिवार - हीन-आर्थिक स्थिति में पिसने वाला वास्तविक व्यक्तित्व इन विरोधी तत्वों के बीच पिस-पिसकर उसका व्यक्तित्व खंडित हो गया जिसकी अभिव्यक्ति हम नयी कविता में बहुतायत से पाते हैं। अविराम संघर्ष के फलस्वरूप अपने थके-हारे घायल व्यक्तित्व का चित्रण कुँवरनारायण ने भारतीय चक्रव्यूह ग्रस्त अभिमन्यु से रूपक बाँधकर किया-
"मेरे हाथ में टूटा हुआ पहिया... बदन पर टूटा हुआ कवच,
सारी देह क्षत-विक्षत........
में बलिदान उस संघर्ष में, कटु व्यंग्य हूँ उस तर्क पर
जो जिन्दगी के नाम पर हारा गया।"
एक दूसरा खंडित व्यक्तित्व देखिए
"मेरे बाँझ दिन की साँझ, पंख थका गयी
बैठा हूँ मैं दुबक कर घोंसले में"
- किन्तु इस खंडित व्यक्तित्व की विशेषता यह है कि कवि इस अवस्था को शाश्वत मानकर और क्षयी मनोवत्तियों को अपनाकर अपने को उसके अनुरूप बनाने के बजाय उससे ऊपर उठकर अपने व्यक्तित्व की खोई हुई पूर्णता एवं संतुलितावस्था को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील बना रहा।
8.नूतन-मानव की कल्पना-
- नए कवियों की नवीन मूल्य भावना से सम्बद्ध है या हम कह सकते हैं कि यह नूतन मानव कवियों द्वारा समर्थित नूतन मूल्यों का पुतला है। जीवन को उसकी व्यापक संपूर्णता एवं समग्रता में चित्रित न करके उसकी जगह खण्ड चित्रों को प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति के कारण इस नव-मानव की भी समग्र एवं चतुर्मुखी कल्पना हमें नयी कविता में नहीं मिलती। विभिन्न कवियों ने अपनी-अपनी विभिन्न रचनाओं में इस नव-मानव के गुण विशेष और उसको अनुशासित करने वाले मूल्य विशेष की ओर अवश्य संकेत किया जिनको संगहीत करने पर नव-मानव की स्पष्ट मूर्ति पाठक के समक्ष आ सकती है।
- यह नव मानव निरंकुश स्वतंत्रता का अचूक प्रेमी है जिसको पाने या बनाये रखने के संग्राम में पराजित होने की अपेक्षा वीरों की मृत्यु मरना ही उसे वरणीय है। इतना स्वतंत्रता प्रेमी होते हुए भी वह अपने सामाजिक कर्त्तव्यों के प्रति सदा जागरूक है, क्योंकि वह जानता है कि मेरा भाग्य जुड़ा है उनसे जो मेरे हैं। और युग जीवन की क्षयी प्रवत्तियों एवं अनिश्चयात्मकता से वह प्रभावित अवश्य है पर उनसे ऊपर उठने का आग्रह भी उसमें है। किसी भी एकांगी दष्टिकोण के चरणों में आत्मसमर्पण करने के लिए वह तैयार नहीं होता। भावुकता की जगह बौद्धिकता और विश्वासों की जगह तार्किकता से वह काम लेता है। अपने को सम्पूर्ण रूप से व्यवहारवादी बनाकर परिवर्तनशील परिवेश के अनुरूप ढाल लेने का आग्रह भी उसमें पाया जाता है।
8 आशा- निराशा, आस्था-अनास्था का मिश्रित स्वर-
- अनास्था और निराशा को पनपाने वाली परिस्थितियों में भी अपने जीवन-दर्शन के बल पर प्रगतिवादी कविता ने आशा और आस्था को मुखर किया है। इसकी प्रतिक्रियाजन्य अतिवादिता प्रयोगवादी कविता की विशेषता रही जहां अनुभूत या आरोपित निराशा एवं अनास्था से कवि की भावभूमि आक्रांत हो गई।
- शायद निराशा और अनास्था के बीच में भी आशा और आस्था को प्रेरित करने वाली सामयिक परिस्थिति की ओर संवेदनशील होने के कारण या कभी आरोपित निराशावादिता में रमने और कभी उससे ऊपर उठकर बाहर की ओर खुली दष्टि रखने के कारण इन विरोधी तत्वों का मिश्रित स्वर नयी कविता में सुनाई पड़ा। इस विरोधाभास का कारण यह भी हो सकता है कि आज का कवि विभिन्न तत्वों से मिलकर बना है, उसने विभिन्न क्षेत्रों से प्रभाव ग्रहण किया है और वर्ण्य विषय के प्रति उसकी प्रतिक्रिया यहाँ भी विविध है।"
- अब सवाल है कि इसमें कौन-सा स्वर नयी कविता में अधिक मुखर रहा। तमाम कवि निराशा और आस्था को ही काव्य में उतारते रहे, पर ऐसे भी कवि हुए जो इस प्रकार के चित्रण की परिसमाप्ति में आशा और आस्था का संदेश देना नहीं भूले। डॉ. इन्द्रनाथ मदान ने माना कि 'नयी कविता' में 'मानव व्यक्तित्व को उभारने तथा उसमें आत्मविश्वास और आस्था के साथ सामाजिक दायित्व को भरने के भी अंकुर विद्यमान हैं। अतः यही कहना समीचीन होगा कि नयी कविता में इन विरोधी प्रवत्तियों का मिश्रित स्वर पाया जाता है। संसार की निराशामय स्थिति का चित्र देखिए-
"हर अलौकिक रूप पथ्वी पर बिगड़ता ही रहा
एक धब्बा हर उजाले पर सदा पड़ता रहा......
आदमी हर दिव्यता के बाद भी सड़ता रहा।"
लगातार घायल होने और आशाओं पर निराशा की काली घटा घिरने के
बाद भी कवि अग्रसर तो होते हैं पर "किसी भी ओर से संकेत की कोई किरन भी नहीं
फूटती 'नई कविता' में अभिव्यक्त
आशा और आस्था के भी एक दो स्वर सुनिए-
"फूलेंगे फूल लाल लाल करूँगी प्रतीक्षा अभी
पौधा है वर्तमान...
कल उगूंगी मैं, आज तो कुछ भी
नहीं हूँ।"
9 कथ्य की व्यापकता
- नई कविता का विषय क्षेत्र विशाल है तथा काव्य रचना में स्वच्छंदता है। नई कविता में नवीन बोध किंतु यह नवीन बोध भारतीय संस्कृति की भांति परंपरा या पुरातनता से अलग नहीं है। अपितु इसमें पुरातनता एवं अद्यतना का पूर्व सामंजस्य है। नई कविता के अधिकांश कवियों का संबंध प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद की एक निश्चित सीमा एवं प्रवत्ति थी जिसका इन्हें पूर्व ज्ञान था सीमाबंधन के कारागार से मुक्त होने के लिए वे आकुल व्याकुल थे। कारागार से मुक्त होकर उन्मुक्त विस्तत काव्य जगत के प्रांगण में विचरण करने की असीम कामना थी। नई कविता ने ऐसे कवियों को सामान्य स्वच्छंद भूमि प्रदान की।
- नई कविता के प्रमुख दो तत्व हैं- (i) अनुभूति की सच्चाई तथा (ii) बौद्धिक यथार्थवादी दष्टिकोण। इन दोनों तत्वों की कोई सीमा नहीं थी अनुभूति की सत्यता का संबंध क्षणिक जीवन से भी हो सकता है। अथवा यह अनुभूति की सत्यता किसी समग्र काल की भी हो सकती थी। बौद्धिक यथार्थवादी दष्टि किसी व्यक्ति विशेष अथ समष्टिगत अथ सामाजिक जीवन से संबंधित आशा-निराशा, सामान्य व्यक्ति विशिष्ट व्यक्ति, प्रेम-ईर्ष्या, अनुराग-विराग आदि किसी की भी सच्चाई में कविता एवं जीवन के लिए अमूल्य है। नई कविता की बौद्धिकता नवीन यथार्थवादी दष्टि तथा नवीन जीवन चेतना की पहचान के दोनों रूपों में दष्टिगोचर होती है। अनुभवों का मूल्यांकन करने वाली दष्टि है जो उनसे तटस्थ बनाए रखने हेतु सदैव प्रयास करती है तथा जीवन चेतना की पहचान हेतु सदैव प्रयास करती है तथा जीवन चेतना की भावात्मक सत्ता को नवीन समझ से संक्रांत बनाती है जिसके परिणामस्वरूप संवेदना का रूप ज्ञानात्मक हो जाता है।
10. अनुभूति
- प्रश्न यह उठता है कि अनुभूति कवि या समाज किसकी होती है। साहित्य समाज का दर्पण है से स्पष्ट हो जाता है कि अनुभूति समाज की नहीं अपितु कवि की होती है। यह अनुभूति कभी मीरा जैसी अथवा कल्पित या क्रीत सूरदास जैसी होती है किंतु होती कवि की है। सामाजिक अनुभूति को कवि आत्मसात कर अथवा अपनी वैयक्तिक अनुभूति की अभिव्यंजना कर काव्य सजन करता है। कवि का सर्जक व्यक्तित्व कोई यंत्र नहीं है। वह प्रत्येक परायी अनुभूति को आत्मसात कर उसे स्वानुभूति का रूप प्रदान करने के पश्चात् ही काव्य सजन में सफलता प्राप्त करता है। जितना अधिक उसकी ग्रहण शक्ति होती है उतनी ही प्रबल उसकी अभिव्यंजना शक्ति होती है यही काव्य का सत्य है। समाज से लेने और समाज को देने में ही उसकी वास्तविक सच्चाई का ज्ञान होता है। इसलिए उसके व्यक्तित्व को संस्कारित करने वाली युग-सत्यग्राही चेतना की आवश्यकता होती है। कवि का युग बोध से संस्कृत व्यक्तित्व अपने द्वारा सबका अवलोकन कर लेता है। क्योंकि अपने मूल दर्द में एक है और कवि का व्यक्तित्व दर्द की संवेदना का जागरूक भोक्ता है-
"वही परिचित दो आंखे ही
चिर माध्यम हैं
सब आंखों से सब दर्दो से
मेरे चिर परिचय का "
-अज्ञेय
11. जीवन सत्य
- नई कविता जीवन के प्रत्येक क्षण की सत्यता को स्वीकारती है तथा उसे सहृदयता एवं पूर्ण चेतना से भोगने का समर्थन करती है। क्षण एवं शाश्वत बोध परस्पर विरोधी नहीं अपितु सहयोगी हैं। बूंद-बूंद जल से तालाब का निर्माण होता है। क्षण ही शाश्वत का निर्माता है इससे स्पष्ट हो जाता है कि क्षण शाश्वत को प्राप्त करने की यथार्थ प्रक्रिया है। क्षणिक जीवन सौंदर्य, क्षणिक अनुभूत व्यथा, या उल्लास, क्षणों में लक्षित होने वाली मनःस्थिति अथवा बाह्य व्यापार, क्षणों में स्फूर्जित हो जाने वाला कोई सत्य छोटा नहीं है। सत्य छोटा हो या बड़ा सत्य सत्य ही होता है। अनुभूति शून्यता तथा व्यथाहीनता इतिहास को असत्य का रूप प्रदान करती है। ऐसे इतिहास की कोई सार्थकता नहीं है। इसलिए नई कविता अनुभूतिपूर्ण गहरे क्षण प्रसंग, व्यापार या किसी भी सत्य को उसकी आंतरिक मार्मिकता के साथ ग्रहण करना चाहती है। इस प्रकार जीवन में सामान्य से सामान्य दष्टिगोचर होने वाला व्यापार या प्रसंग नई कविता में आकर नए अर्थ की अभिव्यक्ति करता है।
- क्षणिक अनुभूतियों के संदर्भ में नई कविता में मर्मस्पर्शी एवं वैचारिक प्रेरणा प्रदायिनी अनेक कविताएं उपलब्ध हैं। ये कविताएं मात्र क्षणों, प्रसंगों या दश्यों की लघुता का चित्रण नहीं करती अपितु संगत-असंगत बिंबों के द्वारा क्षणों की परिसीमा में उफनते हुए मानव जीवन की संश्लिष्टता को मूर्तिमत्ता प्रदान करती है। इन कविताओं आकार लघु एवं प्रभाव अति तीव्र होता है। कुछ आलोचक नई कविता पर पूर्ण पाश्चात्य प्रभाव स्वीकारते हैं जिसमें आंशिकता सत्यता है। किन्तु इसे नई कविता धारा का मूल स्वर नहीं स्वीकारा जा सकता है। पाश्चात्य प्रभाव अपवाद स्वरूप है। कवि अपने परिवेश में जन्मता, पलता तथा अनुभूति ग्रहण करता है। इसलिए नई कविता परिवेश के जीवन सत्यों को छोड़कर परराष्ट्रीय प्रभाव की वैसाखी के सहारे खड़ी नहीं हो सकती है। सत्य रूप जीवन सत्य के दो रूप हैं
- (i) कालजयी एवं सार्वभौम सत्य- ये सत्य प्रकृति से ही देश-काल की सीमा में प्रतिबद्ध नहीं होते हैं।
- (ii) देश-काल बद्ध सत्य कुछ जीवन सत्य किसी विशेष काल एवं स्थान के होते हैं। कविता में आकर काल एवं स्थान की सीमा लांघ जाते हैं।
12 परिवेश-
- कविता एक ऐसी संश्लिष्ट कृति है जिसमें हम परिवेशगत एवं परिवेशमुक्त सत्य को अलग-अलग नहीं कर सकते हैं क्योंकि सत्य की कोई विभाजक रेखा नहीं है। नई कविता का स्वर अपने परिवेश की जीवनानुभूति से प्रस्फुटित हुआ है। भिन्न-भिन्न कविताओं के जीवनानुभव विभिन्न परिवेशों से संबद्ध हो सकते हैं। नई कविता में ग्रामीण एवं नागरिक दोनों परिवेशानुसार काव्य सजन करने वाले कवि हैं। अज्ञेय का अनुभव क्षेत्र अति व्यापक है किन्तु अन्य कवियों का अनुभव क्षेत्र सीमित है।
नागरिक परिवेश-
- इन कवियों में, बालकृष्ण राव, शमशेर बहादुर सिंह, गिरिजा कुमार माथुर, प्रभाकर माचवे, कुंवर नारायण, विजय देव नारायण साही, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय आदि प्रमुख हैं।
ग्रामीण परिवेश-
- ग्रामीण संस्कार एवं अनुभूतियों से निर्मित कवियों में भवानी प्रसाद मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, केदार नाथ सिंह, नागार्जुन, शंभूनाथ सिंह तथा केदार नाथ अग्रवाल आदि प्रमुख हैं। इसे एकांतिक अलगाव नहीं कहा जा सकता है। कवियों का संक्रमण एक परिवेश से दूसरे परिवेश में होता रहता है। परिवेश के प्रभावानुसार काव्य सजन होता है। यथा – मदन वात्स्यायन की यांत्रिक परिवेश की कविताएं तथा ठाकुर प्रताप सिंह की संथाली परिवेश के आर्द्र गीत। परिवेश का वैषम्य अज्ञेय की कविताओं में दष्टिगोचर होता है। उनकी कविताओं में मध्यवर्गीय कुठा-निराशा, औद्योगिक नगरों की असंगतिपूर्ण सभ्यता का तीव्रता से ग्रहण मिलता है। दूसरी ओर उन्मुक्त प्रकृति या ग्रामीण जीवन छवि तथा विषमता या व्यथा को व्यंजित करते हैं अथवा प्रकृति एवं ग्राम जीवन के बिंबों के आधार अनुभूति या सौंदर्य का स्वर मुखरित करते हैं।
- नई कविता का परिवेश भारतीय जीवन है किंतु कुछ आलोचकों की मान्यता है कि नई कविता पर राष्ट्रीय परिवेश से प्रेरणा ग्रहण करने के परिणामस्वरूप अतिरिक्त अनास्था, निराशा, मरणधर्मिता तथा वैयक्तिक कुंठा आदि विशेषताओं का पश्चिम की नकल के आधार पर चित्रण किया गया है। यह सत्य है कि नई कविता में अतिरिक्त अनास्था, निराशा, मरणधर्मिता तथा वैयक्तिक कुंठा आदि चित्रित हैं किंतु ये विशेषताएं पाश्चात्य नहीं हैं अपितु इन विशेषताओं के जन्मदाता कारक भारतीय समाज में विद्यमान हैं। भारतीय समाज का परिवेश अति विषम एवं व्यापक है।
13. क्षण-शाश्वत
- जीवन के प्रत्येक क्षण को विश्वास के साथ भोगना, उसकी पीड़ा और निराशा को जीवन सत्य के रूप में स्वीकार करके सच्चे रूप में भोगना ही जीवन का सच्चा उपभोग है। वास्तव में यही जीवन की आस्था है। किंतु जीवन का मूल्य सत्य मात्र पीड़ा एवं निराशा को मानकर अहोरात्रि शोक गीत गाने का उपदेश देना सामाजिक जीवन के संपूर्ण विकास के पीछे कार्य करने वाली मनुष्य की जिजीविषा, प्रेम एवं उल्लास को नकारता है। नई कविता में भी पीड़ा-निराशा को यत्र तत्र जीवन का एक पक्ष न मानकर जहां समग्र जीवन सत्य को स्वीकारा गया है वहां पीड़ा को जीवन की सर्जनात्मक शक्ति न मानकर उसे गतिहीन करने वाली बाधा बनकर आने वाली माना है। ऐसा दष्टिकोण समाज या व्यक्ति जीवन के अभाव पक्ष को उद्घाटित करने में ही आनंदित होता है। अभाव पक्ष का उद्घाटन तभी सार्थक है जब यह सुधार या पूर्ति हेतु व्यंग्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया हो। नई कविता जीवन मूल्यों की पुनः परीक्षा करती है। ये मूल्य में युग की आवश्यकताओं के परिवेश में कितने सही प्रमाणित होते हैं अथवा अपने रूढ़ रूप में कितने असंगतिपूर्ण नवीन हो गए हैं। इनका कितना अंश ग्राह्य या अग्राह्य है? जागरूक कवि या चिंतक हेतु यह परीक्षण अनिवार्य है।
14. लोकोन्मुखता-
- लोकोन्मुखता नई कविता की मुख्य विशेषता है कि वह सहज लोक जीवन के सन्निकट पहुंचने के लिए प्रयत्नशील है। नई कविता ने लोक जीवन की अनुभूति, सौंदर्य बोध, प्रकृति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया है। लोक जीवन के बिंबों, प्रतीकों, शब्दों एवं उपमानों को उन्हीं के मध्य से चुनकर उसने अपने को अत्यधिक संवदेनापूर्ण एवं सजीव बनाया है। बिंब कविता की मूल छवि है इसलिए नई कविता बिंब बहुल है।
15. भाषा एवं बिंब-
- भाषा मुक्त भाव से ऐसे शब्दों को ग्रहण करती है जो अभिजात न होकर सशक्त हैं। अपने में मिट्टी की सौंधी गंध छिपाए हुए हैं। नयी कविता जीवन के नए संदर्भों में उभरने वाली अनुभूतियों, सौंदर्य प्रतीतियों और चिंतन आयामों से संपक्त बिंब ग्रहण करती है। शहरी कवि विशेष रूप से नागरिक जीवन-बिंब ग्रहण करते हैं। जबकि ग्रामीण जीवन के संस्कारों से युक्त कवि ग्रामीण बिंबों का चयन करते हैं। व्यक्तित्व और सामाजिक दोनों प्रकार के बिंब नई कविता में विद्यमान हैं। कुछ बिंब नई कविता ने पुराणों एवं इतिहास से भी चुने हैं किन्तु उन्हें संदर्भानुसार नवीन अर्थ प्रदान किया गया है। बिंब विधान की दृष्टि से 'अंधा युग', 'कनुप्रिया' तथा 'आत्मजयी' महत्वपूर्ण कृतियां हैं। रोमानी या बोझिल पदावली का प्रयोग लोक शब्दों का चयन है। नई कविता की भाषा में खुलापन एवं ताजगी है।
- अनुभूति शून्यता की अभिव्यक्ति की अस्पष्टता, अटपटेपन, दुरूहता में छिपाने का फैशन यहां तक बढ़ गया कि ढेर सी नई कविताओं के मध्य में बहुत से कवियों के व्यक्तित्व को पहचानना कठिन कार्य हो गया।