नवगीत का अर्थ परिभाषा और नव गीतकार
नवगीत को नव्य गीत या नए गीत
- नवगीत को नव्य गीत या नए गीत भी कहा गया है। पद्य काव्य की एक विद्या गीत है। समसामयिक परिवर्तनों की दृष्टि से इसे चिरंतन विद्या की संज्ञा दी जा सकती है। युगीन संदर्भानुसार मानव मन के संवेग, भाव या विचार परिवेश में नए-नए रूप ग्रहण करते रहते हैं। इन संवेगों की अभिव्यक्ति हेतु मानव मन आकुल-व्याकुल रहता है जब तक इन्हें मुक्त कंठ से गा नहीं लेता उसे संतुष्टि नहीं मिलती है। यह कटु सत्य है कि काल एवं परिवेश मानव मन के संवेगों को परिवर्तित करते रहते हैं।
- यही कारण है कि आधुनिक व्यक्ति के सुख-दुख, राग-विराग, ईर्ष्या-द्वेष आदि की संवेदना आदिम कालीन मानव संवेदना की भांति प्रत्यक्ष सीधी और आवेगात्मक नहीं हैं क्योंकि उसमें बौद्धिक युग की अनेक जटिलताएं समाहित हो गई हैं। इसलिए आधुनिक संवेदना आदिकालीन, मध्ययुगीन संवेदना रूमानी गीतों की संवेदना की भांति एक लय में वेग से नहीं फूट चलती है अपितु वह एक विशिष्ट मानसिक परिवेश में अपने अनुकूल बिखरे हुए संवेगों से जुड़ती है।
- अभिप्राय यह है एक संवेग दूसरे से संक्रांत होता है। ये संक्रांत संवेग एक आंतरिक एकता से अनुशासित होते हैं। देखने में ये संवेग बिलकुल भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं किंतु मूलतः आंतरिक संगीत से समन्वित होते हैं। वर्तमान में यह सत्य भाव नई कविता और नवगीत दोनों में व्यक्त हो रहा है। इन संक्रांत संवेगों को रूपायित करने के लिए कवि को अनिवार्य रूप से बिंबों, प्रतीकों और लाक्षणिकता की योजना करनी पड़ती है। बिंबों और प्रतीकों के बिना संवेगों की संश्लिष्टता और सूक्ष्मता व्यंजित नहीं हो पाती है।
- जहां मानव मन सौंदर्य, राग एवं सत्य के किसी पहलू को गहराई से स्पर्श करता है वहां गीत की भूमि होती है। यह कथ्य अपेक्षाकृत आत्मप्रधान होता है। इसे विश्लेषण या विवेचन की आवश्यकता नहीं होती हैं न ही अति व्यापक या जटिल होता है कि उसको सुलझाने में बुद्धि को प्रयास करने में थकावट का अनुभव हो। बुद्धि भार से दबती नहीं है।
- हिंदी प्रायः का एक आकार स्वीकार कर लिया गया है। उस आकार में अधिक से अधिक सामग्री अर्थात् विषय वस्तु भरने का अथक प्रयास किया जाता है। जितना संभव था उतना उसमें ठूंस-ठूंसकर भरा गया। जिसके परिणामस्वरूप नया कवि गीतों को अच्छी दृष्टि से न देखकर उससे घणा का भाव रखने लगा है। उन गीतों को आज के लिए अनावश्यक तथा अपर्याप्त स्वीकारने लगा है।
- गीत की इन व्यावहारिक सीमाओं के कारण उसकी मौलिक शक्तियों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, किंचित इन्हीं शक्तियों के कारण बहुत से अच्छे नए कवि गीतकार भी हैं। उनके गीतों की तरलता, अनुभूति सघनता और प्रभावान्विति का से प्रभाव उनकी नई कविताओं पर भी पड़ता है। प्रचलित रंगमंचीय अश्लील एवं भद्दे गीतों से अलग करने के लिए इन गीतों को नवगीत कहा गया है।
समसामयिक गीतकारों में प्रमुखतः
- अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, जगदीश गुप्त, शंभू नाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, केदार नाथ सिंह, रवींद्र भ्रमर तथा वीरेंद्र मिश्र आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
- इन सभी गीतकारों का अपना-अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है किंतु इनके गीतों की एक सामान्य भूमि भी है। अनुभूति की सच्चाई, अनुभूति की अपनी-अपनी विशिष्टता, नवीन सौंदर्य बोध, आकार लघुता, नवीन बिंब- प्रतीक उपमान योजना इनकी सामान्य विशिष्टता है। इसलिए ये गीत प्रभावान्विति की दष्टि से अंतर्दीप्त प्रतीत होते हैं। इन सभी गीतों में लोकजीवन का आनंद है। इस अर्थ में नहीं कि इन्होंने प्रचलित गीतों की भांति लोकभाषा से अपने गीतों 'दूध-बताशा', 'पनघट', 'वंशीवट', 'चुनरिया' तथा 'ओढनिया' आदि अनेक शब्दों को चुना है अपितु इसलिए कि इसमें इन्होंने लोक जीवन की वस्तु योजना को पकड़ा है। उसकी संवेदना को स्वीकारा है।
- ये गीत जिस भूमि पर उत्पन्न हुए हैं उस भूमि के रसगंध को अपने में समेटे हुए हैं हैं। इसलिए इन गीतों में नागरिक, ग्रामीण, व्यक्तिगत, सामाजिक प्रेम की प्रेमेत्तर प्रकार की संवेदनाओं के भिन्न-भिन्न स्वरूप कवियों के व्यक्तित्वों एवं मानस संस्कारों के अनुसार लक्षित होते हैं।
- नव गीत में रस का बासीपन सा सड़ांध नहीं होती है अपितु अंतर की दमक होती है। इन गीतों की उपलब्धि इनके तरल, सरल, रसमय, उच्छल प्रवाह और आवेगों में नहीं है अपितु इनकी बुद्धि संयत हार्दिकता, संवेदना के अनुभूत स्तरों में नियोजन, एक विशेष प्रभाव भूमि के अंतर्गत आने वाले बिखरे किंतु एक दूसरे से संक्रमित बोधों के संश्लेषण और अनुकूल बिंबो प्रतीकों और लाक्षणिक प्रतीकों की खोज में हैं। कवि अपने अपने संस्कारानुसार इस सामान्य भूमि पर नूतन बिंब प्रतीकों का विधान करते हुए चले हैं।
- नवगीत के अंतर्गत प्रयोगवादी एवं नई कविता के अधिकांश कवि आ गए हैं। कवि की प्रतिभा इसी में है कि वह इन्हें नव संदर्भों में जांच-परखकर नवगीत की संरचना करे। नवगीत के प्रयोजन को रसानुभूति नहीं कहा जा सकता है। अनुभूति को नकारा नहीं जा सकता है। साधारणीकरण का रूप बदल गया है। आज पहले की भांति सामान्य प्रतीतियां नहीं है जिनमें सभी लोग सांझी हो सकें। विभक्त प्रतीतियों के समय में प्रेषणीयता का कार्य पर्याप्त कठिन हो गया है। नवगीत में प्रेषणीयता अनिवार्य तत्व है। नवगीत में पुरानी काव्य-रूढ़ियां भी मिलेगी, पर युगीन संदर्भ से युक्त होने के कारण वह नव होकर रूढ़ि मुक्त हो गया है। परंपरा से कटकर लिखे गद्य नव गीत की संपक्तता सर्वथा संदिग्ध है। परंपरा को नया संदर्भ देना उसे जीवंत बनाना है।
गीत विहीन जीवन शुष्क एवं नीरस हो जाता है। गीत के भाव सीधे हृदय से आते हैं।
नवगीत को नव्य गीत या नए गीत की परिभाषा
महादेवी वर्मा ने नवगीत को परिभाषित करते हुए लिखा है-
"सुख-दुख की भावावेशमयी अवस्था विशेषकर गिने-चुने शब्दों में स्वर साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है। साधारण गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र और सुख दुखात्मक अनुभूति का वह शब्द रूप है जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके।"
- गीत का संबंध मानव के अंतस्तल से होता है जो सुख-दुख से प्रेरणा प्राप्त करके तीव्रतम भावों की अभिव्यक्ति करता है। वहीं भाव संगीत के साथ लयबद्ध होकर गीत कहलाते हैं। प्रायः सभी कालों में गीत की संरचना हुई है किन्तु नई कविता के बाद के नवगीत उन सबसे अपना अस्तित्व भिन्न बनाए हुए हैं। परंपरा से अपने को मुक्त करके इन्होंने अपना संबंध जन-जीवन से जोड़ा है।
- गीतकारों ने आधुनिक गीत को नया भावबोध तथा विस्तत आयाम प्रदान किया है जिसमें सर्वसाधारण मानव के जीवन संघर्षो का चित्रण किया गया है। निराला के गीतों में नवगीत का आरंभिक स्वरूप देखने को मिलता है। छायावाद युग में ही नवगीत का बीजवपन हो चुका था। नवगीत आंदोलन नहीं अपितु विकास की परंपरा है।
- नवगीतकारों ने गीत को छायावादी गीत से बाहर निकाला है तथा समष्टि के यथार्थ एवं परंपरागत सौंदर्य से निकालकर नए सौंदर्य से भंडित किया है।
नवगीत के प्रमुख गीतकार-
- गीतकारों में हरिवंश राय बच्चन, रामेश्वर शुक्ल अंचल, गोपाल सिंह नेपाली, नरेन्द्र शर्मा, नीरज, जानकी वल्लभ शास्त्री तथा सोम ठाकुर आदि प्रमुख हैं। नवगीत बीसवीं सदी के छठे दशक की देन है।
- सन् १६५८ ई. में राजेन्द्र सिंह ने मुजफ्फरपुर बिहार से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'गीतांगिनी' में इन गीतों को नवगीत' नाम से विभूषित किया। वैमत्य के होते हुए राजेन्द्र सिंह को 'नवगीत' का प्रवर्तक स्वीकारा गया।
- नवगीत के बीज छायावादोत्तर गीत लेखन में अर्थात् बच्चन, भगवती चरण वर्मा एवं रामेश्वर शुक्ल अंचल में खोजे जा सकते हैं। इसके बाद यह गीतधारा, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद के गीतकारों के कंठों को सुसज्जित करती हुई नई कविता धारा में पहुंच गई तथा पंत, निराला, केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन शास्त्री, अज्ञेय, शंभूनाथ सिंह, धर्मवीर भारती, भवानी प्रसाद मिश्र आदि का सानिध्य प्राप्त किया।
नवगीतकारों को चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है
नवगीत की भाव चेतना के आधार पर नवगीतकारों को चार वर्गों
में विभाजित किया जा सकता है-
(i) आधुनिकता बोध संपन्न
आधुनिकता की प्रवत्ति निम्नलिखित गीतकारों में दष्टिगोचर होती है। ओम
प्रभाकर, सोम ठाकुर, भगवान स्वरूप नईम, विनोद गौतम, विजय किशोर, डॉ. सुरेश, राजेन्द्र गौतम, उमा शंकर तिवारी, राम चन्द्र भूषण
कुमार रवींद्र, शंभू नाथ सिंह, श्री कृष्ण तिवारी, राम सेंगर तथा
अमर नाथ।
(ii) लोक बोध सम्पन्न -
- ठाकुर प्रसाद सिंह, दिनेश सिंह, अनूप अशेष, सुधांशु उपाध्याय, गुलाब सिंह, अखिलेश कुमार आदि।
(iii) प्रकृति बोध सम्पन्न-
- देवेन्द्र कुमार ठाकुर प्रसाद सिंह, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, अनूप अशेष तथा गुलाब सिंह आदि
(iv) जातीय बोध सम्पन्न
- उमाकांत मालवीय, देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र', सोम ठाकुर, शंभूनाथ सिंह, राधे श्याम शुक्ल तथा नीरज आदि ।
"नवगीत" के
संदर्भ में सोम ठाकुर ने लिखा है
- 'नवगीत सामाजिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं के नग्न चित्र प्रस्तुत करता है परन्तु वह उसे निरीह नग्न रूप में अकेला नहीं छोड़ता, वरन् उसके शरीर पर उभरे हुए अनेक घावों का वैद्य बनकर रोगी की मरहम पट्टी करता है तब उसमें दिखावा, बनावटीपन एवं कृत्रिमता लेशमात्र भी दिखाई नहीं देती। उसने पूर्व के गीत से चली आ रही विसंगति पर खुलकर चोट की, उसके पारंपरिक ढांचे को ध्वस्त किया और नवीन जीवन दष्टि लेकर जनसाधारण के बीच खड़ा होकर दैनिक समस्याओं का सामना किया है। "
सोम ठाकुर ने आगे लिखा है
- "नवगीत का कथ्य हमारे देश की निजी, कड़वी-मीठी संवेदनशीलता का आसव है और उसका शिल्प निजी अभ्यासों के अनुकूल अपनी मिट्टी की नई तराश और पकड़ की गुंजाइश का पात्र, जिसके सर्जक की कसौटी में स्वयं का व्यक्तित्व स्पष्ट निजता के साथ ध्वनित हो रहा है। यह सार्वजनिक निजता ही नवगीत का परस्तरित सेतुबंध है।"
- नवगीत में सामाजिक यथार्थ का निरूपण, नगरी एवं महानगरीय परिवेश का चित्रण व्यवस्था का विरोध, बौद्धिकता की प्रधानता, ग्रामीण एवं आंचलिक चित्रण प्रेम एवं श्रंगार की अभिव्यक्ति, राष्ट्रचेतना का चित्रण आदि विशेषताएँ पाई जाती हैं।
डॉ. कुंवर बेचैन ने नवगीत के शिल्प के विषय में लिखा है
- "आकार-प्रकार में सक्षिप्त गेयता को सुरक्षित रखने वाली उस काव्यविद्या को नवगीत कहेंगे, जिसमें सामाजिक यथार्थ की छाया में वैयक्तिक अनुभूतियों को ताजे टटके प्रतीकों, बिंबों एवं ऐसी नई शब्दावली में अभिव्यक्त किया जाता है, जिसमें समसामयिक बोध की दीप्ति बलवती है। अनुकृति की सच्चाई, रागात्मकता की चमक, नवीन लाक्षणिक प्रतीकों की खोज, सामाजिक यथार्थ से व्यक्ति की समझ का टकराव, रचनात्मक स्तर पर जड़ परंपराओं का विरोध, भाव और विचारों का समन्वय ऐसे तत्व हैं। जिनकी छाया में नवगीतों को पहचाना जा सकता है।"
संक्षेप में कहा जा सकता है कि नवगीत पारंपरिक गीतों से
भिन्नता में विशेष रूप से पहचाना जाता है। शब्दों का चयन ग्रामीण अंचल एवं नागरिक
परिवेश से किया जाता है। वस्तु पक्ष की भांति ही नवगीत का शिल्पपक्ष भी अति
विशिष्टता एवं व्यापकता लिए हुए है।