निबंध उद्भव एवं विकास (Nibandh ka udbhav evam vikas)
निबंध उद्भव एवं विकास
- हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में हिंदी निबंध का आविर्भाव हुआ। इससे पूर्व गद्य का विकास नहीं हुआ था। निबंधों के प्रचार-प्रसार के साधनों- मुद्रण यंत्र, पत्र-पत्रिकाओं का प्रचलन आधुनिक युग में हुआ है। भारतेंदु युगीन 'हरिश्चन्द्र चंद्रिका, ब्राह्मण, सार सुधा निधि, प्रदीप आदि के प्रकाशन ने निबंध के विकास में अत्यधिक योगदान किया।
निबंध साहित्य के विकास काल
- प्रो. जय नाथ नलिन ने भारतेन्दु युग से आज तक के निबंध साहित्य के विकास काल को (1) भारतेंदु युग (2) द्विवेदी युग (3) प्रसाद युग तथा (4) शुक्लोत्तर युग चार युगों में बांटा है।
- प्रसाद ने निबंध अवश्य लिखे हैं किंतु निबंध विधा में उनका इतना महत्व नहीं है कि उनके नाम पर युग का नामकरण किया जाए। 'नलिन' ने निबंध का चरमोत्कर्ष करनेवाले तथा निबंध की पराकाष्ठा तक उसे पहुंचाने वाले शुक्ल की उपेक्षा की है। शुक्ल युग विभाग या युग न बनाकर शुक्लोत्तर युग का नामकरण किया है जो वैज्ञानिक एवं उचित प्रतीत नहीं होता है। निबंध काल को (1) भारतुंदु युग (2) द्विवेदी युग (3) प्रसाद युग (4) शुक्ल युग तथा (5) शुक्लोत्तर युग नामकरण करके निबंध के विकास का विवेचन औचित्य पूर्ण होगा।
1. भारतेन्दु युग के निबंध और निबंधकार
भारतेंदु युग (संवत् 1930 से 1960 वि.) के प्रमुख निबंधकारों में भारतेंदु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमधन', प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त तथा राधाचरण गोस्वामी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
भारतेंदु हरिश्चन्द्र और उनके निबंध
- भारतेन्दु मात्र निबंधकार ही नहीं अपितु साहित्यकार के विराट् रूप थे उन्होंने कविता, काव्य, नाटक, निबंध एवं आलोचना आदि अनेक विधाओं पर सफल लेखनी उठाई है। सभी रूपों का विकास ही नहीं किया अपितु उनमें उन विशेषताओं एवं प्रवत्तियों का समन्वय भी किया जो युगीन संभावना थी। कविता एवं नाटक की तरह उनके नाटकों का क्षेत्र अति व्यापक था। इतिहास, धर्म, राजनीति, समाज, आलोचना, खोज, यात्रा, आत्म चरित प्रकृति वर्णन तथा व्यंग्य विनोद आदि सभी विषयों को निबंध में स्थान दिया। उनके प्रमुख निबंध, उदयपुरोदय, काश्मीर कुसुम, बादशाह दर्पण तथा काल चक्र आदि हैं। निबंधों में साहित्य- मनीषी की सूक्ष्म दृष्टि से अवगत हो जाते हैं। अन्य निबंध वैद्यनाथ धाम, हरिद्वार तथा सरयूपार की यात्रा आदि में भारतीय संस्कृति एवं भारतभूमि के प्रति अगाध प्रेम दष्टिगोचर होता है। प्रकृति सौंदर्य का वर्णन द्रष्टव्य है
- "ठंडी हवा मन की कला खिलाती हुई बहने लगी। दूर से घानी और स्याही रंग के पर्वतों पर सुनहरापन आ चला कहीं आधे पर्वत बादलों से घिरे हुए कहीं एक साथ वाष्प निकलने से उनकी चोटियां छिपी हुई और चारों ओर से उन पर जलधारा पात से बुक्के ही होली खेलते हुए बड़े ही सुहावने मालूम पड़ते थे।
- यात्रा संबंधी निबंधों में यात्रा के कष्टों का अनुभव करते हुए भारतीय जनता के प्रति सहानुभूमि की अभिव्यक्ति पर्वतीय प्रवाहिनी
के समान बीच-बीच में पत्थरों एवं वन प्रांत की झाड़ियों से निकलकर शीतलता प्रदान करने लगती है। "गाड़ी भी ऐसी टूटी-फूटी जैसे हिन्दुओं की किस्मत और हिम्मत अब तपस्या करके गोरी गोरी कोख में जन्म लें तब ही संसार में सुख मिले।"
- भारतेंदु के अन्य निबंधों में सामयिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं पर तीखा व्यंग्य किया गया है ऐसे निबंधों में लेवी प्राण लेवी, ज्ञाति विवेकिनी सभा, स्वर्ग में विचार सभा अधिवेशन, अंग्रेज स्रोत, पांचवें पैगंबर तथा कंकड़ स्रोत आदि प्रमुख हैं।
- कंकड़ स्रोत की कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं। कंकड़ को प्रणाम है। देव नहीं महादेव, क्योंकि काशी के कंकड़ शिव शंकर के समान हैं........आप अंग्रेजी राज्य में भी गणेश चतुर्थी की रात को स्वच्छंद रूप से नगर में भड़ाभड़ लोगों के सिर पर पड़कर रुधिर धारा से नियम और शांति का अस्तित्व बहा देते हो। अतएव हे अंग्रेजी राज्य में नवाबी संस्थापक! तुमको नमस्कार है।" यहां हिंदुओं की मूर्तिपूजा, बहुदेवोपासना तथा अंग्रेजी राज्य की शांति व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया गया है।
- भारतेंदु के निबंधों में विषयानुसार भाषा शैलियों का वैविध्य दष्टिगोचर होता है। उनकी भाषा में मार्मिक अभिव्यंजना, वाम्वैदग्ध्य, सजीव अनेकरूपता, आकर्षक स्वच्छता एवं सरलता विद्यमान है जिसमें कहीं स्वाभाविक अलंकार योजना है, कहीं संगोष्ठी वार्तालाप का स्वरूप विद्यमान है। उनके आलोचनात्मक निबंधों में नाटक एवं वैष्णवता और भारतवर्ष प्रमुख हैं जिसमें भाषा अत्यंत प्रौढ़ एवं प्रांजल है। किन्तु उसमें दुरुहता, दुर्बोधता कृत्रिमता एवं समासात्मकता नहीं दिखलाई पड़ती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि विषय एवं भाषा शैली दोनों दृष्टियों से भारतेंदु के निबंधों का अत्यधिक महत्त्व है।
बालकृष्ण भट्ट
- बालकृष्ण भट्ट भारतेंदु युगीन नाटककारों में बालकृष्ण भट्ट श्रेष्ठ हैं। भट्ट हिंदी प्रदीप के संपादक थे। उन्होंने विवरणात्मक, वर्णनात्मक, विचारात्मक तथा भावात्मक आदि सभी प्रकार के निबंध लिखे हैं। कुछ ऐसे निबंध भी लिखे जिनके शीर्षकों से विषय वस्तु का संज्ञान हो जाता है। ऐसे निबंधों में मेला-ठेला, वकील, सहानुभूति, आशा, खटका, रोटी तो किसी भांति कमाय खाय मुछंदर इंगलिश पढ़े तो बाबू होय, आत्म निर्भरता, शब्द की आकर्षण शक्ति तथा माधुर्य आदि प्रमुख हैं। भट्ट के निबंधों में वैचारिक मौलिकता, विषय वैविध्य, तथा शैली का आकर्षण आदि सभी गुण विद्यमान हैं।
प्रताप नारायण मिश्र
- प्रताप नारायण मिश्र ब्राह्मण' के संपादक थे। इन्होंने विभिन्न विषयों को निबंध का विषय बनाया। कभी उन्होंने शारीरिक अंगों -भौं, दांत, पेट, मूंछ, नाक आदि को अपने निबंधों का विषय बनाया एवं उन पर सफलतापूर्वक निबंध लिखे। कभी उन्होंने प्रताप चरित, वद्ध, दान, जुआ तथा अपव्यय जैसे विषयों पर निबंध लिखे। उनके अन्य निबंध ईश्वर की मूर्ति, नास्तिक, शिवमूर्ति, सोने का डंडा, तथा मनोवेग आदि प्रमुख हैं। समझदार की मौत है धूरे क लत्ता बिनै कनातन क डोरी, होली है होरी है, होरी है जैसी उक्तियों को आधार बनाकर निबंध रचना की। मिश्र के निबंधों में मुहावरों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं तो वे एक वाक्य में ही मुहावरों की झड़ी लगा देते हैं। मुहावरेदार भाषा मात्र बात पर आधारित मुहावरों की झड़ी अवलोकनीय हैं-
- "डाकखाने अथवा तारघर के सहारे से बात की बात में चाहे जहां की बात हो, जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात जमती है, बात उखड़ती है। बात खुलती है, बात छिपती है, बात चलती है, बात उड़ती है।"
हिंदी निबंधकार के निबंध में उद्धृत उद्धरण इनकी निबंध संबंधी विशेषताओं पर पूर्ण प्रकाश डालता है -
- "भाषा में स्खलन, शैली में घरूपन, और ग्रामीणता, चंचलता और उछलकूद मिश्र जी की विशेषता है। भाषा संबंधी दोष जहां तहां लापरवाही से बिखरे पड़े हैं। कहीं-कहीं वाक्य का विलक्षण और दुर्बोधरूप भी मिलता है। उर्दू के एक-दो शब्द भी परदेशी की तरह डरे-डरे से दीख पड़ते हैं। तेग अदा कमाने, अव निहायत आदि भौं में मिल जाएंगी पर केवल इन्हीं तक में दूसरे में कुछ नहीं, फिर क्यों इनकी निंदा की जाए? का अर्थ टेढ़ी खीर है। विराम चिन्ह तब प्रयुक्त ही अधिक नहीं होते थे। इन्होंने उनका जैसे बहिष्कार ही कर रखा हो। इनके अभाव में वाक्य कभी कभी इतना लंबा हो जाता है कि समझने में उसे बार-बार पढ़ना पड़ता है।"
बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमधन'
- बदरी नारायण चौधरी प्रेमधन' भारतेंदु के मित्र थे। इन्होंने आनंद कादंबिनी (मासिक) तथा नागरी नीदर (साप्ताहिक) दो पत्रों का संपादन किया जिनमें उनके अनेक निबंधों का प्रकाशन हुआ। इनमें प्रकाशित निबंधों में हिंदी भाषा का विकास परिपूर्ण प्रवास तथा उत्साह आलंबन आदि प्रमुख हैं। प्रेमधन की भाषा आलंकारिक, कृत्रिम तथा चमत्कारी है जिसमें इन्होंने अधिक-से-अधिक चमत्कार उत्पन्न करने का प्रयास किया है। प्रेमधन की भाषा सदैव दलदल में फंसी रही है।
बालमुकुंद गुप्त
- बाल मुकुंद गुप्त भारतेंदु युग एवं द्विवेदी युग को जोड़ने वाली कड़ी हैं। इन्होंने बंगवासी तथा भारत मित्र का संपादन किया। गुप्त जी के अनेक निबंध इन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। उनके निबंधों में परराष्ट्रीय शासकों की नीति एवं अत्याचार पर मीठा, चुभता हुआ व्यंग्य किया गया है। शिव शंभु के उपनाम से उन्होंने अनेक निबंध लिखे। जिसमें शिव शंभू का चिट्ठा को अत्यधिक ख्याति मिली। इसमें लार्ड कर्जन को संबोधित करते हुए भारतवासियों की राजनीतिक विवशता को चित्रित किया गया हैं कहीं-कहीं उनके व्यंग्य में अति तीखापन आ गया है। होली के अवसर लिखे गए चिट्टे में उन्होंने लिखा है-
- "कृष्ण हैं उद्धव हैं, पर ब्रजवासी उनके निकट भी नहीं फटक पाते। सूर्य है, धूप नहीं। चन्द्र है, चांदनी नहीं माई लार्ड नगर में ही हैं पर शिव शंभू उनके द्वार तक नहीं फटक सकता है। उनके घर चल होली खेलना तो विचार ही दूसरा है। माई लाई के घर तक बात की हवा तक नहीं पहुंच सकती। . माई लॉर्ड के मुख चंद्र के उदय के लिए कोई समय भी नियत नहीं है।"
राधाचरण गोस्वामी
- राधा चरण गोस्वामी के निबंध व्यंग्य से ओत-प्रोत हैं। उन्होंने तत्युगीन समाज की कुरीतियों एवं बुराईयों पर तीखा व्यंग्य किया है। राधा चरण गोस्वामी धार्मिक अंध विश्वासों पर चोट करते हैं तो उनका व्यंग्य कबीर के दोहों से अधिक प्रभावोत्पादक हो जाता है। कबीर के व्यंग्यों में कटुता एवं खापन है जिसके से उतरते ही लकीर खिंच जाती है। जबकि गोस्वामी के व्यंग्य शहद में डूबे या होमियोपैथिक औषधि हैं तथा हंसी लिपटे एवं कल्पना से रंगीन हैं। यमपुर की यात्रा लेख में वैतरणी पार करते करते समय लेखक को वहां प्रधान ने रोक लिया, पूछा क्या तुमने गोदान किया है? तब लेखन उत्तर देता है "साहब प्रथम प्रश्न तो सुन लीजिए, गोदान का कारण क्या? यदि गौ की पूंछ पकड़कर पार उतर जाते हैं, तो क्या बैल से नहीं उतर सकते? जब बैल से उतर सकते हैं, तो कुत्ते ने क्या चोरी की है?" लेखक ने किसी साहब को कुत्ता दान में दिया था। इसी से वह 'वैतरणी पार का पासपोर्ट बनवा लेना अपना अधिकार समझता है।"
- भारतेंदुयुगीन सभी निबंधकारों में व्यष्टि समष्टि का समन्वय विद्यमान है। निबंधों के विषय क्षेत्र में वैविध्यता एवं व्यापकता है। हास्य व्यंग्य सोद्देश्य है जो कि सामाजिक या राजनीतिक व्यवस्था पर प्रहार करना है। जटिल-से-जटिल विषयों को इस युग के निबंधकारों ने सरल सुबोध एवं मनोहारी शैली में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा शैली में भाषिक एवं व्याकरणिक शुद्धता भले ही न हो किंतु सहृदय को गुदगुदाने, उसके मस्तिष्क को झंकृत करने तथा उसकी आत्मा को स्पर्श करने में उसे पूर्ण सफलता मिली है। उनके निबंधों में शुष्कता एवं वैज्ञानिकता नहीं है। साहित्यिक आदर्श कोटि के निबंध हैं जिनसे विचारों के साथ-साथ भावनाओं का भी उदवेलन होता है जिनसे केवल ज्ञान की ही वद्धि नहीं होती अपितु रसानुभूमि की प्राप्ति भी होती है।