प्रगतिवाद काव्य की उत्पत्ति एवं विशेषताएँ
प्रगतिवाद काव्य
- छायावाद का व्यष्टिगत दृष्टिकोण उसके हास एवं पतन का प्रधान कारण था क्योंकि महादेवी वर्मा के शब्दों में वह "वष्टगत सत्य की समष्टिगत परीक्षा में अनुत्तीर्ण रहा था। साथ पंत के शब्दों में "छायावाद के शून्य सूक्ष्म आकाश में अति काल्पनिक उड़ान भरने वाली अथवा रहस्य के निर्जन अदश्य शिखर पर विराम करने वाली कल्पना को जन जीवन का सच्चा मित्र अंकित करने के लिए "एक हरी भरी ठोस जनपूर्ण धरती की आवश्यकता थी।
- प्रगतिवाद उपर्युक्त व्यष्टिगत भावना की अवहेलना कर समष्टिगत स्वरूप को लेकर आगे बढ़ा और उसने "अति काल्पनिक उड़ान भरने वाली" कल्पना को "एक हरी भरी ठोस जनपूर्ण धरती पर उतार कर उसे जन-जीवन का चित्रण करने के लिए प्रेरित किया।
- जिस समय छायावाद अपने व्यष्टि की साधना में तन्मय, जगत की वास्तविकता की ओर से आंखें बंद करके आत्म विभोर होकर आगे बढ़ा जा रहा था उसी समय जगत की नग्न वास्तविकता, "रोटी का राग" और "क्रांति की आग लिए प्रगतिवाद आगे आया तथा उसने झकझोर कर साहित्यकार को एक नवीन समस्या, एक नवीन चेतना का आलोक दिखाया। उसने छायावाद की अति सूक्ष्म काल्पनिक भावनाओं का विरोध कर उसे स्थूल जगत की कठोर वास्तविकता के समक्ष खड़ा कर दिया। कुछ लोगों की मान्यता है कि प्रगतिवाद विचारधारा की देन है।
प्रगतिवाद काव्य का प्रारम्भ
- इसका प्रारंभ सन् 1936 ई. में लखनऊ में होने वाली प्रगतिशील लेखक संघ' की पहली बैठक से हुआ। सन् 1936 ई. में सज्जाद जहीर और डॉ. मुल्क राज आनंद के प्रयत्नों से भारत वर्ष में भी इस संस्था की शाखा की स्थापना हुई। लखनऊ का अधिवेशन प्रेम चन्द की अध्यक्षता में हुआ था।
- इससे एक वर्ष पूर्व ही सन् 1935 ई. में पेरिस में ई. एम. फार्स्टर के सभापतित्व में "प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन" नामक अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अधिवेशन हुआ था। इस वर्ष तक साम्यवादी या समाजवादी आंदोलन का श्रीगणेश हुआ।
- इससे एक वर्ष पूर्व सन् 1935 ई. में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ। गांधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था। युवा हृदय अपनी विद्रोही भावना की अभिव्यक्ति हेतु साधन की तलाश में था।
- गांधीवादी विचारधारा में अहिंसावादी सिद्धांतों से असंतुष्टों का विकास हो रहा था। अधिक उग्र वैचारिकता वालों का उग्र आचरण में विश्वास था। अहिंसावादी गांधी ने हिंसा के डर से अनेक बार जन आंदोलन को रोक दिया था। उमड़ता हुआ जन-जीवन सहज रूप से इसे स्वीकार नहीं कर पाता था। मजदूरों का आंदोलन भी बढ़ता जा रहा था। शनैः शनैः राजनीति में वामपंथी शक्तियों का जोर बढ़ने लगा।
- समसामयिक परिवेश, वैचारिक उग्रता तथा समाजोन्मुखता को बल दे रहा था। राजनीतिक दासता में एक ओर पूंजीवाद और सामंतवाद की शोषण प्रवत्ति को बढ़ावा मिल रहा था और दूसरी ओर जन-सामान्य के लिए भयावह गरीबी, अशिक्षा, असुविधा और अपमान अपना प्रबल रूप धारण करता जा रहा था। इसके अतिरिक्त अकाल एवं युद्ध की भीषण विभीषिकाएं देश को निगलती चली जा रही थीं।
- द्वितीय महायुद्ध और बंगाल अकाल देश का बेड़ा गर्क करने वाली भयानक घटनाएं थीं। युद्ध के दबाव में जनता अत्यधिक आक्रांत हो रही थी। जगती हुई उग्र चेतना, रूस में स्थापित समाजवाद तथा पश्चिम के अन्य देशों में प्रचारित कम्युनिज्म के सिद्धांतों से उत्पन्न विश्वव्यापी प्रभाव के फलस्वरूप भारत में प्रगतिवाद का उदय हुआ।
- 'प्रगतिवाद' रचना एवं आलोचना के क्षेत्र में सर्वथा नवीन दष्टिकोण लेकर आया। प्रगतिवाद सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति को ही रचना का उद्देश्य स्वीकारता है। प्रत्येक युग में यथार्थ की दो शक्तियों का द्वंद्व चलता रहता है - मरणोन्मुख पुरानी शक्तियों और नवीन जीवंत शक्तियों का सामाजिक स्तर पर पुरानी शक्तियों में शोषक होते हैं तथा नवीन शक्तियों में शोषित गरीब, किसान मजदूर होते हैं। किसान-मजदूर शोषित का अंत कर नवीन जन मंगलशाली समाज की स्थापना हेतु प्रयत्नशील रहते हैं।
- शोषक-शोषित संघर्ष सनातन है सदियों से चलता आया है चल रहा है और अनादि काल तक चलता रहेगा। नवीन शक्तिया वैयक्तिक नहीं अपितु समष्टिगत होती हैं। उनमें पीड़ा और अभाव के साथ जीवनसंघर्ष, अडिग विश्वास और भविष्य की दिव्य आकांक्षा विद्यमान रहती है। अनेक बुनियादी तत्वों को ग्रहण करने वाला सच्चा यथार्थवादी है। ऐसा साहित्ययुगीन वास्तविक का सच्चा प्रतिनिधि होता है।
- कुछ लोग प्रगतिवाद के जन्म में भारतीय परिवेश को न मानकर रूसी कम्युनिस्टों का प्रचार मात्र मानते हैं उनकी भूल है क्योंकि हमारा साहित्य का इतिहास यह प्रमाणित करता है कि हमारे साहित्य की कोई भी विचारधारा ग्रियर्सन की भक्तिधारा' के समान एकाएक न तो उत्पन्न होती है न कोई भी विदेशी प्रभाव उसे इतना लोकप्रिय एवं सशक्त बना सकता है।
- प्रत्येक विचारधारा अपने स्वतंत्र रूप से क्रमशः विकसित होती हुई अग्रसर होती है। सामयिक परिवेश, युग की मांग के अनुरूप, उसका 3स्वरूप निश्चित करते हुए उसे निरंतर आगे बढ़ाती रहती है जो विचारधारा जन-मन से अनुप्राणित न होकर मात्र किसी विदेशी साहित्य की नकल के आधार पर आगे बढ़ती है उसका वही परिणाम होता है जो हालावाद का हुआ था। हालावाद' मात्र चार वर्ष ही जीवित रह सका।
- प्रगतिवाद युग की पुकार है। इसकी उत्पत्ति एकाएक न होकर या रूसी प्रभाव से न होकर बहुत पहले से चली आती हुई असंतोष और विद्रोह की भावनाओं का स्वाभाविक प्रतिफलन है। इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य की अन्य धाराओं के समान इस पर विदेशी प्रभाव भी दष्टिगोचर होता है। किन्तु इस प्रभाव ने उसके स्वरूप को अधिक उन्नत, स्वस्थ एवं सशक्त बनाया है।
- प्रगतिवादी विचारधारा रूस की बपौती न होकर विश्वव्यापी असंतोष की वाणी है। भारत में यह विचारधारा अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध बहुत पहले से चली आ रही थी जिसका स्वरूप अनुकूल परिवेश पाकर अब अधिक स्पष्ट और मुखर हुआ है जो भावी युगों हेतु प्रेरणा स्रोत होगा।
- प्रगतिशील साहित्य समाज के युगीन संबंधों को त्यागकर हवा में शाश्वत महल का निर्माण करने वाले साहित्य को नकली एवं निर्जीव मानता है। यदि कोई शाश्वत वस्तु है तो यही नवीन सामाजिक मानवता जो सदैव पुरानी और जर्जर शक्तियों से युद्ध करती है। आज के युग में बुनियादी शक्तियां वे हैं जो पूंजीवाद को नष्ट कर समाजवाद की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील हैं। इसका समर्थक साहित्य अनिवार्य रूप से किसानों, मजदूरों के संघर्ष को रूपायित कर उसे बल प्रदान करता है तथा पूंजीवादी या सामंतवादी शक्तियों की शोषक, स्वार्थी, स्वकेंद्रित, जर्जर विसंगतिमय प्रवत्तियों पर करारी चोट करता है।
- प्रगतिवाद ने सौंदर्य का नवीन स्वरूप निर्मित किया है। वह वर्तमान जनजीवन में वास्तविक सौंदर्य की अन्वेषणा करता है। सौंदर्य का संबंध हमारे हार्दिक आवेगों और मानसिक चेतना से होता है। प्रगतिवादी कवि नए उदीयमान समाज में सौंदर्य का दर्शन करेगा। सौंदर्य का दर्शन करने के लिए अतीत या कल्पना लोक में गोता न लगाएगा सौंदर्य जीवन है।
- प्रगति साहित्य को सोद्देश्य स्वीकारता है। उद्देश्य सहित होने का अर्थ किसी विशेष अभिप्राय या किसी विशेष दृष्टि से कला का सजन करना है। प्रगतिवाद का मुख्य उद्देश्य कुरुप, शोषक, सड़ी-गली, विसंगतिग्रस्त शक्तियों पर से पर्दा हटाना एवं नई सामाजिक शक्तियों के संघर्षो युयुत्सा तथा आस्था को सबल बनाना है। साहित्य जनता का जनता के लिए चित्रण करता है। प्रसार साहित्य को प्रगतिवादी नकारता है। प्रचारवादी साहित्य अपने परिवेश से अलग होकर लाल सेना, लाल रूस एवं लाल चीन की प्रशंसा के गीत गाता है। प्रचार का एक दूसरा खतरा यह भी हुआ कि कवियों ने जन-जीवन से अपने को संबद्ध किए बिना ही जन-जीवन का गीत गाना प्रारंभ कर दिया। अनुभव के स्थान पर फार्मूला कविताओं की प्रेरणा बन गया।
- प्रगतिवादी कविता सामाजिक जीवन की वास्तविकता को लेकर चली है इसलिए जनता तक पहुंचना तथा जनता के जीवन की बात कहना उसका लक्ष्य बन गया। यही कारण है कि उसने छायावाद की वायवी, असामान्य रेशमी परिधान शालिनी सूक्ष्म भाषा का परित्याग कर सुस्पष्ट सामान्य प्रचलित भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। उसने प्रतीकों, शब्दों, मुहावरों तथा चित्रों का चयन जन-जीवन से किया है। इसलिए उसकी भाषा में सादगी होते हुए भी जीवंतता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रगतिवादी कवि छायावादी रंगीन कुहासे को तोड़कर विषम यथार्थ के धरातल पर आ गया है। या तुलसीदास का रूप धारण कर छायावादियों की संस्कृतनिष्ठता अर्थात् संस्कृत भाषा को छोड़कर हिंदी की बोलचाल की भाषा को अपने काव्य का विषय बनाया जैसे तुलसीदास ने अवधि में रामचरितमानस की रचना की।
- शैली सांकेतिक, और चित्तात्मक न होकर उपदेशात्मक हो गई है। इसीलिए काव्य का सौंदर्य निखार को प्राप्त नहीं कर सका। प्रगतिवाद ने अपनी सीमाओं के बावजूद हिंदी काव्य-धारा के विकास में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा है। उसने काव्य को वैयक्तिक यथार्थ के बंद कमरे से निकालकर जनजीवन के मध्य प्रवाहित कर दिया है। जीवन और साहित्य के मूल्य, सौंदर्य बोध तथा लक्ष्य को समाज के यथार्थ और उसकी रचना से संबद्ध किया, भाषा को कुहरे से निकालकर मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित किया। प्रगतिवादी काव्यधारा के कवियों में पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, केदार नाथ अग्रवाल, रामविलास शर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन, त्रिलोचन तथा मुक्तिबोध आदि प्रमुख हैं।