प्रसाद युग के नाटक और नाटककार
प्रसाद युग के नाटक और नाटककार
- प्रसाद युग आधुनिक हिंदी नाट्य साहित्य में भारतेंदु के पश्चात् सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी ऐतिहासिक नाटककार जयशंकर प्रसाद हैं। इन्होंने जितनी ख्याति काव्य की विभिन्न विधाओं के सकल सजन में प्राप्त की।
- नाटक, कहानी तथा उपन्यास सभी विधाओं में सफल लेखनी उठाकर हिंदी गद्य साहित्य को समृद्ध बनाया।
- जयशंकर प्रसाद ने एक दर्जन से अधिक नाटकों की सजना की इनके नाटकों में सज्जन' 1910 ई. कल्याणी परिणय' 1912 ई.. 'करुणालय' - 1913 ई.. 'प्रायश्चित' 1914 ई. 'राज्य श्री' 1915 ई. 'विशाख' 1921 ई. 'अजात शत्रु' 1922 ई. 'कामना' 1923 ई., जनमेजय का 'नाम यज्ञ' – 1923 ई. 'स्कंदगुप्त' 1928 ई. 'एक घूंट' 1929 ई., 'चंद्रगुप्त' 1931 ई. तथा 'ध्रुवस्वामिनी' – 1933 ई. आदि उल्लेखनीय हैं।
- भारतेंदु युगीन कवियों ने देश की दुर्दशा का वर्णन बारंबार अपनी रचनाओं में किया, जिससे प्रभावित होकर भारतीयों में करुणा, ग्लानि, दैन्य, एवं अवसाद की प्रबल भावनाओं का उदय हुआ ऐसी भावनाओं का भारतीयों में जन्मना अति स्वाभाविक था। साहित्यिक रचनाओं ने आग में घी का समावेश किया। ऐसे परिवेश एवं ऐसी मनःस्थिति में समाज एवं राष्ट्र विदेशी शक्तियों से संघर्ष करने की क्षमता खो बैठता है।
- प्रसाद ने देशवासियों में आत्मगौरव का संचार किया। जिसके लिए उन्होंने अपने नाटकों में भारत के अतीत के गौरवपूर्ण दश्यों को प्रतिस्थापित किया। यही कारण है कि उनके अधिकांश नाटकों का कथानक उस बौद्ध युग से संबंधित है जब भारत अपनी सांस्कृतिक पताका विश्व के अधिकांश देशों में फहरा रहा था। बौद्धधर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए महाराज अशोक ने अपने पुष्यमित्र पुत्र एवं पुत्री संमित्रा को विदेशों में भेजा था।
- प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति को प्रसाद ने अति सूक्ष्मता एवं सुनियोजित ढंग से प्रस्तुत किया है। उसमें मात्र तत्युगीन रेखाएं ही नहीं मिलती अपितु तत्कालीन वातावरण के सजीव अंकन की रंगीनी भी मिलती है।
- धर्म की बाह्य परिस्थितियों का चित्रण करने की अपेक्षा उन्होंने दार्शनिक आंतरिक गुत्थियों तथा समस्याओं को स्पष्टता प्रदान करना अधिक उचित समझा है। पात्रों का चरित्र चित्रण करते हुए परिवेशानुसार परिवर्तन एवं विकास का प्रतिपादन किया है।
- मानव चरित्र सत्-असत् दोनों पक्षों का पूर्ण प्रतिनिधित्व उनके नाटकों में मिलता है। नारी रूप को जैसी महानता, सूक्ष्मता, शालीनता, त्याग, बलिदान, ममता, सौहार्द, दया, माया एवं गंभीरता कवि प्रसाद ने प्रदान की है। उससे भी अधिक सक्रिय एवं तेजस्वी रूप नारी को नाटककार प्रसाद ने प्रदत्त किया है।
- प्रसाद ने प्रायः सभी नाटकों में किसी न किसी ऐसी नारी की अवतारणा की है जो पथ्वी के दुख पूर्ण अंधकार पूर्ण मानवता को सुखमय उज्जवल प्रकाश की प्रदायिनी बनी है। जो पाशविकता, दनुजता और क्रूरता के मध्य क्षमा, करुणा एवं प्रेम के स्थायी रूप की प्रतिष्ठा करती है और अपने प्रभाव विचारों तथा चरित्र के दुर्जनों को सज्जन दुराचारियों को सदाचारी, नशंस अत्याचारियों को उदार लोकसेवी बना देती है।
नारी तुम केवल श्रद्धातोविश्वरजत नग पग तल में,
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के इस समतल में।
- कामायनी
- प्रसाद की कामायनी की यह उक्ति प्रसाद के नाटक की दिव्य नायिकाओं को पूर्णतः चरितार्थ करती है। नाट्य शिल्प की दृष्टि से प्रसाद के नाटकों में पूर्वी एवं पश्चिमी तत्वों का अपूर्व सम्मिश्रण दष्टिगोचर होता है। प्रसाद के नाटकों में एक ओर भारतीय नाट्यशास्त्रानुसार कथावस्तु, नायक, प्रतिनायक, विदूषक, शील निरूपण, रस, सत्य और न्याय विजय की परंपरा का पूर्ण सफलता से पालन हुआ है दूसरी ओर पाश्चात्य नाटकों का संघर्ष एवं व्यक्ति वैचित्र्य का निरूपण भी उनकी रचनाओं में उसी तरह हुआ है।
- भारतीय नाट्य परंपरा की रसात्मकता इनमें प्रचुरता से है साथ-साथ पाश्चात्य नाटकों की सी कार्य व्यापार की गतिशीलता भी उनमें विद्यमान है। भारतीय नाटक सुखांत होते हैं। पाश्चात्य नाटककार दुखांत नाटकों को श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। प्रसाद ने नाटकों का अंत इस ढंग से किया है कि उसे सुखांत दुखांत दोनों की संज्ञा दी जाती है क्योंकि उन्होंने सुख दुखांतक नाटकों का सजन किया है। दूसरी दष्टि से उन नाटकों को न सुखांत कहा जा सकता है न दुखांत कहा जा सकता है।
- वास्तव में नाटकों का अंत एक ऐसी वैराग्य भावना के साथ होता है जिसमें नायक विजयी हो जाता है किंतु वह फल का उपभोग स्वयं नहीं करता है। उसे वह प्रतिनायक को ही प्रत्यावर्तित कर देता है। इस प्रकार नाटकों के विचित्र अंत को प्रसाद के नाम पर ही प्रसादांत कहा गया है।
- मंचन की दृष्टि से प्रसाद के नाटकों में आलोचकों को अनेक दोष दष्टिगोचर होते हैं। कथानक विस्तृत एवं विश्रंखल सा है कि उससे उनमें शैथिल्य आ गया है। उन्होंने ऐसी अनेक घटनाओं एवं दश्यों का आयोजन किया है जो मंचन की दष्टि से उपयुक्त एवं उचित नहीं दीर्घ स्वगत कथन एवं लंबे वार्तालाप, गीतों का आधिक्य, वातावरण की गंभीरता आदि बातें उनके नाटकों की अभिनेयता में अवरोधक सिद्ध होती हैं। वास्तव में प्रसाद नाटकों में कवि एवं दार्शनिक अधिक हैं. नाटककार कम हैं। उनके नाटक विद्वानों, ऋषियों, मनीषियों के चिंतन मनन की वस्तु हैं। जन साधारण के समक्ष उनका सफल प्रदर्शन नहीं किया जा सकता है इस तथ्य को प्रसाद में स्वयं व्यक्त किया है।
प्रसाद युग के अन्य नाटककार
- माखन लाल चतुर्वेदी, कृष्णार्जुन युद्ध, पंडित गोविंद वल्लभ पंत 'वरमाला' एवं 'राजमुकुट' आदि। पांडेय बेचन शर्मा उग्र- महात्मा ईसा', मुंशी प्रेम चन्द 'कर्बला' एवं संग्राम' आदि उल्लेखनीय हैं। ध्यातव्य है कि विषय एवं शैली की दृष्टि से इन नाटककारों में परस्पर थोड़ा बहुत अंतर अवश्य है। परिणामतः इन्हें नाटककार स्वरूप विशिष्टता विहीनता के कारण महत्व नहीं दिया जाता है।