प्रयोगवादी काव्यधारा की विशेषताएं (Pryogvaadi Kavya Dhara Ki Viseshtaayen)
प्रयोगवादी काव्य की विशेषताएँ (प्रवत्तियाँ)
'तारसप्तक' ने उसको समेकित रूप से एक निश्चित रूपाकार प्रदान किया तथा हिन्दी कविता के अन्तर्गत यह नव्य काव्यधारा प्रयोगवाद की संज्ञा से जानी गई है। प्रयोगवादी कविता प्रयोग पर आधारित थी।
प्रयोगवादी काव्यधारा की विशेषताएं
1. वैयक्तिकता
- प्रयोगवादी कविता में वैयक्तिकता की अभिव्यंजना अनेक रूपों में हुई है। सामान्य रूप में रचनाकार की यही आत्मानुभूति सर्वानुभूति बनकर साहित्य की संज्ञा धारण करती थी, और करती है, लेकिन सबसे पहले प्रयोगवादी काव्य में नितान्त व्यक्ति की अपनी अनुभूति और भावना अभिव्यंजित हुई है। प्रयोगवादी कवियों के अहं भाव से ही उनमें गहन वैयक्तिकता पैदा हुई है। वहाँ पर अहं एक सम्पूर्ण बाद के रूप में आया है।
कवि नरेश कुमार कहते हैं-
"विश्व के इस रेल वन पर
मैं अहं का मेघ हूँ
X X X
क्या नहीं तुम देखते?
आज मेरे कन्धों
पर गगन बैठा हुआ है। "
- अज्ञेय ने भी इस अहंनिष्ठ वैयक्तिकता को अपने काव्य में स्वर प्रदान किया है। अज्ञेय को इस बात का पूर्वाभास था कि प्रयोगवादी कवि जिस गहन वैयक्तिकता से परिधित हैं, वह उनका वरेण्य नहीं हो सकता है, जिससे उनको निकालना ही पड़ेगा। हरी घास पर क्षण भर', 'कितनी शांति', 'छंद है यह फूल' आदि कविताओं में अहं की काया से मुक्त होने की कामना को कवि ने रेखांकित किया है।
2 अति बौद्धिकता-
- अतिशय बौद्धिकता प्रयोगवादी काव्य की अन्यतम विशेषता है। प्रयोगवादी कवि सारे तथ्यों का दर्शन बुद्धि के ही आलोक में करते हैं। धर्मवीर भारती के अनुसार इस बौद्धिकता का जन्म हर भावना के आगे लगे हुए एक प्रश्नचिन्ह से होता है। वे लिखते हैं कि प्रयोगवादी कविता में भावना है, किन्तु हर भावना के सामने एक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। इसी प्रश्नचिन्ह को आप बौद्धिकता कह सकते हैं। सांस्कृतिक ढांचा चरमरा उठा है और यह प्रश्नचिन्ह उसी की ध्वनिमात्र है।'
- डॉ. नगेन्द्र को इस काव्य में बौद्धिकता के व्यवहार पर चिन्ता है। वे कविता में राग तत्व को ही प्रधान मानते हैं, क्योंकि उनका दृष्टिकोण है कि जिस काव्य में बुद्धित्व रागतत्व से प्रबल हो जाता है, वहाँ काव्यात्मकता धूमिल हो जाती है।
- प्रयोगवादी कविता की अतिशय बौद्धिकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। प्रयोगवादी कवियों ने आक्रोश, झुंझलाहट, व्यंग्य, विद्रोह, सत्यकथन, स्वविश्लेषण पर विश्लेषण तथा तथ्य-निरूपण पर अपने बौद्धिक उत्कर्ष का परिचय दिया है। अज्ञेय की 'हरी घास पर क्षणभर काव्य संग्रह में अनेक कविताएँ बौद्धिकता से उत्पन्न हुई हैं। एक उदाहरण अवलोकनीय है
"चलो उठें अब
अब तक हम थे बन्धु
सैर को आए
और रहे बैठे तो
लोग कहेंगे
धुंधले में दुबके दो प्रेमी बैठे हैं
वह हम हों भी तो
यह हरी घास ही जाने"
- संशय और प्रश्नाकुलता इस अवतरण-संदर्भ को बौद्धिकता से बांध रही है। कवि के मन में समाज से एक अज्ञात भय समाया हुआ है। यहाँ पर तर्क का आश्रय लेकर कवि ने अपनी उसी सन्देहास्पद स्थिति को स्पष्ट करना चाहा है।
- यह बौद्धिकता प्रयोगवाद में कई रूपों में प्रकट हुई है। अज्ञेय और मुक्तिबोध आदि तो स्व या अपने का विश्लेषण करते हुये इसका सहारा लेते हैं और प्रभाकर माचवे तथा भारतभूषण आदि वार्तालाप की शैली में इसकी अभिव्यक्ति करते हैं।
3 अनास्था
- बौद्धिकता से रागतत्व नष्ट हो जाता है और रागात्मिका शक्ति के विनाश से ही संशय और अनास्था की उत्पत्ति होती है। अतिशय बौद्धिकता के कारण ही प्रयोगवादी कविता में अनास्था की भावना उत्पन्न हुई है। इसी अनास्था के कारण प्रयोगवादी कवियों के मन में निराशा, कुण्ठा, पाप-बोध, वेदना और पराजय की भावना को स्थान मिला है।
अज्ञेय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, प्रभाकर माचवे मुक्तिबोध आदि रचनाकार ने अपने काव्य में अनास्था के कारण पूजा की एक नयीं व्याख्या करते हुए कहते हैं -
"मैं छोड़ कर पूजा
क्योंकि पूजा है पराजय का विनत स्वीकार
बाँधकर मुट्ठी तुझे ललकारता हूँ।
सुन रही है तू?
मैं खड़ा तुमको
यहाँ ललकारता हूँ।"
'सागर-मुद्रा' में अज्ञेय ने
युग-युग से कृष्ण के पवित्र प्रतिष्ठित प्यार को प्रश्न के घेरे में घेर दिया है।
वे कन्हाई ने प्यार किया'
नामक कविता में
कृष्ण के प्यार पर उँगली उठाते हुए कह रहे हैं कि-
“कन्हाई ने प्यार किया कितनी गोपियों को कितनी बार
पर उड़ेलते रहे अपना सारा दुलार
उस एक रूप पर जिसे कभी पाया नहीं
जो कभी हाथ नहीं आया।
कभी तो प्रेयसी में उसी को पा लिया होता
तो दोबारा किसी को प्यार क्यों किया होता?"
4. आस्था की भावना
- प्रयोगवादी कवियों ने अपनी कविताओं में अनास्था और शंका को ही नहीं, आस्था और विश्वास को भी स्थान दिया है। उनकी यह आस्था उनकी अनास्था से ज्यादा सहज और शक्तिवान् लगती है।
- यद्यपि ये कवि निराशा, कुण्ठा, वेदना और पराजय की भावना से ग्रस्त हैं, फिर भी ये उसी के अन्तराल से ऊर्ध्वगामी चेतना का उन्मेष करते हैं, अपनी रुग्ण मानसिकता को स्वस्थ आलोक प्रदान करते हैं।
अज्ञेय आस्था के प्रति कृतज्ञता और उसकी सुदढ़ता की कामना व्यक्त करते
हुए लिखते हैं कि-
"हम में तो आस्था है, कृतज्ञ होते।
X X X
आस्था न काँपे
मानव फिर मिट्टी
का भी हो जाता है।"
प्रयोगवादी
कवियों ने पराजय, अविश्वास तथा मरण
का ही वरण नहीं किया। यदि उनमें ऐसा ही भाव होता तो प्रभाकर माचवे प्रकाश प्रसन्न
ऐसी उत्साहित कविता क्यों लिखते-
"नया प्रकाश चाहिए, नया प्रकाश चाहिए
पुकारती दिशा-दिशा मिटे तषा, मिटे निशा
बहुत हुआ उदास मन
हमें सुहास
चाहिए"
- प्रयोगवाद के सम्पूर्ण भाव-बोध को देखकर कहा जा सकता है कि प्रयोगवादी कवियों की पराजय और अनास्था की भावना एक सीमा तक है। उसके बाद उनकी समस्त रुग्ण मानसिकता आस्था की सजल सरिता में स्नात होकर स्वस्थ और सबल बन जाती है। यह एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जीवन की निर्मिति एक जैसे प्रकृति तत्वों के सम्मेल से नहीं हो सकती है। सुख-दुःख, आस्था- अनास्था, जय-पराजय के ताने-बाने से ही उनकी सफल रचना होती है। ये द्वंद्व ही जीवन को अस्तित्व प्रदान करते हैं। और जीवन को अपने चक्राकार भ्रमण से व्याप्त बनाते हैं।
5 यथार्थ चित्रण-
- माना जाता है कि प्रगतिवाद में समाजवाद की और प्रयोगवाद में व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा हुई है लेकिन जहाँ तक दोनों के तात्त्विक स्वरूप का प्रश्न है, दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। समाजवाद के अन्तर्गत व्यक्ति का अध्ययन समाज से शुरू होकर व्यक्ति पर पहुँचता है और प्रयोगवाद के अंतर्गत यही अध्ययन व्यक्ति से शुरू होकर समाज तक पहुँचता है।
- दोनों धाराओं के अंतर्गत व्यक्ति की सत्ता को अस्वीकार नहीं किया गया है, क्योंकि समाज की निर्मिति व्यक्ति से ही तो होती है। डॉ. रघुवंश ने प्रयोगवादी सामाजिकता के संदर्भ में लिखा है कि इन सभी कवियों में सामाजिकता के प्रति जागरूकता है, इनमें से कोई भी उस कोटि का असामाजिक नहीं है, जिस कोटि के योरोप के पिछले युग से ही भिन्न वादों के अंतर्गत हुई हैं।
- अज्ञेय, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे नेमिचन्द्र जैन, मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा आदि सभी कवियों की रचनाओं में सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई है। यहाँ पर एक तथ्य और इंगित कर देना समीचीन प्रतीत होता है कि तारसप्तक अथवा प्रयोगवाद के कवि का यह सामाजिक यथार्थवादी दृष्टिकोण कहीं-न-कहीं मार्क्सवादी चिन्तनधारा और उसके समाजवाद से अवश्य अनुप्रेरित है। मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा और नेमिचन्द्र जैन तो अपने को मार्क्सवादी स्वीकार भी कर चुके हैं। अज्ञेय पर व्यक्तिवादी होने का सबसे बड़ा आरोप लगाया जाता है। उनके काव्य को पढ़ने के उपरान्त यह स्थापना मिथ्या प्रतीत होने लगती है।
अज्ञेय ने समाज को उसकी विराटता और यथार्थता के साथ स्वीकार किया है। 'इन्द्रधनुष रौंदे
हुये ये' नामक कविता में
अज्ञेय ने समाज को उसकी समग्र यथार्थता के साथ ग्रहण किया है-
"रुई धुनता है, गारा सानता है, खटिया बुनता है,
मशक से सड़क सींचता है,
रिक्शा में अपना ही प्रतिरूप लादे खींचता है,
जो भी जहाँ भी पिसता है पर हारता नहीं,
न मिटता है पीड़ित श्रमरत मानव कमकर,
श्रमकर, शिल्पी स्रष्टा उसकी मैं कथा कहता हूँ
दूर दूर दूर...
मैं वहाँ हूँ..."
6. क्षणवाद
- क्षणवादी प्रवृत्ति की पष्ठभूमि में अस्तित्ववादी विचारधारा काम करती है। प्रयोगवादी काव्यधारा के अंतर्गत यह प्रवत्ति पाश्चात्य चिन्तन के परिणामतः आई है। क्षणवादियों की मान्यता है कि जीवन का एक आनन्दमय क्षण सम्पूर्ण जीवन से अधिक वरेण्य होता है। क्षणवादी वर्तमान में ही जीता है, भविष्य के प्रति उसके मन में कोई स्वर्णिम सपना नहीं होता है।
- हिन्दी के प्रयोगवादी कवियों ने क्षणवाद को बड़ी व्यापकता के साथ ग्रहण किया है। अज्ञेय तो इस क्षण की जोरदार वकालत करते ही हैं और धर्मवीर भारती भी इससे ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं।
- क्षण की इसी पकड़ ने प्रयोगवादी कवियों को अस्तित्व का भी बोध कराया। अज्ञेय की 'नदी के द्वीप', गिरिजाकुमार माथुर के 'शिलापंख चमकीले', 'पथ्वीकल्प', मुक्तिबोध का 'चाँद का मुँह टेढ़ा है और भारती का टूटा पहिया' नामक कविताओं अथवा काव्य-संग्रहों में अस्तित्वबोध का गहरा भाव विद्यमान है।
सम्पूर्ण अंधायुग' त्रासद अस्तित्व की गाथा है। पौराणिक आख्यान के माध्यम से
धर्मवीर भारती लघु से लघुतर और लघुतम व्यक्ति और पदार्थ की अस्मिता को अस्तित्व
प्रदान से करते हुए लिखते हैं कि-
"मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत
क्या जाने कब इस दुरूह चक्रव्यूह में
अक्षैहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाये
बड़े-बड़े महारथी
अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी
निहत्थी अकेली आवाज को
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें
तब मैं रथ का टूटा हुआ पहिया उनके हाथों में ब्रह्मास्त्रों से
लोहा ले सकता हूँ।"
7 मानवतावाद-
- मानव और मानवतावाद की उपेक्षा करके कोई भी साहित्य रचा नहीं जा सकता है। रचनाकार का परिवेश उसकी रचना में विद्यमान रहता है। परिवेश रचनाकार को विषयवस्तु देता है। सारे सुखद और दुखद भाव, उछलती और घुटती जिन्दगी अपनी सर्वांगीणता के साथ रचना के अमूर्त रचनात्मक उपादान होते हैं।
- कतिपय समालोचकों की मान्यता है कि प्रयोगवादी कविता व्यक्तिनिष्ठ है समाजसापेक्ष नहीं, इसलिए वहाँ मानवतावादी विचारधारा को स्थान नहीं मिला है, लेकिन इस दष्टिकोण की संगति प्रयोगवादी कविता के प्रतिपाद्य-पदार्थ के साथ नहीं बैठती।
- कहने का केन्द्रीय पदार्थ- प्रतिपाद्य मानव ही है। यह मानव विराट् जगत् में कहाँ-कहाँ किस-किस प्रकार से जी रहा है। इसका जीवन्त और सजल चित्रण प्रयोगवादी कविता में हुआ है। अज्ञेय (इन्द्रधनुष रौंदे हुये ये), प्रभाकर माचवे (बीसवीं सदी), गिरिजाकुमार माथुर (धूप के धान), मुक्तिबोध (चाँद का मुँह टेढ़ा है), सर्वेश्वर दयाल (पोस्टर और आदमी). भारती ( सात गीत वर्ष) की अधिकांश रचनाओं में समसामयिक मानव के वास्तविक रूप को ग्रहण किया गया है।
अज्ञेय जीवन जीने के लिए और रोजी-रोटी के लिए
संघर्ष करने वाले मनुष्यों की कथा कहने की प्रतिबद्धता की घोषणा करते हुए लिखते
हैं कि-
"जो भी जहाँ भी पिसता है
पर हारता नहीं, न मरता है
पीड़ित श्रमरत मानव
अविजित दुर्जेय मानव
कमकर, श्रमकर, शिल्पी, स्रष्टा
उसकी में कथा कहता हूँ"
अज्ञेय हों चाहे
धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध हों
चाहे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना या कुँवर नारायण आदि कवि हों, सभी की रचनात्मक
प्रकृति अस्तित्ववादी और क्षणवादी चिन्तन से प्रभावित हैं। यह अवश्य है कि अज्ञेय
और भारती इससे अधिक प्रभावित दिखाई पड़ते हैं।
8. श्रंगारिकता
- प्रयोगवादी कवियों ने फ्रायड के मनो-विश्लेषणवाद से काफी कुछ ग्रहण किया है। इसीलिए इनकी रचनाओं में जहाँ एक तरफ भंगार की पवित्र और सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है वहीं दूसरी तरफ मांसल भंगार और भोग-भावना का भी व्यापक चित्रण हुआ है।
- कविवर अज्ञेय ने आधुनिक मानव को यौन वर्जनाओं का पुंज माना है। वे तारसप्तक' में लिखते हैं कि आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति यौन वर्जनाओं का पुंज है.... आज के मानव का मन यौन परिकल्पनाओं से लदा है और वे कल्पनाएँ सब दमित और कुण्ठित हैं।
- उसकी सौन्दर्य चेतना भी इससे आक्रान्त है, उसके उपमान सब यौन-प्रतीकार्थ रखते हैं। सावन मेघ' नामक कविता में अज्ञेय ने उक्त मान्यता के आलोक में एक बिम्ब बनाया है। देखें-
“घिर गया घन, उमड़ आए मेघ काले,
भूमि के मम्पित उरोजों पर झुका सा
छा गया इन्द्र का नील वक्ष
बाध्य देख,
स्नेह से आलिप्त
बीज के भवितव्य से उत्फुल्ल
बद्ध
वासना के पंक-सी फैली हुई थी
धारयित्री सत्य
की निर्लज्ज नंगी और समर्पित ।"
- उक्त अवतरण में कवि ने पर्वत पर होने वाली वर्षा और रतिक्रिया का एक जैसा रूप बिम्बित किया है। सामान्य रूप से प्रयोगवादी कविता के अन्तर्गत भोग और वासना को ही प्रमुखता मिली है।
- प्रयोगवादी कवियों ने भंगार को जिस रूप में लिया है, उसको देखकर यह कहना पड़ता है कि उन्होंने इसको प्रकृत रूप में ही ग्रहण किया है। इन रचनाकारों ने प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से अपनी कुण्ठित और दमित संवेदनाओं को शब्दाकार प्रदान किया है।
9. कुण्ठा और निराशा-
- डॉ. शिवकुमार मिश्र ने लिखा है कि निराशा, कुण्ठा और घुटन का व्यापक प्रदर्शन प्रयोगवादी काव्य की एक महत्वपूर्ण दिशा है, जिसका स्रोत भी उसके निर्माताओं की एकान्त व्यक्तिवादिता, आत्मलीनता एवं सामाजिक विषमताओं से एकाकी ही संघर्ष करने से प्राप्त असफलताओं में ही निहित है तथा जो बहुत कम अनुभूत और अधिकतर गढ़ी हुई है।
- मुक्तिबोध, अज्ञेय. दुष्यंत कुमार आदि अनेक प्रयोगवादी कवियों ने अपनी रचनाओं में इन रूपों को चित्रित किया है। भारतभूषण अग्रवाल निराशा का निरूपण करते हुए लिख रहे हैं कि-
"न देखो नयन कोरों से
गिरा दो पलक का परदा
कि मूँदों कान
हो सुनमान
दरवाजा करो सब बन्द
सपनों की अटारी के
कि बाहर गरजता
हुआ तूफान आता है। "
- संत्रास, दुःख, कुण्ठा, निराशा, जुगुप्सा आदि से सारे प्रयोगवादी कवि अभिभूत दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं लेना चाहिए कि इन कवियों ने आशा आह्लाद, आस्था आदि उज्जवल भावों का निरूपण किया ही नहीं है। वस्तुतः संत्रास, कुण्ठा, अनास्था की ही कुक्षि से आशा आह्लाद और आस्था का जन्म होता है।
10. प्रकृति चित्रण-
- छायावादी कवि ने प्रकृति को जिस बहुरंगी आभा के साथ प्रस्तुत किया है, वह अत्यंत विलक्षण है। प्रयोगवादी कवि में वैसा रूप नहीं दिखाई पड़ता है जैसा छायावादी कविता में है। इस कविता में कवि मनुष्य के जीवन की विसंगतिपूर्ण स्थिति को शब्दायित करने में सचेत और संलग्न है।
- प्रयोगवादी कवियों में अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता आदि की रचनाओं में प्रकृति का सुंदर और हृदयाकर्षी रूप दिखाई पड़ता है। प्रकृति के विविध रूप हैं। कहीं पर उसका स्वतंत्र (आलम्बनगत) रूप अपनी सहजता के कारण आकर्षित करता है और कहीं उद्दीपनगत रूप चित्त को चंचल बनाकर आनन्दित पीड़ित करता है। अज्ञेय की अरी ओ करुणा प्रभामय तथा 'ऋतुराज' में प्रकृति का आलम्बनगत तथा 'बावरा अहेरी' की कतिपय कविताओं में प्रकृति का उद्दीपनगत रूप उकेरा गया है।
"यह झकझक रात
चाँदनी उजली कि सुई में पिरोलो ताग
चाँदनी को दिन समझकर बोलते हैं काग
हो रही ताजी सफेदी नर्म चूने से
पुत रहे हैं द्वार
चाँद पूरा साथ
"
भवानी प्रसाद
मिश्र प्रकृति के अनन्य प्रेमी हैं। गीत फरोश' नामक उनके काव्य संग्रह में प्रकृति बड़े सहज और आत्मीय रूप
में स्वयं आकर बैठ गयी है
"सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डुबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल
झाड़ ऊंचे और नीचे
चुप खड़े हैं और आँख मींचे।
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है
बन सके तो धँसों इनमें
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल। "
11. आंचलिकता-
- प्रयोगवादी कविता में अंचल प्रेम की भी छवि छायी हुई है। अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र आदि की कतिपय रचनाओं में अंचल विशेष की जीवत चेतना की खनक सुनी जा सकती है। 'वैशाख की आँधी' (अज्ञेय), 'सावन का गीत' और 'झूले का गीत' (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना), 'मंगल वर्षा' (भवानीप्रसाद मिश्र), लेण्डस्केप (गिरिजाकुमार माथुर ) आदि कविताओं में आंचलिक परिवेश का सचेत समाहरण हुआ है।
12. भदेस या नग्नता
- गर्हित, घणित और अश्लील शब्द चित्रों को भदेस कहा जाता है। प्रयोगवादी कवियों ने भदेस दश्यों का भी आयोजन अपने काव्य में किया है। इस योजना से एक तरफ तो कवि की दमित भावनाओं की अभिव्यंजना होती है और दूसरी तरफ उनका नवीनता के प्रति आग्रहवादी दृष्टिकोण भी प्रस्तुत होता है।
- सामान्य रूप से ये चित्रण काव्य सौन्दर्य के सम्वर्धन में सहायक नहीं हैं, लेकिन कतिपय आलोचक इसे भी सौन्दर्याभिव्यक्ति का शक्तिशाली उपादान स्वीकार करते हैं। इस दृष्टि से, लक्ष्मीकांत वर्मा का दष्टिकोण है विरूपता अश्लीलता नहीं है।
- असुंदर में भोड़ापन नहीं है परिवेश खोखला नहीं है। इन सबका सौंदर्य पक्ष में महत्व है। ये सब सौन्दर्य को सम्पूर्ण बनाते हैं। उनके आयामों को विकसित करते हैं, यह वर्मा का अतिवादी दष्टिकोण है। यदि असुंदर को भी सुंदर मान लिया जाएगा फिर असुं किसे कहा जाएगा। अंतर की सीमा समाप्त हो जाएगी।
- प्रयोगवादी कविता में भदेस का निरूपण कवियों ने निस्संकोच भाव से किया है। अज्ञेय जैसा सुसंस्कृत और बहुपठ रचनाकार भी इसके चित्रण का व्यामोह संवरित नहीं कर पाया-
"निकटतर धसती हुई छत, आड़ में निर्वेद
मूत्र सिंचित मत्तिका के वक्ष में
तीन टांगों पर खड़ा नत ग्रीव
धैर्य मन गदहा।
"