समकालीन कविता की काव्यगत विशेषताएं
समकालीन कविता की विशेषताएं
1. विद्रोही स्वर
- अकविता के नामकरण विवेचन से ही ये स्पष्ट हो गया है सन् 1960 ई. के बाद आविर्भाव में आने वाली अकविता में असंतोष, अस्वीकृति, क्रोध तथा विद्रोह भाव अत्यधिक स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया है।
- असंतोष एवं अस्वीकृति का स्वर नई कविता में विद्यमान रहा है। मुक्तिबोध के अतिरिक्त अन्य कवियों में भी विद्रोह स्वर था। कहीं व्यंग्य का रूप धारण कर आया था कहीं स्पष्ट विद्रोह के रूप में अंतर इतना है कि सन् 1960 ई. के बाद इस स्वर ने अकविता में आकर अत्यंत करारे व्यंग्य एवं विद्रोह का रूप धारण कर लिया।
- जीवन के टूटते हुए क्षणों की सन्निकट अनुभूति ने उसकी संवेदना को तलख, व्यथामय तथा उसमें फूटती हुई अस्वीकृति की उग्रता से भली भांति अवगत हो गया। अकविता की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसने समग्र जीवन की प्रामाणिक अनुभूतियों को उनके जीवंत परिवेश में अभिव्यक्ति प्रदान की है।
- विषय या अनुभूति के अभिजात्य तथा विभिन्न दष्टियों अथवा वादों से निर्मित घेरों, परिसीमाओं तथा अवरोधों को तोड़कर व्यक्ति द्वारा भोगे जाते हुए मानव जीवन के प्रत्येक क्षण के छोटे-बड़े सत्यों को प्रतीकों -बिंबों द्वारा उभारने में ही उसने अकविता की सार्थकता का अनुभव किया है किंतु अंतोगत्वा कहना होगा कि अकविता संत्रासजन्य कुंठा, संक्रांतिजन्य संत्रास, यातना टूटन, घुटन, दुविधा की अनुभूति की कविता है जिसमें रह रह कर सुंदर अनागत के आगमन की आशा स्वयं को अंधेरे में प्रकाश की भांति जलाकर पुष्प की भांति पुष्पित एवं प्रफुल्लित करके अपने को सार्थक एवं अपने द्वारा युग को मूल्यवान बनाने की आस्था कौंध स्वरूप चमक-चमक कर रह जाती है।
2. पीड़ाबोध
- अकविता जिस युग की उपज है वह युग पीड़ा बोध अधिक दे सकता था विद्रोह कम स्वराज्य प्राप्ति की आरंभिक बेला में जो यातना, पीड़ा या दर्द अत्यंत हो गया था वह अपने साथ भविष्य के प्रति आशा तथा विश्वास का स्वर भी अवश्य समेटे था किंतु एक दुविधा थी पीड़ा-आशा टूटन की वास्तविकता बनने का स्वप्न, जिसमें पीड़ा तथा टूटन अधिक थी बनने की आशा तथा स्वप्न कम मोहभंग पूर्ण रूप से नहीं हुआ था। इसलिए अकविता में पीड़ा, यातना तथा अस्वीकृति बोध है।
- यातना एवं अस्वीकृति भी पीड़ा के प्रतिरूप हैं। पीड़ा बोध का स्वर उभर कर आया है किंतु विद्रोह का उभार नहीं है। शनैः शनैः मोह भंग हुआ। व्यक्ति का सामाजिक परिवेश अधिक कुरूप होता गया। भविष्य के आशा के स्वप्न टूट टूटकर बिखरते गए।
विभिन्न मार्ग ऐसे परिवेश में साहित्य अर्थात् अकविता या समकालीन कविता के समक्ष दो मार्ग उभर कर आए -
- (i) वह अकविता के प्रधान स्वर में स्वर मिला कर पीड़ा की मुक्त अनुभूति को और गहराई से अभिव्यक्ति प्रदान करता है।
- (ii) अथवा ये पूर्ण परिवेश उसके संवेदनशील मन को झकझोरता और पीड़ा के मध्य से उभार कर उसे विद्रोही बनाता हुआ सब कुछ अस्वीकृत करने हेतु प्रेरणा देता।
- अकविता में दोनों प्रकार की प्रतिक्रियाएं दष्टिगोचर होती हैं। अकविता वाले संवेग, संचेतना को नव विकसित सत्य को सहज और एक सरल ढंग से अभिव्यक्ति प्रदान करने की घोषणा करते हैं। ये अव्यवस्था, विसंगति, मूल्य हीनता, विरोधाभास और आदर्शों के अकाल से आंदोलित नहीं होते। दूसरी प्रक्रिया विद्रोह की थी .
विद्रोह की दो प्रवत्तियां होती हैं
(i) अस्वीकृति या ध्वंस
(ii) रचना ।
- अकविता में 'विद्रोह' के नाम पर लिखी जाने वाली अकविताएं उनमें अधिकांश लक्ष्यविहीनता का प्रतिनिधित्व करती थीं या यौन की विकृति का प्रतिपादन करने वाली थीं। लक्ष्य-विहीनता ने इन्हें सुविधा वादी या अवसर वादी बना दिया। ये सुविधा का विद्रोह करते थे अर्थात् जहां उन्हें करने की सुविधा का अवसर प्रतीत होता था वहां विद्रोह कर डालते थे किंतु जहां उन्हें प्रतीत होता कि विद्रोह का परिणाम खतरा मोल लेना है वहां वे दुम दबाकर पतली गली से भाग लेते थे। अकविता या समकालीन कविता के कवियों को सबसे बड़ी विसंगति यौन विसंगति के रूप में दष्टिगोचर होती थी यदि इनकी दृष्टि से ओझल हो जाती थी तो इन्हें शारीरिक वीभत्सता दिखलाई पड़ती थी।
3. आंदोलन नहीं विकास
- समकालीन कविता या अकविता आंदोलन नहीं नई कविता की जीवनोन्मुख धारा का विकास है जिसमें प्रयत्नज आंदोलन की योजनाबद्ध रेखाएं नहीं हैं अपितु वर्तमान जीवन की अनुभवजन्य विषम संवेदनाएं एवं पीड़ा-बोध हैं। ये अनुभव एवं बोध आंदोलन से नहीं अपितु सत्य से प्रेरणा प्राप्त करके वर्तमान विषम परिवेश की प्रतीति अस्वीकृति एवं विद्रोह सभी को आवश्यकतानुसार अपने में समन्वित किए हुए हैं।
- सन् 1960 ई. के बाद की धारा में कवि भी आ जाते हैं जो नई कविता के विशिष्ट कवि रहे हैं जिनमें जीवनधारा की उर्जस्वलता ही प्रधान रही है या जो नई कविता की बनती हुई सीमाओं से अवगत होकर उन्हें तोड़ने हेतु पुनः अकुला उठे हैं तथा वे कवि भी हैं जिनका आविर्भाव सन् 1960 ई. के बाद हुआ है।
- इन कवियों ने एक ओर जीवन की विकसित चेतना और जटिलता का अनुभव किया तथा दूसरी ओर यह देखा कि नई कविता के भी फार्मूले लदने लगे हैं। उसके प्रतीक और दर्द रूढ़ बनते जा रहे हैं। प्रतीकों की ऊंची गुफा में बंद होकर कविता सर्वथा अंतर्मुखी तथा निस्पंद होती जा रही है। इस ठहराव को तोड़ना था। अकविता को पुनः जीवन निकट लाना था अथवा समकालीन कविता की जीवनधारा से अवगत होकर अग्रसर होना था।
4. सामान्योन्मुखी-
- समकालीन कविता परिवेशानुसार सामान्योन्मुखी हो गई, चीन एवं पाकिस्तान के अतिक्रमणों के अवसर पर सामान्य जवानों का बलिदान, लघु दष्टिगोचर होने वाले लोगों का त्याग, कृषकों, श्रमिकों की महत्ता का अनुभव उभर कर सामने आया।
- समकालीन कविता नई कविता के उस स्वर का विकास है जो वर्तमान की प्रतिदिन के जीवन की अनुभूतियों को अति सहजता व्यक्त करता है। उन अनुभूतियों को वाणी देता है जो पल-पल के अंतर्विरोध की उपज हैं।
- समसामयिक कविता में एक ओर व्यक्तिगत पीड़ा या स्थिति की विषमता को व्यक्त करने वाले कवि हैं, तो दूसरी ओर स्थिति की विषमता के विरुद्ध विद्रोह का आक्रोश व्यक्त करने वाले कवि भी हैं। क्रुद्ध और विद्रोही पीढ़ी की कविताएं अधिक तेज धक्कामार और वर्तमान जीवन की सड़ांध अधिक प्रत्यक्षता से उभारने वाली हैं।
- समकालीन कविता में वे कवयित्रियां भी आती हैं जिनमें वर्तमान की व्यथा अनुभूति के अति सूक्ष्म, बारीक, एवं संयत स्तर के उभार हैं। नारी की अपनी विशेषताएं होती हैं। जिसके परिणामस्वरूप कवयित्रियां कवियों की भांति उच्छृंखल या यौन संबंधों को व्यक्त करने में प्रत्यक्ष या सामाजिक विद्रोह के प्रति अधिक अनुभववान तथा पूर्ण सक्रिय नहीं होती हैं। वे अपने परिवेश के दबाव से अनुभव करती हुई पीड़ा बोध तथा सौंदर्य बोध को अधिक तीव्रता, गहनता तथा सफलता से व्यक्त कर सकती हैं।
5. जनक्रांति
- कवि को पूर्ण विश्वास है कि विषम व्यवस्था को दूर करने का मात्र उपाय जनक्रांति है। एकमात्र जनक्रांति के द्वारा ही अपने अस्तित्व का संज्ञान कराया जा सकता है। इसलिए कवि बैठे-बैठे काव्य सजन में ही अपना समय व्यर्थ नष्ट नहीं करता है अपितु वह आगे बढ़कर एक दावानल भड़काना चाहता है जो जनक्रांति लाए तथा विषम व्यवस्था का निवारण कर सके।
6. राजनेताओं के प्रति क्षोभ
- देश की उत्तरोत्तर हासोन्मुखी स्थिति के लिए कवि भ्रष्ट राजनेताओं को दोषी ठहराते हैं क्योंकि इनकी क्षुद्र राजनीति मात्र कुर्सी तक सीमित हैं। इनका दीन ईमान सब कुर्सी है। कुर्सी के लिए वे अपना धर्म ईमान सब बेचने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं। आवश्यकतानुसार दलबदल करना इनका परम धर्म बन गया है। कवि ऐसी विषम परिस्थितियों में घबराने एवं चुप बैठने वाला नहीं है साफ-साफ विरोध करता है।
7. भाषा-भंगिमा
- समकालीन कवियों की भाषा विचार एवं भावानुसारिणी है। सपाटपना अधिक है। लोक मानस की सहज, सरल एवं स्वाभाविक भाषा का प्रयोग किया गया है पारिवेशिक विसंगतियों विद्रूपताओं के चित्रण में मार्मिक शैली - अपनाई गई। वहां भाषा को नवीन शक्ति प्राप्त हो जाती है। समकालीन कविता की भाषा अभिजात्य सांस्कारिक नहीं है, अपितु अनुजन्य आम बोलचाल की भाषा है। अप्रस्तुत विधान, बिंब विधान एवं प्रतीक योजना का आवश्यकतानुसार पूर्ण समावेश है।
क्षणिकाएं-
- बीसवीं सदी के सातवें दशक में गद्य विद्या में कहानी का लघु रूप 'लघु कथाओं' ने लिया। उसके आधार पद्य विद्या में कविता के लघु रूप में क्षणिकाएं' आईं। जिनका आयाम अति लघु होता है। वर्तमान काल में भी क्षणिकाएं पत्र पत्रिकाओं में यत्र तत्र प्रकाशित होती रहती है। ये भी समकालीन कविता का लघु- संस्करण हैं।
रचनाकार
- समकालीन कविता के क्षेत्र में नई कविता के कवि भी हैं तथा बीसवीं सदी के सातवें दशक के उभरने वाले कवि हैं। इन युवा कवियों में पद्माधर त्रिपाठी, धूमिल ऋतुराज, चंद्रकांत देव ताले, लीलाधर जगूड़ी, विष्णु चन्द्र शर्मा, प्रणव कुमार बंद्योपाध्याय आदि प्रमुख हैं।