प्रेमचन्द युग और उपन्यास । प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार और वर्गीकारण । Upnyas aur Vargikaran

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 प्रेमचन्द युग और उपन्यास , प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार और वर्गीकारण, Upnyas aur Vargikaran

प्रेमचन्द युग और उपन्यास , प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार और वर्गीकारण, Upnyas aur Vargikaran


प्रेमचन्द युग और उपन्यास  

  • प्रेमचन्द (सन् 1880–1936 ई.) के हिन्दी कथा साहित्य में पदार्पण से पूर्व तक हिंदी उपन्यास मानो अविकसित कालिका की तरह चुपनिस्पंद एवं चेतना-विहीन सा हो रहा था। सूर्य की प्रथम रश्मियों की तरह प्रेमचन्द की पावन कला का पुनीत स्पर्श प्राप्त करते ही वह कली पुष्पित होकरखिल उठीजगमगा कर खिलखिलाने लगी। 
  • राजा-रानीसेठ-सेठानियों की उच्च अट्टालिकाओं की चार दीवारी में बंद उपन्यास कथानक जनसाधारण की लोकभूमि में उन्मुक्त सांस लेता हुआ अबाध विचरण करने लगा। 
  • लौह मूर्तियों की तरह स्थिर रहने वाले या कठपुतलियों की तरह लेखन की उंगलियों के मौन संकेतों पर अस्वाभाविक गीत से नाचने वालेदौड़ने-फुदकने वाले पात्र मांसल सजीव रूप धारण कर व्यक्तित्व सम्पन्न सामान्य मानव की भांति आत्म प्रेरणा से परिचालित होते दष्टिगोचर होने लगे जिसके परिणामस्वरूप उपन्यास के अन्य तत्वों-कथोपकथनदेश काल एवं वातावरणभाषा शैलीउद्देश्य एवं रस आदि का विकास प्रथम बार प्रेम चन्द के उपन्यासों में हुआ। 


प्रेमचंद ने मात्र सस्ते मनोरंजन को ही उपन्यासों का विषय न बनाकर जीवन की ज्वलंत समस्याओं को अपने उपन्यासों का लक्ष्य बनाया जिसके परिणामस्वरूप उनके प्रत्येक उपन्यासों में किसी न किसी सामयिक समस्या का चित्रण मार्मिक स्वरूप में उपलब्ध है। यथा-

 

  • 'सेवा सदन (1918) वेश्या', 'रंगभूमि (1928 ) - शासक अत्याचार प्रेमाश्रम' (1921 ) - 'कृषक,' 'कर्मभूमि (1932 ) – हरिजननिर्मला' (1922 ) - 'दहेज एवं वद्ध विवाह', 'गबन' (1931) मध्यवर्गीय आर्थिक विषमतागोदान' (1936) कृषक श्रमिक शोषण । 


  • प्रेमचंद के प्रारंभिक उपन्यासों में आदर्शवादिता का आधिक्य होने के कारण उनमें कहीं कहीं काल्पनिकता एवं अस्वाभाविकता अधिक आ गई है। किन्तु आगे चलकर प्रेमचन्द का स्वरूप आदर्शवादी के स्थान पर यथार्थवादी बन गया है जहां प्रारंभिक उपन्यासों में समस्याओं के समाधान करने के लिए गांधीवादी विचारधारा को अपनाया है वहां उन्होंने अन्तिम उपन्यास 'गोदानमें केवल समस्याओं के प्रस्तुतीकरण के द्वारा ही आत्मतुष्टि कर ली है।

 

  • 'गोदानकी प्रमुख ही नहीं अंगी समस्या विवाह है। प्रेमचंद ने 'गोदानमें बाल विवाहवद्ध विवाहअनमेल विवाहअन्तर्जातीय विवाहप्रेम-विवाहगांधर्व विवाहपरंपरित-विवाहभगाकर ले जानारखैल रखनावैसे ही संबंध स्थापित कर लेनाविवाहित से प्रेमअविवाहिता से प्रेम संबंध आदि जितने भी प्रकार या स्वरूप संभव हैं सभी गोदान में दर्शाए गए हैं। इनमें आदर्श विवाह क्या हो सकता हैउसका समाधान प्रेमचंद ने नहीं प्रस्तुत किया है मेहता और मालती को अविवाहित ही क्यों छोड़ दिया है जो पति-पत्नी के रूप में आजीवन रहते हैं। समाज के लिए यह घातक प्रवत्ति है। इसलिए यह माना जा सकता है कि विवाह समस्या का यह समाधान नहीं है। शुक्ल ने जैसे अपने निबंधों का निर्णय अपने पाठकों पर चिन्तामणि के प्रथम भाग की भूमिका दो शब्द में यह कह कर कि "मेरे निबंध विषय प्रधान हैं या विषयी प्रधान इसका निर्णय विज्ञ पाठकों छोड़ देता हूँ।" उसी प्रकार प्रेमचन्द ने समस्या का समाधान पाठकों पर छोड़ा है। श्रेष्ठ साहित्यकार समस्या का समाधान नहीं प्रस्तुत करता है।

 

प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार

  • प्रेमचन्द युग में प्रेमचंद के अलावा अन्य अनेक उच्च कोटि के उपन्यासकारों का प्रादुर्भाव हुआ जिन्होंने विभिन्न दष्टिकोणों से विभिन्न विषयों को अपने उपन्यासों का विषय बनाया। 


प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार और वर्गीकारण 

इन उपन्यासकारों को उनकी विशेषताओं के आधार पर अनेक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

 

सामाजिक समस्या से संबन्धित प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार

इस वर्ग में ऐसे उपन्यास आते हैं जिन्होंने सामाजिक समस्याओं का चित्रण करते हुए प्रेमचन्द की परंपराओं को अग्रसारित किया। इस वर्ग के उपन्यासकारों में जयशंकर प्रसादविश्वंभर नाथ शर्मा 'कौशिक', पांडेय बेचन शर्मा उग्रचतुरसेन शास्त्री तथा उपेन्द्र नाथ अश्क आदि उल्लेखनीय हैं।

 

जयशंकर प्रसाद- 

  • जयशंकर प्रसाद ने कंकाल में भारतीय नारी जीवन की दुर्दशा पर प्रकाश डाला है। उनके अन्य उपन्यास 'तितलीमें नारी की सामाजिक स्थिति का चित्रण करते हुए उसके विभिन्न रूपों पर प्रकाश डाला है। अन्य उपन्यास 'इरावती है।

 

विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक- 

  • कौशिक ने 'मांऔर 'भिखारिणीमें भी नारी की सामाजिक स्थिति का चित्रण करते हुए उसके विभिन्न रूपों पर प्रकाश डाला है। 


पांडेय बेचन शर्मा उग्र'- 

  • उग्र लेखक के रूप में सचमुच उग्र हैं। उन्होंने दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी', में सभ्य समाज की आंतरिक दुर्बलताओंअनीतियों एवं घणित प्रवत्तियों का उद्घाटन आवेगपूर्ण एवं धड़ल्लेदार शैली में किया है।

 

चतुरसेन शास्त्री 

  • चतुरसेन शास्त्री ने विधवाश्रमों की सहायता लेकर हृदय की प्यास को बुझाने वालों की अच्छी खबर ली है। गोलीइस दृष्टि से उनका प्रमुख उपन्यास है जिसमें देशी रियासतों के शासकों की घणित प्रवत्तियों एवं विलासिता को नग्न रूप में प्रस्तुत किया गया है। शास्त्री ने कुछ ऐतिहासिक उपन्यासों की भी रचना की है।

 

उपेन्द्रनाथ 'अश्क'- 

  • अश्क के उपन्यासों मुख्यतः 'गिरती दीवारों में मध्यवर्गीय समाज की बाह्य एवं आंतरिक परिस्थितियों का उद्घाटन यथार्थवादी शैली में हुआ है। विवाह संबंधी सामाजिक रूढ़ियों के कारण होने वाली आधुनिक युवक-युवतियों की असफल परिणति पर उन्होंने चेतन के माध्यम से प्रकाश डाला है। समाज की समस्याओं को उपन्यास का विषय बनाने वाले उपन्यासकारों ने सभी उपन्यासकारों की शैली में सरलता एवं स्वाभाविकता का आग्रह मुख्य रूप से किया है।


चरित्र प्रधान- प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार

इस वर्ग के उपन्यासों में चरित्र की प्रधानता है। ऐसे उपन्यासकारों में जैनेंद्रइलाचन्द्र जोशीभगवती चरण वर्मा एवं सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय आदि प्रमुख हैं।


जैनेंद्र- 

  • जैनेंद्र के उपन्यासों में 'सुनीता', परखसुखदा त्यागपत्र तथा विवर्त्तआदि उल्लेखनीय हैं। इनके अधिकांश उपन्यासों में पति पत्नी एवं अन्य पुरुष के पारस्परिक संबंधों का चित्रण किया गया है। सबमें प्रायः एक समान ही चित्रण मिलता है। नायिका प्रायः विवाहिता होती है। अपनी वैयक्तिक कुंठाओं से अति दुखी होती है जिसके परिणामस्वरूप सदैव सुख की तलाश में रहती है। पर पुरुष के संपर्क में आते ही उसे प्रभावशाली व्यक्तित्व समझकर उसकी ओर आकर्षित हो जाती है। नायिका का पति इस स्थित से पूर्ण अवगत होते हुए भी चुप्पी साधे सब कुछ धैर्य से सहन करते हुए समय की प्रतीक्षा करता रहता है। प्रारंभ में ऐसा आभास होने लगता है कि नायिका अपने पति का परित्याग कर अपने प्रेमी के साथ पलायन कर जायेगी किंतु अंत तक जाते जाते जैनेंद्र परिस्थिति को संभाल लेते हैं तथा यह निष्कर्ष निकालना चाहते हैं कि पति पत्नी को अन्य व्यक्तियों से संपर्क करने का जितना अवसर मिलता हैजितनी अधिक स्वतन्त्रता मिलती है उतनी चारित्रिक दढ़ता एवं सबलता में वृद्धि होती है। वास्तव में जैनेंद्र के उपन्यासों में एक ओर रसिकता एवं सरसता विद्यमान है तो दूसरी ओर शुष्कता तथा भावुकता के साथ साथ बौद्धिकता आवश्यकता से अधिक आ गई है।

 

इलाचंद्र जोशी

 

  • इलाचंद्र जोशी ने 'सन्यासी' 'परदे की रानीप्रेतऔर 'छाया', 'सुबह के भूलेतथा 'मुक्ति पथआदि उपन्यासों में चारित्रिक प्रवत्तियों एवं वैयक्तिक परिस्थितियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया हैकिंतु जैनेन्द्र की तरह शुष्क कथानक नहीं हैं उनके पास प्रत्येक उपन्यास में प्रयोग करने के लिए नए-नए अनेक कथानक हैंनई नई अनेक समस्याएं हैंअतः उन्हें समस्याओं परिस्थितियों एवं कथानकों आदि के पुनर्प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती है। एक ओर उसके पास कल्पना का वैभव है तो दूसरी ओर अनुभूतियों का संचित कोष- जिसके परिणामस्वरूप वे अपने उपन्यासों को सौंदर्यमयी एवं रसमयी बनाने में पूर्ण सक्षम एवं समर्थ हैं। जैनेन्द्र के उपन्यास यदि पेंसिल निर्मित रफ स्केच के समान हैं तो जोशी के उपन्यास सतरंगी सूक्ष्म रेखाओं से सुसज्जित दिव्य चित्र हैं। जटिल दार्शनिकता पर जैनेन्द्र को अत्यधिक गर्व है। जोशी के उपन्यास दार्शनिक जटिलता शून्य है। किन्तु जोशी का सारल्यभाषा प्रवाह तथा शैली की प्रौढ़ता आज किसी भी उपन्यासकार में उपलब्ध नहीं है। कहीं कहीं जोशी भी दार्शनिकता प्रिय आलोचकों की प्रशंसा प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा में अथवा विद्यार्थियों के काम की वस्तु बनाने के लालच का संवरण न कर सकने के परिणामस्वरूप दार्शनिक नीरस सिद्धान्त निरूपण के जाल में फंस गए हैं। यह उनकी औपन्यासिकता के हास का द्योतन करता है। सुबह के भूले तथा 'मुक्ति पथउपन्यासों की औपन्यासिकता का ह्रास हुआ है।

 

भगवती चरण वर्मा

  • भगवती चरण वर्मा ने तीन वर्ष', 'आखिरी दांवतथा 'टेढ़े-मेढ़ेरास्ते में सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेशों को दष्टिगत रखते हुए मनोविश्लेषण को प्रधानता दी है।

 

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

  • अज्ञेय ने शेखर एक जीवनी' (दो भाग) तथा 'नदी के द्वीपदोनों उपन्यासों में यौन प्रवत्तियों का ऐसा भयंकर चित्रण सूक्ष्मजटिल एवं गंभीर शैली में किया है कि सामान्य पाठक के हृदय को शांति प्रदान करने के स्थान पर उसके मस्तिष्क को कुरेदने एवं कचोटने आग में घी का काम देता है। अज्ञेय ने विभिन्न मनोवैज्ञानिकोंएवं मनोविश्लेषणकर्ताओं द्वारा प्रतिपादिन यौन सिद्धान्तों के अनुकूल अपने उपन्यास के पात्र - पात्राओं के चरित्र को अति सूक्ष्मता से चित्रित किया है। चरित्र चित्रण को इनमें इतनी अधिक प्रमुखता प्राप्त हुई है कि उसके समक्ष उपन्यास के अन्य तत्व गौण हो गए हैं। ऐसी स्थिति में इनमें सामाजिक परिस्थितियों के स्थान पर व्यक्ति की मानसिक प्रवत्तियों के विश्लेषण को विस्तार मिलना स्वाभाविक हो गया है।


साम्यवादी- प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार

इस वर्ग में साम्यवादी दृष्टिकोण से लिखे गए उपन्यास आते हैं जिनमें राहुल सांकृत्यायन तथा यशपाल प्रमुख उपन्यासकार हैं। 

 

राहुल सांकृत्यायन- 

  • राहुत सांकृत्यायन के साम्यवादी उपन्यास सिंह सेनापति तथा वोल्गा से गंगा हैं। दोनों उपन्यासों में रूसी साम्यवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया गया है।

 

यशपाल- 

  • यशपाल के उपन्यास 'दादा कामरेड', 'देशद्रोही', 'मनुष्य के रूपआदि में वर्ग संघर्षवर्ग वैषम्य का चित्रण करते हुए सामाजिक क्रांति का समर्थन किया गया है।

 

ऐतिहासिक-प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार

  • ऐतिहासिक उपन्यासों को देशकाल प्रधान उपन्यास भी कहा जाता है। इस वर्ग में देशकाल प्रधान या ऐतिहासिक उपन्यास आते हैं। ऐतिहासिक कथानकों की ओर हिंदी उपन्यासकारों का ध्यान बहुत पहले चला गया था। ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वालों में किशोरी लाल गोस्वामीआचार्य चतुरसेन शास्त्रीआचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीयशपालवंदावन लाल वर्मा तथा रांगेय राघव विशेष उल्लेखनीय हैं

 

किशोरी लाल गोस्वामी- 

  • किशोरी लाल गोस्वामी ने कुछ ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जिनमें ऐतिहासिकता का निर्वाह नहीं किया गया है।

 

आचार्य चतुरसेन शास्त्री- 

  • आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जिनमें उनका सर्वोत्कृष्ट ऐतिहासिक उपन्यास 'वैशाली की नगर वधूहै।

 

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी 

  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'बाणभट्ट की आत्मकथाएवं 'चारुचन्द्रदो प्रमुख ऐतिहासिक उपन्यास हैं।

 

यशपाल- 

  • यशपाल का ऐतिहासिक उपन्यास 'दिव्या है। जिसमें तत्कालीन युग के संपूर्ण परिवेश को प्रस्तुत करने का पूर्व प्रयास किया गया है। अन्य उपन्यास 'अमिताहै।

 

वंदावन लाल वर्मा

  • ऐतिहासिक उपन्यासों की परंपरा को चरम विकास तक पहुंचा देने का एक मात्र श्रेय वंदावन लाल वर्मा को है। 'गढ़ कुंडार', विराटा की पद्मिनी', 'झांसी की रानी लक्ष्मी बाईतथा 'मगनयनीआदि उपन्यास ऐतिहासिक हैं जिनमें इतिहास के अनेक विस्मत प्रसंगों को नवजीवन प्राप्त हुआ है। मगनयनी में ऐतिहासिकता कल्पनातथ्य – अवास्तविकता तथा मानव और प्रकृति का सुंदर सामंजस्य एवं समन्वय हुआ है।

 

डॉ. रांगेय राघव- 

  • नवीनतम ऐतिहासिक उपन्यासकारों में डॉ. रांगेय राघव तथा उनके उपन्यासों 'अंधा रास्ता', 'सुनामीएवं 'भगवान एक लिंग का विशेष महत्व है।

 

आंचलिक- प्रेमचन्द युग के उपन्यासकार

  • किसी अंचल या प्रदेश विशेष के वातावरण को सजीव रूप में प्रस्तुत करने को आंचलिकता कहा जाता है। में जिन उपन्यासों में यह प्रस्तुतीकरण होता है उन्हें आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी जाती है। हिन्दी उपन्यास के तत्वों पर आधारित नहीं अपितु स्वतंत्र सर्वथा नवीन वर्ग है। वर्तमान काल में ऐसे उपन्यासों का विकास हो रहा है। ऐसे उपन्यासकारों में फणीश्वरनाथ रेणुउदयशंकर भट्टबलभद्र ठाकुरनागार्जुन तथा तरन तारन के नाम उल्लेखनीय हैं हिंदी आंचलिक उपन्यासों पर बंगला प्रभाव दष्टिगोचर होता है। उपन्यास की इस परंपरा का श्रीगणेश स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अर्थात् सन् 1950 ई. के आस पास हुआ।

 

नागार्जुन-

  • नागार्जुन हिंदी के सर्वप्रथम आंचलिक उपन्यासकार है। नागार्जुन ने अनेक उपन्यास लिखे जिनमें 'बलचनमा', 'बाबा बटेसर नाथ', रतिनाथ की चाची', 'ईमरतिया', 'पारों', 'जमनिया का बाबातथा 'दुखमोचआदि प्रमुख हैं। आंचलिक उपन्यास कला की दृष्टि से बाबा बटेसर नाथ अधिक मंजी अई सशक्त रचना है। इसमें कथ्य का संतुलित निरूपणसजीव चरित्र चित्रण तथा प्रसंगों का नवीन प्रणाली से संयोजन सहृदय को आकर्षित करता है। बरगद वक्ष का मानवीकरण करके सर्वथा नवीन प्रयोग किया गया है। बरगद मानवीय संवेदनाओं से युक्त है।

 

फणीश्वर नाथ रेणु

  • मैला आंचललिखकर फणीश्वर नाथ रेणु ने आंचलिक उपन्यास के क्षेत्र में तहलका मचा दिया है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने रेणु को रातों रात ख्याति के शिखर पर आसीन कर दिया। इतनी ख्याति किसी भी साहित्यकार को एकलौती रचना पर नहीं मिली है। इसमें बिहार प्रांत के पूर्णिया जनपद के मेरी गंज अंचल के राजनीतिकसामाजिकसांस्कृतिक आर्थिक एवं धार्मिक आदि सभी परिवेशों का यथार्थ चित्रांकन हुआ है। पूर्णिया जिले की स्थानीय बोली का प्रयोग आंचलिकता की मांग है पर कुछ स्थानिक शब्दों के प्रयोग भावबोध कराने में कठिनता एवं जटिलता उत्पन्न करते हैं जो कथा रस में बाधक सिद्ध हुए हैं भले ही आंचलिकता प्रदर्शन में सफल हुए हों। 'परती परिकथाअन्य उपन्यास है।

 

रांगेय राघव- 

  • आंचलिक उपन्यास के क्षेत्र में रांगेय राघव का महत्वपूर्ण योगदान है। कब तक पुकारूँ उनका चर्चित आंचलिक उपन्यास है जिसमें जरामयपेशा आपराधिक कृति वाले नटों के जीवन का व्यापक एवं यथार्थ चित्रण किया गया है। इन नटों की वैवाहिक एवं यौन संबंधी मान्यताएं सामान्य मानव से भिन्न है। इनमें सांप्रदायिक मान्यताएं नहीं हैं क्योंकि बहुत कम समय के लिए अपने मूल निवास पर आते हैं। यायावरी जीवन बिताना इनका जीवन यापन का मुख्य लक्ष्य है।

 

उदयशंकर भट्ट- 

  • उदय शंकर भट्ट का आंचलिक उपन्यास 'लोक परलोकहै जिसमें इह लोक तथा स्वर्ग का काल्पनिक चित्रण किया गया है। 


बलभद्र ठाकुर 

  • बलभद्र ठाकुर के उपन्यासों में आदित्य नाथ', 'मुक्तावली', 'नेपाल की वो बेटीमुख्य हैं।

श्याम सन्यासी

  • श्याम सन्यासी ने एक ही आंचलिक उपन्यास की रचना की जो उत्थान है।

 

तरन तारन 

  • तरन तारन ने 'हिमालय के आंचलआंचलिक उपन्यास लिखा। इसमें लोक संस्कृति लोक गीतों तथा लोक शब्दावली का प्रयोग अत्यधिक हुआ है।

 

उपर्युक्त पांच वर्गों के अतिरिक्त प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकार विभिन्न धाराओं में विभाजित होकर विभिन्न रंग रूपों में उपन्यास साहित्य का सजन कर रहे हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् छठे दशक में अनेक ऐसे उच्च कोटि के उपन्यासों का प्रकाशन हुआ हैजिनमें नए-नए विषयोंशिल्प विधियों और शैलियों का प्रयोग मिलता है। कुछ प्रमुख उपन्यासकारों और उनके उपन्यासों की सूची निम्नलिखित है-

 

यज्ञदत्त – 

  • 'इंसानएवं 'अंतिम चरण', अंचल चढ़ती धूप', देवेंद्र सत्यार्थी 'रथ का पहिया', धमवीर भारती - सूरज का सातवां घोड़ाराजेन्द्र यादव प्रेत बोलते हैं', 'टूटे हुए लोग ।

 

  • डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार मैंने होटल चलाया', अमत लाल नागर - बूंद और समुद्रएवं 'शतरंज के मोहरेलक्ष्मी नारायण लाल बंया का घोसलाएवं 'साप', आचार्य चतुरसेन शास्त्री- 'खग्राससत्यकाम विद्यालंकार - बड़ी मछली और छोटी मछली', यावेंद्र शर्मा चंद्र 'अनावत्त'. अनंत गोपाल 'शेवड़ेभग्न मन्दिरयशपाल झूठा सचदेवराज - 'अजय की डायरीजीवन प्रकाश जोशी विवाह ही मंजिलेंआदि साठोत्तरी (सन् 1960 ई. के बाद) उत्कृष्ट उपन्यासों में है। इनके अतिरिक्त हिंदी में और भी अनेक उपन्यास कार इस विद्या में योगदान कर रहे हैं जिनमें देवी दयाल चतुर्वेदीकंचन लता सब्बरवालतथा हेमराज निर्मम आदि ने भी उच्च कोटि के उपन्यासों की रचना की है।

 

अनूदित- उपन्यास 

  • मौलिक उपन्यासों के अतिरिक्त हिंदी में पर राष्ट्रीय एवं भारतीय भाषाओं के उच्च कोटि के उपन्यासों के सुंदर अनुवाद भी अत्यधिक संख्या में प्रस्तुत हुए हैं इनमें हेमसन आग जो बुझी नहीं', स्टीफेन ज्विग 'विराट', मोबी डिक - 'लहरों के बीच ड्यूमा कलाकार कैदीबालजक 'क्या पागल थाआदि प्रशंसनीय हैं। भारतीय लेखकों में आरिगपूड़ि- 'अपने पराए', भवानी भाचार्य 'शेर का सवार', खांडेकर 'ययाति', विमल मित्र- 'साहब बीबी गुलामआदि महत्वपूर्ण है।

 

  • स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी उपन्यास साहित्य आज अनेक दिशाओं में तीव्रगति से अग्रसर है। उपन्यासकार अति यथार्थवादिताप्रयोगशीलताएवं न्यूनता की प्रवत्तियों से बुरी तरह ग्रस्त होते जा रहे हैं। कुछ उपन्यासकार कुंठाओं से पीड़ितअसफलताओं एवं असंतुलन से जर्जरित तथा पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता के आकर्षण में भटके हुए हैं तथा वे साहित्य सजन किसी को कुछ देने के लिए नहीं अपितु अपनी ही कुंठा से मुक्ति पाने हेतु कर रहे हैं।

 

  • उपन्यास पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसका क्षेत्र मात्र सुशिक्षित समाज एवं शहरी जीवन तक सीमित हो गया है। पर अनेक उपन्यासकारों ने आंचलिकता को फैशन के रूप में ग्रहण किया हैग्रामीण जीवन की परिस्थितियों एवं समस्याओं का यथार्थ बोध बहुत कम रचनाओं में उपलब्ध होता है।

 

  • इस संदर्भ में सोम वीरा की चुनौती अवलोकनीय है हमारा आधुनिक साहित्य केवल मध्यवर्गीय नगर साहित्य इसलिए है क्योंकि हमारे अधिकांश साहित्यकार केवल इसी वर्ग की बातों को लेकर केवल इसी वर्ग के लिए लिखते हैं। ग्रामीण लोगोंआदिवासियोंकरोड़पतियों के जीवन पररात को सड़क पर सोने वालों पर दिन में चना मूंगफली बेचने वालों के जीवन परभिखारियों पर खिलाड़ियों परवैज्ञानिकों परमछुआरों परअछूतों पर मध्य वर्ग के अतिरिक्त समाज के अन्य अंगों से संबंधित विषयों पर कितने साहित्यकारों ने कलम उठाई हैअब उठाना है।

 

  • आधुनिक प्रयोग रचना शिल्प के क्षेत्र में उपन्यास में अनेक नए प्रयोग किए गए। उपन्यास के अंदर उपन्यास लेखन का महत्वपूर्ण प्रयोग हुआ। इसके सफल प्रयोग का श्रेय अमत लाल नागर को है। अमत और विष उपन्यास के एक कथा लेखन की आत्म कथा है तो दूसरी ओर पटकथा लेखन एक कथा का भोक्ता है तो दूसरे उपन्यास का प्रणेता है। उपन्यास लेखन संबंधी सहयोगी प्रयास भी नया प्रयोग है। सहयोगी उपन्यास 'ग्यारह सपनों का देश धर्मवीर भारती द्वारा संपादित है। इसका प्रथम एवं अंतिम अध्याय भारती ने लिखा है। दूसरे से दसवें अध्याय को उदय शंकर भट्टरांगेय राघवअमत लाल नागर आदि अन्य लेखकों ने लिखा है। उपन्यास लेखन में जीवन क्षेत्र का संकोच भी नया प्रयोग है। के इसमें अनेक वर्षों के जीवन चित्रण के स्थान पर कुछ घंटों या कुछ दिनों का चित्रण रहता है। यथा- यशपाल के बारह घंटेउपन्यास और अश्क के शहर में घूमता आईनाउपन्यास में केवल बारह घंटे की कथा कही गई है। निर्मल वर्मा के 'वे दिनमें पात्रों के जीवन के तीन दिनों को उकेरा गया है। शैली की दष्टि से भी नए प्रयोग हुए हैं। पूर्व दीप्ति शैली का प्रयोग 'त्यागपत्र में मनोविश्लेषणात्मक शैली का प्रयोग सन्यासी में डायसी शेली का प्रयोग 'अजय की डायरीउपन्यास में किया गया है। अतः प्रेमचन्दोत्तर युग में उपन्यास विद्या के क्षेत्र में अनेक नए प्रयोग किए गए हैं।

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