उत्तर छायावाद , वैयक्तिक गीति काव्य
उत्तर छायावादी काव्य
- राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता के पश्चात् काव्य रूप में इस प्रकार मोड़ आया जो सर्वथा नवीन था उसे प्रगतिवाद की संज्ञा दी गई। उसके बाद परिवर्तन आते गए। किन्तु छायावाद के पश्चात् ऐसा निश्चित मोड़ नहीं आया जिसे नया नाम दिया जा सके।
- भारतेंदु युग से चली आती राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा इस काल तक आई। यही स्थिति वैयक्तिक गीतों की रही। छायावाद के बाद काव्य प्रणाली में परिवर्तन आया। यद्यपि छायावादी कुछ प्रवत्तियां विद्यमान रहीं। इस दृष्टि से उत्तर छायावादी काव्य को (i) उत्तर छायावाद, (ii) वैयक्तिक गीत काव्य तथा (iii) राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता तीन उप वर्गों में विभाजित कर सकते हैं
उत्तर छायावाद के कवि और उनकी रचनाएँ
छायावाद की काल सीमा सन् 1918 से सन् 1939 ई. तक मानी गई। छायावादी महान चतुष्टयी के मूर्धन्य महाकवि जयशंकर प्रसाद की मृत्यु सन् 1936 ई. में हो गई। चतुष्टयी के मात्र तीन ही उत्तर छायावाद में अवशिष्ट हैं पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रा नंदन पंत तथा महादेवी वर्मा जिनकी काव्यकृतियों में छायावाद के बाद विशिष्ट परिवर्तन परिलक्षित होता है।
पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के काव्य की विशेषताएँ
- निराला के गीत नई संभावनाओं के सूचक हैं। उनमें लोकोन्मुखता की शक्ति का विकास परिलक्षित होता है। यह लोकोन्मुखता निराला काव्य में प्रारंभ से दष्टिगोचर होती है। निराला का जीवन संघर्षमय तथा लोक-संपक्त था। इसलिए स्वाभाविक रूप से वे प्रेम सौंदर्य के साथ-साथ जीवन के अन्य अनुभवों को भी अपने में समेटे हुए हैं। वे व्यक्तिगत प्रणय के गीत न गाकर लोक जीवन से संबंधित सुख-दुख, मानव यातना एवं जीवन संघर्ष की सशक्त अभिव्यक्ति करते आए हैं।
- ऐसे समय में उनकी वैयक्तिक प्रणयानुभूति भी एकांतवासिनी न होकर लोक-गंधित हो उठती है। निराली की इस प्रवत्ति को उत्तर छायावाद काल में विशेष रूप से विकसित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
- जिसके परिणामस्वरूप उनकी इस प्रवत्ति ने दो रूप धारण किए (i) छायावाद इतर प्रगतिवादी कविताएं लिखना (ii) छायावादी काव्यधारा के स्वर का अधिक लोकोन्मुखी होना। प्रगतिवादी कविताओं में छंद, भाषा एवं भाव सभी दष्टियों से छायावादी प्रभाव से पूर्ण मुक्तता परिलक्षित होती है। इस प्रकार की कविताओं में 'कुकुरमुत्ता', 'प्रेम संगीत', 'गर्म पकौड़ी', 'रानी कानी', 'मास्को डायलाग्स', 'खजोहरा', 'नए पत्ते' तथा 'स्फटिक शिला' आदि विशेष उल्लेखनीय हैं जिनमें प्रगतिशीलता दार्शनिक रूप में नहीं अपितु लोकानुभूतियों के रूप में है।
- इनकी भाषा लोकभाषा है। मुहावरे लोक तथा शैली भी लोक हैं। लोक कथात्मक तथा संवादात्मक शैली प्रयुक्त है। निराला इस तथ्य से अवगत थे कि लोक जीवन को केवल उसके भाव, दश्य एवं व्यापार से नहीं ग्रहण किया जा सकता अपितु उस हेतु भाषा अपेक्षित है। निराला ने छायावादी 'अणिमा', 'अर्चना' तथा 'आराधना' आदि कविताओं में एक से स्वानुभूतिपरक गीतों की संरचना की है दूसरी ओर 'विजय लक्ष्मी पंडित', 'प्रेमानंद', 'संत रविदास प्रसाद एवं बुद्ध आदि व्यक्तियों को अपनी प्रशंसात्मक कविताओं का विषम बनाया है। ये गीत विभिन्न प्रकार के हैं प्रेमसंवेदना प्रार्थना परकता, मानवीय संवेदना आदि की इनमें अभिव्यक्ति हुई है।
- सन् 1938 ई. से पूर्व की कविताओं में भी निराला की ये विशेषताएं दष्टिगोचर होती हैं। अनुपात भिन्नता अवश्य है। 'तुलसीदास' उत्तर छायावाद को निराला की विशिष्ट देन है। जिसमें भारत को सांस्कृतिक एवं सामाजिक पराजय के गृहवरगर्त से उबारने का दढ़ संकल्प है। निराला की लोकवादी कविताएं इस युग की नवीन देन हैं यद्यपि उन्हें कविता की उपलब्धि के स्वरूप स्वीकारा नहीं गया है किंतु भाषा एवं नवीन प्रयोग के रूप में उनका विशेष महत्व है। इन कविताओं में ठहराव को तोड़ने की शक्ति है जो जनजीवन से समग्र रूप से जोड़ती है। निराला इस काल की कविताओं में जीवनानुभूति के स्वरों में टूटन एवं पराजय की प्रमुखता है। जो उन्हें भक्तिभावना की ओर प्रेरित करती है। साथ ही कवि का संतुलित मानस प्रेम, भक्ति, खुलेपन एवं उलझाव का ऐसा समन्वित रूप प्रस्तुत करता है कि ये कविताएं उस उलझाव से ग्रसित हो जाती हैं।
सुमित्रानंदन पंत के काव्य की विशेषताएँ
- पंत इस कालावधि में स्वचिंतन एवं विषय में अधिक विकासशील रहे। सन् 1936 ई. में 'युगांत' की घोषणा करके पत ने सन् 1939 ई. में 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' की रचना की। जहां वे मार्क्सवाद, भौतिक दर्शन तथा जन-जीवन के सत्यों की ओर झुक गए। निराला ने चिंतन के द्वारा नहीं अपितु संवेदना और अनुभव के द्वारा जन-जीवन को अपनाया।
- इसलिए उनके काव्य को मार्क्सवादी या समाजवादी दर्शन का स्पष्ट स्वरूप नहीं मिल सका। जनजीवन अपने समस्त संवेदन के साथ व्यक्त हुआ।
- पंत ने मार्क्सवादी दर्शन को चिंतन के स्वर पर स्वीकारा। इसलिए वे मार्क्सवादी सिद्धान्त की अभिव्यक्ति करने में व्यस्त रहे। कवि ने मार्क्सवादी दृष्टि के प्रकाश में ग्रामीण जीवन की विविध छवियों का अति रमणीय चित्रांकन किया है। कुशल शिल्पी पंत को ग्रामीण बाह्य जीवन के यथार्थ ने जितना अपनी ओर आकर्षित किया है उतना आंतरिक चेतना ने नहीं।
- ‘ग्राम्या' के पश्चात् का कवि अरविंद के प्रभाव में आकर प्रगतिवाद के भौतिक भटकाव से मुक्त होकर आध्यात्मिक लोक की ओर अग्रसर हो जाता है। जिससे वैचारिक स्तर पर छायावाद को एक नवीन दिशा एवं समद्ध आधार सुलभ हो जाता है।
- मार्क्सवाद से संतुष्ट न होकर उसकी आवश्यकता को स्वीकारता है। प्रारंभ से ही कवि मानस मात्र के सुख, प्रेम एवं शांति का प्रबल कांक्षी रहा है। पंत इस तथ्य से अवगत थे कि एकांगी मार्क्सवाद मात्र भौतिक योग क्षेम की व्यवस्था करने में समर्थ है। इसे पर्याप्त न मानकर पंत अरविंद में भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद को समन्वित करने की अन्वेषणा करने में लग जाते हैं। समन्वय का यही स्वर उनकी परवर्ती रचनाओं स्वर किरण', 'स्वर्ण धूलि', 'शिल्पी' तथा 'लोकायतन में दष्टिगोचर होता है।
- पंत की काव्य विकासीय यात्रा में काव्य पक्ष दबता गया है, धारणा पक्ष उठता गया है जिसके परिणामस्वरूप वे मानव समाज की समस्याओं, उनके समाधानों तथा नवीन विचारों को धारणा एवं आकांक्षा के स्तर पर स्वीकारते हैं, अनुभूति के स्तर पर नहीं।
- मार्क्सवाद एवं अरविंद दर्शन दोनों ही पंत काव्य को समृद्ध बनाने में सहायक एवं सफल नहीं हो सके हैं।
महादेवी वर्मा के काव्य की विशेषताएँ
'दीपशिखा' महादेवी वर्मा का उत्कृष्ट काव्य है। प्रेम उनका प्रमुख विषय है। संयोग-वियोग के उभार में प्रेम को विभिन्न दष्टिकोणों से उन्होंने अपने अनुभव के आलोक में झांका है। वेदना उनकी मूल संवेदना है जो विरह जन्य है। करुण वेदना एवं निराशा से आक्रांत इनका प्रारंभिक काव्य दीपशिखा' कुछ आलोक प्राप्त करने में सफल हो सका है। आशा, उल्लास एवं मिलन भाव द्रष्टव्य हैं
(i) सब बुझे दीपक जला लूं।
फिर रहा तम आज दीपक रागिनी अपनी जगा लूं।
(ii) हुए शूल अक्षत मुझे धूलि चंदन।
अगरु धूम सी सांस सुधि गंध सुरभित ।
- महादेवी में गीति काव्य के उत्कर्ष की अति संभावना है। लेकिन यह रहस्यात्मकता का आवरण उनके प्रभाव की तीव्रता को कुंठित करने में सफल हो जाता है। संवदेनाएं सीमित है जो विभिन्न प्रतीकों एवं रूपकों के आधार पर अभिव्यक्ति प्राप्त करती हैं। प्रतीक एवं रूपक भी अति सीमित एवं अभिजात हैं।
- लौकिक संवेदनाएं रहस्यवादी आभास से संपक्त होकर नए अर्थ का विस्तार करती हैं किन्तु उनकी लौकिक मूर्तता, प्रत्यक्षता तथा तीव्रता विलीन हो जाती है। महादेवी के प्रमुख प्रतीक चंदन, दीप, मेघ, क्षितिज, मंदिर, करुण, आकाश, धूलि, सागर, विद्युत हैं जिन्हें पुनः पुनः भावाभिव्यक्ति हेतु प्रयुक्त किया जाता है। परिणाम यह होता है कि रहस्यात्मक संकेत उन्हें उलझा लेते हैं। वैयक्तिक एवं छायावादी सीमाओं के होते हुए भी महादेवी छायावाद की विशिष्ट ही नहीं समर्थ कवयित्री हैं तथा 'दीपशिखा' उनकी विशिष्ट कृति है। रहस्य एवं संकोच के आवरण के होते हुए भी कवयित्री की अंतरंग निजता उनके गीतों में प्रवाहमान रहती है। कहीं-कहीं उनकी पारदर्शिता समग्र दश्यों को समेटकर उसी की ओर संकेतित करने लग जाते हैं वहां उनके गीतों की रचना अति उत्कृष्टता को प्राप्त करती है। महादेवी के गीतों में सूक्ष्म चित्रात्मकता सर्वत्र विद्यमान है। उनके चित्र रूप जगत तथा भावजगत दोनों के हैं। रूप जगत के चित्रों की संयोजना कवयित्री के मानसिक संदर्भ में ही की गई है। लोक परिवेश और लोक भाषा से दूर, सीमित आत्मानुभूति की परिधि में विचरण करने वाले, भाषा की अभिजात छवि से मंडित ये गीत शब्द चयन, पद संतुलन बिंब ग्रहण, प्रांजलता, कोमलता और स्वर लय में अपनी अति विशिष्टता का प्रतिपादन करते हैं।
वैयक्तिक गीति काव्य के कवि और विशेषताएँ
- कवि दष्टि एवं विषय के दष्टिकोण से छायावाद एवं वैयक्तिक गीति काव्य में अत्यधिक समानता है। कवि दष्टि रोमानी है वस्तु जगत के प्रति इनकी प्रतिक्रिया अत्यंत भावुक है। इनका संबंध वस्तु जगत से नहीं अपितु वस्तु जगत की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न स्व सुख-दुखात्मक आवेग से था। इनकी कविताओं में भयंकर आत्म संपक्ति एवं उत्तेजना मिलती है। इनका काव्य विषय मूलतः सौंदर्य एवं प्रेम तथा उसके कारण उत्पन्न उल्लास एवं विषाद की अनुभूति थी। गीति को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। क्योंकि इनके काव्य विषय की प्रकृति छायावादी काव्य की प्रकृति के समान गीतात्मक है। इनकी कृतियों में संकोच, रहस्यमत्यता तथा आदर्शवादिता को स्थान नहीं मिला है। बड़े उत्साह के साथ स्पष्ट तौर पर ये अपने वैयक्तिक प्रेम संवेग एवं सुख-दुख को व्यक्त करने के लिए छटपटाते रहते हैं। इनकी वेदना सामान्य न होकर वैयक्तिक है जो अनुभव का बिंब उकेरने में पूर्ण सफल हैं। मैं द्वारा वैयक्तिक गीत स्व अनुभव व्यक्त करते हैं। वैयक्तिक गीत काव्य का 'मैं' बिना किसी संकोच, मर्यादा, भय या आतंक डर के निर्व्याज भाव से राग विराग के साथ स्वतः बह निकलता है।
- लौकिक प्रेम इनकी केन्द्रीय वृति है। प्रेम के संयोग-वियोग जन्य उल्लास, पीड़ा, उदासी, टूटन एवं असंतोष आदि का सघन स्वर इनकी कविताओं में मुखरित हो उठता है। परिवेश अनुभव एवं संस्कारानुसार कवि स्वरों में वैविध्य पाया जाता है किंतु मूल वत्ति में कोई अंतर दष्टिगोचर नहीं होता है। प्रेम लौकिक सौंदर्यालंबन पर आधारित होने के फलस्वरूप अधिक मूर्तता ग्रहण करता है। इनका हर्ष-विषाद, आदर्श का छलिया नहीं है जो भू-नभ के मध्य झुकना नहीं जानता है। पथ्वी के विशुद्ध धरातल पर यात्रा करने वाला भू परिवेश के मध्य एवं स्व-स्वरूपानुसार अत्यधिक स्पष्ट एवं उघड़ा हुआ होता है। हरिवंश राय बच्चन के 'निशा निमंत्रण' एवं एकांत संगीत काव्य यदि प्रेम के विषाद की गहनता को व्यक्त करते हैं तो मिलन-यामिनी, मिलन की मादकता तथा उमंग को नरेंद्र शर्मा के प्रवासी के गीत में यदि लौकिक विरह-व्यथा की प्रधानता है तो अन्य कृतियों में प्रेयसी के सौंदर्य, भोग और संयोग की ऊष्मा के मादक चित्र भी विद्यमान हैं। यही स्थिति इस धारा के अन्य कवियों अंचल, नवीन एवं दिनकर आदि की कविताओं में दष्टिगोचर होती है।
- वैयक्तिक गीति काव्य धारा का मूल स्वर प्रेम है। प्रेम जन्य व्यथा एवं उदासी सर्वत्र व्याप्त है। इनकी स्वच्छंद वत्ति सौंदर्य और प्रेम की पिपासा लिए उड़ान भरती है, उसकी तप्ति कहीं नहीं हो पाती जिससे उड़ान की तीव्रता में इनका सामाजिक प्रतिबंधों से टकराव होता था। परिणाम टूट जाते थे। टूटन विरह व्यथा का रूप धारण कर लेती थी जिससे कवि को यह अनुभूति होती थी कि विश्व को उसके ये गीत वासना के गान प्रतीत हो रहे हैं। अनुभव के इन सत्यों को उसका स्वच्छंद हृदय अनियंत्रित, निर्लिप्त भाव से गाना चाहता था। हरिवंश राय बच्चन ने अपने और सामाजिक तनाव को स्पष्ट अनुभव करते हुए 'मधुकलश' में लिखा है-
(i) "कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा।"
(ii) "वद्ध को क्यों अखरती है क्षणिक मेरी जवानी।"
(iii) "शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा।"
- निराशा एवं उदासी के स्वर की मुखरता मात्र प्रेम मूलक नहीं है अपितु जीवन के अन्य संदर्भों को भी उसकी मुखरता का अवलोक कहा जा सकता है। देश की परतंत्रता सामाजिक कुरीतियों अंघ विश्वासों, धार्मिक बाह्याडंबरों, आर्थिक विषमता आदि के अनुभव की भयंकरता से गुजरता हुआ अकेला, स्वच्छंद, संवेदनशील युवा मानव पुनः पुनः अपनी टूटन का अनुभव कर रहा है। उसका वैयक्तिक आक्रोश का स्वर संपूर्ण कुरूपताओं को अस्वीकारता हुआ स्वयं को कहीं स्वीकृत न पाता हुआ 'स्व' में ही प्रत्यावर्तित हो जाता था। अपने को आत्मपीड़न, कुंठा, संत्रास, टूटन, घुटन की एक नवीन चादर से आच्छादित कर उन्हीं अनुभूतियों को गाता चलता था। इनके पास जीवन दष्टि का अभाव था न तो पुरानी आध्यात्मिक जीवन दष्टि थी न नवीन समाजवादी दृष्टि। इनके अनुभव ही इनका परिचालन कर रहे थे। इनके अनुभव भावुक हृदय के अनुभव थे। उनका दृष्टिकोण रोमानी था अतः वे व्यक्ति को न तो सामाजिक शक्ति से जोड़ सके न आध्यात्मिक आदर्शों से जीवन दष्टि के अभाव में ये व्यक्तिवादी अनुभव निराशा, मत्यु की छाया और नियति बोध से ग्रसित हैं। इनका अनुभव जहां अपनी तीव्रता में सूक्ष्म, किंतु खुले हुए बिंबों की रचना में एक नवीन साहित्यिक सौंदर्य की सष्टि करता है। वहां अपने आत्यंतिक अकेलेपन, उदासी और अपने दोहराव में क्षयोन्मुख दष्टिगोचर होने लगता है। जहां यह काव्यात्मक दृष्टि से सपाट हो जाता है वहां अपनी सार्थकता किसी भी प्रकार प्रमाणित नहीं कर पाता है।
“कितना अकेला आज मैं
संघर्ष में टूटा हुआ
दुर्भाग्य से लूटा हुआ परिवार से छूटा हुआ, किंतु अकेला आज मैं । "
- एकांत संगीत
- वह अकेला अपने चारों ओर मात्र अवसाद देखता है। अवसाद खुला हुआ लौकिक अवसाद है। कवि का साथ ईश्वर ने भी छोड़ दिया है। देवता भी नहीं है। समाज की रूढ़िवादिता भी नहीं है। कोई संस्था नहीं है। उसे किसी का आश्रय अर्थात् तिनके का भी सहारा प्राप्त नहीं है। सहारा मात्र प्रेयसी के मिलन की आशा है जो दूर कहीं तारा सी टिमटिमा रही है किन्तु मग मरीचिका में प्रेयसी से मिलन भी नहीं हो पाता है। ऐसी अवस्था में कवि अपनी नंगी पीड़ा, असफलता, निराशा को प्रत्यक्ष बेलौस झेलता हुआ जीवन को असफल एवं निराधार अनुभव करता है।
इस प्रकार की वैयक्तिक, निराशापूर्ण, निराधार अनुभव-यात्रा के दो परिणाम दष्टिगोचर होते हैं-
(i) यह विश्वास निश्चित हो गया है कि जीवन क्षणभंगुर है। इस अवसाद - विषय के विस्तार में यदि उल्लास के कुछ क्षण मिल जाते हैं तो उन्हें मस्ती से भोगो भोग के समय आगा-पीछा मत देखो।
(ii) कवि को विश्वास है मद्यपान दुखों से छुटकारा दिलाता है इसलिए अपने दुखों को भुलाने के लिए मधु का सहारा लेता है। क्योंकि अन्य सहारों का उसे सहारा नहीं है। इतना ही नहीं वह अपनी मादकता, प्रेम या उल्लास की उत्तेजना को तीव्र करने हेतु मधुशाला के मार्ग पर चल पड़ता है क्योंकि मधुपान करना चाहता है।
- यह मधु शनैः शनैः इतना आत्मीय हो जाता है कि वह अन्य जीवन सत्यों का प्रतीक बन जाता है। 'मधुशाला' एवं 'मधुबाला' में ऐसा ही हुआ है। वैयक्तिक गीति काव्य में कहीं-कहीं प्रगतिवादी कविता जैसा विद्रोह ध्वनित हुआ है जैसे बच्चन के बंगाल का काल नरेन्द्र शर्मा के 'अग्निशस्य अंचल की किरण बेला' तथा शंभुनाथ सिंह के मन्वंतर' आदि में समाज में व्याप्त असंतोष तथा वैयक्तिक अस्वीकृति की प्रबल भावना के कारण कवियों में विद्रोही भावना परिलक्षित होती है। विद्रोह के ये दो प्रमुख कारण हैं किन्तु इस धारा में व्याप्त समस्त विद्रोह स्वर मूलरूप से समान है। उसमें वैयक्तिक भावावेश का आधिक्य है। सामाजिक दर्शन तथा रचनात्मक चिंतन अपेक्षाकृत न्यून है।
- अभिव्यक्ति की सादगी वैयक्तिक गीति काव्य की प्रमुख विशेषता एवं देन है। कवि अति सीधे-सादे शब्दों का प्रयोग करके अपने गहनातिगहन भावों की अभिव्यक्ति अति सहजता एवं सरलता से करता सर्व परिचित चित्रों तथा सरल, लघु सारगर्भित कथन भंगिमा से अपने कथ्य को सहृदय तक प्रेषित कर देता है। इसलिए कवि की शक्तियां-अशक्तियां दोनों अति स्पष्टता से उभर कर सामने आती हैं। शक्तियों की यह विशेषता है कि वे अस्पष्ट बिंबों में अपने को उलझाकर अपनी तीव्रता एवं प्रभाव नष्ट नहीं करती हैं तथा अशक्तियां रहस्यात्मकता का लाभ उठाकर अपनी महानता को आभासित नहीं कर पातीं। गीति काव्य के कवियों की संवेदना भक्तिवादी है। किन्तु वे अपने को जिस माध्यम परिवेश, प्रकृति चित्र, बिम्ब, उपमा, भाषा आदि के द्वारा व्यक्त करना चाहते हैं वह अति परिचित होता है, लोक का निकटस्थ होता है इसलिए मांसल एवं मूर्त की प्रतीति करवाता है। काव्य भाषा संस्कृतनिष्ठ होते हुए भी शब्द चयन, पद विन्यास हमें अपना सा प्रतीत होता है। बोलचाल के शब्दों और मुहावरों का पर्याप्त प्रयोग भाषा को जीवंत रूप प्रदान करता है।
वैयक्तिक गीति काव्य धारा के कवियों में हरिवंशराय बच्चन, नरेंद्र शर्मा तथा रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के नाम प्रमुख हैं-
हरिवंशराय बच्चन- वैयक्तिक गीति काव्य धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि
- वैयक्तिक गीति काव्य धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हरिवंश राय बच्चन हैं। धारा की समस्त संभावनाएं एवं सीमाएं बच्चन में एकत्रित हैं। बच्चन मूलतः आत्मानुभूति के कवि हैं। आत्मानुभूति की सघनता वाली कृतियां तीव्र प्रभावोत्पादक एवं मर्मस्पर्शी हैं।
- आत्मानुभूति के साथ अवधारणा का समावेश हो जाने के परिणामस्वरूप प्रभावान्विति टूट-टूट गयी है। 'निशा निमंत्रण', 'एकांत संगीत' तथा 'मिलन यामिनी' के गीत इस दष्टिकोण से यदि गीत काव्य की उपलब्धियां हैं तो अवधारणाएं अनुभूतियों के रंग में सराबोर हैं। बच्चन ने स्वानुभूति जन्य सौंदर्य, सुख-दुख तथा प्रेम विषयक गीत अति उन्मुक्तता तथा सहजता से गाए हैं।
- यहीं तक अपने को सीमित न करके सामाजिक विकृतियों के चित्रण तक पहुंचाया है। उनके प्रति विद्रोही भावना भी दष्टिगोचर होती है। बच्चन के गीतों ने अपनी सहज भाषा और अनुभूति की निश्छलता के फलस्वरूप गीति काव्य को नवीन गरिमा प्रदान की है। लेकिन जब उनमें उत्तेजना आ जाती है, भाषा सपाट हो जाती है, शब्द बिंबों का अपव्यय होता है तथा स्फीति आ जाती है तब अप्रभावी हो जाते हैं। बच्चन के काव्य सौंदर्य के धरातल ऊंचाई-निचाई एवं सपाटता की अत्यधिक विषमता दष्टिगोचर होती है। बच्चन ने निर्भय भाव से अपने परिचित विश्व का परित्याग कर यथार्थवादी नवीन विश्व में पदार्पण किया है तथा उसके अनुसार भाषा की खोज की है।
नरेंद्र शर्मा के काव्य की विशेषताएँ
- नरेंद्र शर्मा के गीत अपनी विशिष्टता के फलस्वरूप औरों से भिन्न हैं। उनमें आत्मीयता एवं चित्रात्मकता की प्रधानता है। सुख-दुख का निवेदन बिना किसी माध्यम के सीधे प्रेमपात्र को किया गया है। माध्यम के अतिरिक्त किसी अवधारणा या छल कपट अथवा बांकपने को भी अवसर नहीं मिला है। गीतों के परिवेश में कवि एवं सहृदय दोनों के परिवेश का समन्वय होता है। जो कवि के अनुभवों को जीवंत बनाता है। ऐसा लगता है नरेंद्र शर्मा के गीत अपने हैं। इनमें प्राकृतिक परिवेश भी होता है।
- नरेंद्र के गीति काव्यों का विषय मानवीय सौंदर्य, प्राकृतिक सौंदर्य तथा तज्जन्य विरह मिलन की अनुभूतियां हैं। इन्होंने सामाजिक यथार्थ का सफल चित्रण किया है। सामाजिक विसंगतियां इनके लिए असह्य हैं इसलिए उनके प्रति इनकी विद्रोही प्रवत्ति परिलक्षित होती है। नरेन्द्र की दष्टि रोमानी है जिसमें सामाजिकता का समावेश है।
रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के काव्य की विशेषताएँ
- व्यक्तित्व- रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल' का जन्म सन् 1915 ई. में किशनपुर में हुआ था एम.ए. की शिक्षा प्राप्त करके जबलपुर में के इंस्टीट्यूट ऑफ लैंग्वेजेज़ ऐंड रिसर्च के हिंदी विभागाध्यक्ष रहे। बाद में राजकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रायगढ़ के आचार्य हो गए।
साहित्यिक विशेषताएं-
- 'अचल' तीव्र रोमानी संवेदना के कवि हैं। उनकी यायावर प्रवत्ति के फलस्वरूप उनके सामाजिक यथार्थ वाले काव्यों में रोमानी संवेदना प्रमुख रूप से दष्टिगोचर होती है। रूपासक्ति, वासना, पीड़ा एवं जिजीविषा में इनका उद्दाम रूप ही दिखलाई पड़ता है जिसने इनके काव्य का सजन किया है। वासना की प्रबलता इनके काव्य को सामाजिक संयम से अलग कर देती है। रचनात्मक स्तर पर उनमें गहनता तथा संश्लिष्टता का अभाव आ जाता है उसका स्थान उत्तेजना ग्रहण कर लेती है। 'अंचल के व्यक्तित्व पर स्नायविक तनाव इतना हावी है कि वे लगातार येनकेन प्रकारेण काव्य में श्रंगारिक प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति करते रहते हैं इसके अभाव में उन्हें संतुष्टि नहीं मिलती है।