दक्खिनी हिंदी साहित्य
'दक्खिनी' शब्द का अर्थ
- 'दक्खिनी' शब्द का विश्लेषण है जो 'दक्खिन' से व्युत्पन्न है। दक्खिन 'दक्षिण' का तद्भव रूप है जिसका अर्थ दक्षिण दिशा से है। इस दक्खिनी हिंदी का सामान्य अर्थ दक्षिण अर्थात् दक्षिणी भारत में प्रयुक्त होने वाली भाषा हिंदी। 'दक्षिणी' का तद्भव रूप 'दक्खिनी है। दक्खिनी अर्थ दक्षिण दिशा में पड़ने वाले देश के निवासी था उनकी भाषा को दक्खिनी कहते हैं।
दक्खिनी हिंदी साहित्य
- मध्य युग में दक्षिण भारत में प्रचलित हिंदी का वह रूप जिसमें मुसलमान कवि कविता करते थे और आधुनिक उर्दू के विकास का घनिष्ठ संबंध है। दक्खिनी, दखनी या दकनी का प्रयोग दो अर्थों में होता है। इसका अर्थ है दक्षिण निवासी मुसलमान। दूसरा अर्थ है, दक्खिनी या दकनी ज़बान (भाषा)। हाब्सन - जाब्सन कोश के अनुसार देकनी' हिंदुस्तान की एक विचित्र बोली है जिसे दक्षिण के मुसलमान बोलते हैं। दक्खिनी देश की स्वाभाविक भाषा है। दक्खिनी हिंदी की एक शैली है। इसका यह नाम देशपरक है इसमं अपेक्षाकृत विदेशी (अरबी, फारसी) शब्दों की मात्रा भी अल्प है।
- अबकर के समय में मुगल सम्राटों की भाषा ने हिंदुस्तानी को नया रूप प्रदान किया। अकबर द्वारा लिखी ब्रजभाषा की पंक्तियों तथा मिर्जा खां द्वारा प्रयुक्त 'तुहफातुल हिंद' दक्षिण में जिस भाषा का उदय हुआ उसे 'उर्दू' नाम दिया गया। यह वास्तव में हिंदी अर्थात् हिंदवी का ही एक रूप है जिसमें अरबी फारसी के शब्दों का बाहुल्य है।
- 15वीं शताब्दी में अमीर खुसरो की भाषा हिंदी हिंदुस्तानी थी। सिक्खों की भाषा तथा उसके गुरुपद हिंदुस्तानी में मिलते हैं। उस समय भारतीय मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ। तत्संबंधित भाषाएं दक्षिण में उत्तरी भारत की भाषाओं से भिन्न रूप ग्रहण करने लगीं। उत्तरी भारत वाले मुसलमान दक्षिण भारत आकर जिस हिंदी या हिंदुस्तानी का प्रयोग करते थे उसे दकनी हिंदी या दकनी कहा गया। इसी में साहित्य का विकास होने लगा। 15वीं, 16वीं तथा 17वीं सदी के लेखकों ने दकनी हिंदी द्वारा फारसीकरण का मार्ग प्रशस्त किया। अर्थात् दक्षिण की हिंदुस्तानी में अरबी-फारसी के शब्दों के प्रयोगधिक्य के द्वारा फारसीकरण किया जाने लगा। फारसी अरबी की लिपि को बढ़ावा मिला।
- 'आधुनिक कालीन दकनी' पर उत्तरी भारत की उर्दू का अधिक प्रभाव पड़ा जिसके परिणामस्वरूप दकनी' अब केवल एक स्थानीय बोली मात्र नहीं रह गई। अपितु दक्खिनी ने साहित्यिक रूप ग्रहण करना प्रारंभ कर दिया। 17वीं व 18वीं शताब्दी के उत्तरी भारत के मुसलमानों द्वारा प्रयोग किया जाने लगा तथा 'दक्खिनी' को नया नाम 'रेख्ता' दिया गया। यह बाहरी उपादानों की परिपुष्ट तथा पचावट की 'यावनी भाषा बनी। यवनों की भाषा को 'यावनी' कहा गया। उसे उर्दू या मुसलमानी हिंदी का प्रचार प्रसार दिल्ली लखनऊ तक ही सीमित नहीं रहा अपितु खड़ी बोली से मिलकर कोलकाता तक पहुंच गया। खड़ी बोली जिसमें हिंदी एवं उर्दू का समन्वित रूप है उससे 19वीं सदी में कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदी उर्दू अर्थात् हिंदुस्तानी से खड़ी बोली गद्य का आविर्भाव हुआ।
डॉ. उदयनारायण तिवारी ने लिखा है-
"इसके अतिरिक्त गंभीरता से ग्रियर्सन के थिन पर विचार न करने से कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुस्तानी, रेख्ता, उर्दू दक्खिनी पर्यायवाची हैं, जो ठीक नहीं है।"
- साहित्यिक के प्राचीन नमूने 'दक्खिनी' में उपलब्ध हैं और बाद में वली औरंगावादी ने इसी में कविता की। अकबर के काल में दक्षिण में मालवा, खानदेश, बरीर तथा गुजरात आदि थे। औरंगजेब ने शासन विस्तार किया। छः प्रांतों - बरार, खानदेश, औरंगबाद, हैदराबाद अथवा बीदर तथा बीजापुर तक राज्य विस्तार कर दक्षिण की सीमा में वृद्धि की जहां की भाषा दक्खिनी थी। दक्खिन प्रदेश पर आक्रमण के कारण उत्तर भारत के अनेक व्यक्ति एवं परिवार जिनमें हिंदु मुसलमान दोनों थे दक्षिण गए। इस्लाम को ग्रहण करने वाले नव मुसलमान थे। सैनिकों के साथ उनका संस्कार तथा उनकी भाषा भी आई। उत्तर भारत के बिहार, अवध तथा राजस्थान से संबंध थे। इनकी संपर्क भाषा खड़ी बोली थी। खड़ी बोली दिल्ली के आस पास की भाषा थी किंतु इनकी लिपि नागरी न होकर फारसी थी। फ्रेंच विद्वान गासो-द-तासी ने दक्खिनी हिंदी की इस विशिष्टता को देखते हुए इसे राष्ट्रीय भाषा कहा है।
- दक्खिनी को हिंदवी' तथा हिंदी नाम से भी अवहित किया गया। हिंदवी आज भी दक्खिनी का पर्याय है। उस समय खड़ी बोली उत्तर भारत में उतना विकास नहीं कर सकी जितना विकास उसने दक्षिण में आकर किया जिसके प्रमुख कारण दूरस्थ दिल्ली, राजकार्यालयों में प्रयोग, हिंदू मुसलमानों में समन्वय, शांतिपूर्ण परिवेश तथा सूफी फकीरों का होना आदि है। दक्खिनी का इतिहास 14वीं से 18वीं सदी तक लगभग पांच सौ वर्ष में व्याप्त है। दक्खिनी के विकास केन्द्र बीजापुर, गोलकुंडा, गुलबर्गा एवं बीदर थे। बहमनी, कुतुबशाही एवं आदिलशाही राज्य दक्खिनी के पोषक एवं संरक्षक थे। दक्खिनी को प्रारंभ में हिंदवी के नाम से जाना जाता था।
डॉ. परमानंद पांचाल ने दक्खिनी का विवेचन करते हुए इसके
संपूर्ण स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है-
- दक्खिनी हिंदी हिंदी का वह पूर्व रूप है जिसका विकास प्राय 14 वीं से 18वीं सदी तक दक्षिण के बहमनी, कुतुबशाही और आदित्यशाही आदि राज्यों के सुल्तानों के संरक्षण में हुआ था। यह मूलतः दिल्ली के आस-पास की हरियाणी एवं खड़ी बोली ही थी जिस पर ब्रज, अवधी तथा पंजाबी के साथ मराठी, सिंधी, गुजराती और दक्षिण की सहवर्ती भाषाओं अर्थात् तेलुगु, कन्नड़ तथा पुर्तगाली आदि का भी प्रभाव पड़ा था और अरबी, फारसी, तुर्की तथा मलयालम आदि देशी विदेशी भाशाओं के शब्द भी प्रचुर मात्रा में ग्रहण किए थे। इसके लेखक और कवि प्रायः इस्लाम के अनुयायी थे। इसे एक प्रकार से सबसे मिश्रित भाषा कहा जा सकता है।