हिन्दी साहित्य में जीवनी लिखने की परंपरा
जीवनी लिखने की परंपरा
- भारतीय साहित्य में पाश्चात्य साहित्य जैसी जीवनी लिखने की परंपरा नहीं रही है। जीवनी के विषय में विचार विश्लेषण करते हुए अमत राय ने लिखा कि यह अकाट्य सत्य है कि हमारे यहाँ जीवनियों का एक सिरे से अकाल है, जबकि यूरोप की जबानों में यह चीज़ आसमान पर पहुँची हुई है, कोई बड़ा साहित्यकार नहीं है, कलाकार नहीं है, वैज्ञानिक नहीं है, जननायक नहीं हैं, जिसकी कई-कई जीवनियां, एक से एक अच्छी न हों।
भारतीय आत्म प्रकाशन के स्थान पर आत्म गोपन को महत्व देता है जबकि जीवनी साहित्य गोपन के स्थान पर प्रकाशन में विश्वास करता है। कृष्णानंद गुप्त ने इस विषय में लिखा है-
"हमारे देश के प्राचीन साहित्यकारों ने अपने विषय में कभी कुछ कहने की आवश्यकता नहीं समझी। यहाँ तक कि दूसरों के संबंध में भी वे सदा चुप रहे हैं। इसी से हमारे यहां आधुनिक युग में जिसे इतिहास कहते हैं वह नहीं है, जीवन चरित भी नहीं है और आत्म कथा नाम की चीज तो बिलकुल नहीं नहीं है।"
- भारतीय जीवन दृष्टि व्यष्टिमूलक न होकर समष्टिमूलक है। व्यक्तिवादी अपने को अन्यों के समक्ष रखने तथा अन्य के व्यक्तित्व का उद्घाटन करने में विश्वास रखता है।
जीवन में व्यष्टिवादी महत्व को प्रतिपादित करते हुए विश्वनाथ सिंह ने लिखा है-
"जीवनी और आत्म कथा के लिए लौकिक दष्टिकोण के अतिरिक्त व्यष्टिमूलकता भी होनी चाहिए, जिसका अभाव लौकिक संस्कृत में भी रहा है। भारतीय मनीषियों की चेतना इस काल में भी समष्टिमूलक रही है। वे समष्टि में ही अपना व्यष्टि विलीन कर देने के पक्षपाती थे।"
जिसके परिणामस्वरूप संस्कृत, पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश में जीवनी साहित्य का अभाव है।
हिंदी साहित्य के आरंभिक काल में जीवनी
- हिंदी साहित्य के आरंभिक काल में जीवनी का प्रारंभिकरूप चरित काव्यों तक सीमित रहा है। मध्यकाल में संतों, भक्तों एवं महात्माओं के जीवन चरित लिखने की परंपरा प्रोत्साहित हुई।
- भक्ति कालीन कवियों की श्रद्धा भावना ने उनकी जीवनी लिखने की प्रेरणा दी। संतों के जीवन चरित को परचई परिचय कहा गया। ऐसी परचईयों में कबीर जी की परचई, नामदेव जी की परचई, रैदास जी की परचई तथा मलूकदास जी की परचई आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके पश्चात् भक्तों के जीवन चरित्र संबंधी ग्रन्थों में नाभादास भक्त माल, गोकुल नाथ चौरासी वैष्णवन की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता तथा अष्ट सरवान की वार्ता आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
- अष्ट सरवान की अभिप्राय अष्ट छाप के कवियों से है। इन ग्रंथों का सजन वैष्णव धर्म की वृद्धि एवं पुष्टि हेतु किया गया है इसलिए इनमें तथ्यों का अभाव होने के कारण इन्हें जीवनी ग्रंथ की संज्ञा नहीं दी जा सकती है।
- वार्ता ग्रंथों के अतिरिक्त इस काल में आचार्य केशव दास वीर सिंह चरित सन् 1906 ई. जहांगीर- जस- चंद्रिका सन् 1621 ई. सूदन सुजान चरित तथा चंद्रशेखर हम्मीर हठ- सन् 1845 ई. आदि चरित काव्य की परंपरा में आते हैं।