आलोचना का विकास- भारतीय हिंदी साहित्य में
भारतीय साहित्य में आलोचना का विकास
- विद्वानों का यह मानना है कि आलोचना का विकास पाश्चात्य आलोचना के प्रभाव से भारत में आविर्भाव से हुआ। यह तथ्य भ्रामक है। भारतीय साहित्य में आलोचना का अति प्राचीन अस्तित्व है। भारतीय साहित्य के क्षेत्र में सर्वप्रथम सैद्धान्तिक आलोचना का विकास हुआ है जिसे काव्य शास्त्र या अलंकार शास्त्र के नाम से अभिहित किया जाता रहा है।
- प्राचीनतम काव्य शास्त्र की रचना भरत मुनि द्वारा रचित नाट्य शास्त्र है जिसमें साहित्य के मानदंड स्वरूप रक्ष सिद्धान्त को प्रतिष्ठापित किया गया है। साहित्य का मूल तत्व भाव है; रस सिद्धान्त भी भाव तथा भावनाओं के उद्वेलन की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण करता हुआ साहित्य की विषय वस्तु का वर्गीकरण एवं विश्लेषण प्रस्तुत करता है। काव्य में भाव तत्व को सर्वाधिक महत्व प्रदान करके रस सिद्धान्त के आचार्यों ने एक उचित दिशा में काव्य शास्त्र को आगे बढ़ाया है। रस निष्पत्ति को लेकर भट्ट लोलट, शंकुक, भट्ट नायक, अभिनव गुप्त तथा पंडित राज जगन्नाथ आदि ने विभिन्न वैयक्तिक मतों की प्रतिष्ठा की है। आगे चलकर भामह, उदभट, दंडी आदि आचार्यों ने रस के स्थान पर अलंकार को काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकारा है। अलंकार के संबंध में उनकी धारणाएं अति व्यापक थीं। उन्होंने अलंकार को सौंदर्य का पर्यायवाची माना है। परवर्ती युग में वामन रीति कुतक वक्रोक्ति, आनंद वर्धनाचार्य ध्वनि तथा क्षेमेन्द्र ने औचित्य को काव्य की आत्मा मानते हुए रस संप्रदाय अलंकार संप्रदाय, रीति संप्रदाय वक्रोक्ति संप्रदाय, ध्वनि संप्रदाय तथा औचित्य संप्रदाय की स्थापना की। काव्य शास्त्रीय आचार्यों ने रस, अलंकार रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति तथा औचित्य की विवेचना की।
- इससे स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत साहित्य में आलोचना का पर्याप्त विकास हुआ किन्तु यह आलोचना सिद्धान्त स्थापना तक ही सीमित रहा है, उनका व्यवहार विशद रूप में उपलब्ध नहीं होता है। जितना श्रम नए-नए सिद्धान्तों की स्थापना के लिए किया गया उतना श्रम संभवतः उनके प्रयोग में नहीं किया गया। आधुनिक युग की भांति हमें कहीं भी किसी भी प्रकार की आलोचना स्वतन्त्र ग्रंथ के रूप में नहीं मिलती। वास्तव में निर्णायात्मक पद्धति का प्रचलन था, लिखित विवेचना नहीं होती थी। व्याख्यात्मक आलोचना या टीका लिखने का प्रचलन संस्कृत में अधिक था।
हिंदी में आलोचना का विकास
- संस्कृत की काव्य शास्त्रीय परंपरा के अनुसरण पर हिंदी साहित्य के मध्यकाल अर्थात् भक्ति काल एवं रीति काल में सैद्धान्कि आलोचना का विकास हुआ। यह आश्चर्यचकित करने वाला तथ्य है कि हमारे प्रारंभिक सैद्धान्तिक आलोचनात्मक ग्रन्थ सिद्धान्त विवेचन हेतु नहीं लिखे गए अपितु भक्ति या श्रंगार अथवा काव्य रचना से प्रेरित होकर लिखे गए जिसमें सूरदास की साहित्य लहरी एवं नंददास की रस मंजरी प्रमुख हैं जिनमें नायक-नायिका भेद का निरूपण संस्कृत के काव्य शास्त्रीय ग्रंथरों के अनुसार किया गया है। किंतु इनका उद्देश्य नायक-नायिका भेद का निरूपण करना या समझाना नहीं है अपितु इनका एक मात्र लक्ष्य अपने आराध्य श्री कृष्ण एवं राधा की प्रेम लीलाओं में योगदान करना है। अकबर के दरबारी कवियों का उद्देश्य भी काव्य शास्त्रीय विवेचन न होकर रसिकता का पोषण करना था। ऐसे रसिक कवियों में कठकेश, रहीम, गोपा तथा भूपति आदि प्रमुख हैं।
- भक्तिकाल की भांति ही सत्रहवीं सदी के मध्य अर्थात् रीतिकाल में आचार्य केशव दास ने कविप्रिया एवं रसिक प्रिया की रचना की जिनका उद्देश्य काव्य शास्त्र के सामान्य नियमों एवं सिद्धान्तों का परिचय करना था। इनकी रचना पातुर प्रवीण राय को काव्य शास्त्र की शिक्षा देने के लिए हुई थी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि केशव की रचना में प्रौढ़ता नहीं है किंतु निःसन्देह उन्होंने ये रचनाएं विशुद्ध आचार्यत्व की प्रेरणा से प्रेरित होकर की थीं। केशव के आचार्यत्व का अनुसरण उसके परवर्ती कवियों ने भी किया जिन्हें उनकी कृतियों या प्रवत्तियों के आधार पर चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -
i. काव्य शास्त्रीय ग्रंथों के रचयिता
- अनेक कवियों ने काव्य शास्त्र के सभी अंगों का प्रतिपादन किया, जिनमें आचार्यत्व दष्टिगोचर होता है।
ii. रस एवं नायिका भेद संबंधी ग्रंथों के रचयिता
- इस वर्ग के कवियों का लक्ष्य आचार्यत्व कम मनोरंजक अधिक था। काव्य शास्त्र की आड़ में इन्होंने अपनी दमित, कुंठित काम वासनाओं कामुकता एवं रसिकता की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
III अलंकार शास्त्रीय ग्रंथों के रचयिता
- इस वर्ग के कवियों का उद्देश्य अलंकार का प्रतिपादन करना था। विद्यार्थियों को अलंकार की शिक्षा देने के लिए पाठ्य पुस्तकों के निर्माण को अपना लक्ष्य बनाया।
iv. नखशिख एवं षडऋतु ग्रंथों के रचयिता
- इन कवियों का उद्देश्य नारी सौंदर्य के वर्णन में नख-शिख सौंदर्य प्रणाली को उत्तेजना हेतु अपनाया था। संयोग श्रंगार के संचारी भाव के रूप में षडऋतु वर्णन को काव्य का रूप दिया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भक्ति एवं रीति काल में काव्य शास्त्रीय एवं अलंकार संबंधी ग्रंथों में ही समीक्षा के सिद्धान्तों एवं अलंकार संबंधी ग्रंथों में ही समीक्षा के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। किंतु इनका महत्व अधिक नहीं है क्योंकि इनका आधार संस्कृत काव्य शास्त्र है तथा इनकी भाषा ब्रजभाषा पद्य है। संस्कृत अनुवाद मात्र करना इनका लक्ष्य था। इनमें मौलिकता का पूर्ण अभाव है। विवेचन की प्रौढ़ता गंभीरता तथा स्पष्टता का भी अभाव है। इसलिए इन ग्रंथों को आलोचना के सच्चे स्वयप में नहीं स्वीकारा जा सकता है।