रामायण का मूल्यांकन - रामायण का अंगी रस
रामायण का मूल्यांकन - रामायण का अंगी रस
- इस विषय में आनन्दवर्धन का स्पष्ट कथन है कि रामायण के आरम्भ में 'शोकः श्लोकत्वमागतः' इस कथन के द्वारा वाल्मीकि ने स्वयं ही करूण रस की सूचना दी है और सीता के आत्यन्तिक वियोग तक अपने प्रबन्ध का निर्माण कर उन्होंने करूण रस का पूर्ण निर्वाह किया है। फलत रामायण का अंगीरस 'करूणा' ही है (ध्वन्यालोक, चतुर्थ उद्योत, पृष्ट 237) अन्य रस जैसे श्रृंगार और वीर अंग रस हैं। वाल्मीकि के अनुसरणकर्ता कवियों ने भी अपने काव्यों में करुण रस का परिपोष किया है।
- वाल्मीकि समग्र कविसमाज के उपजीव्य है, विशेषतः कालिदास तथा भवभूति के । इन दोनों महाकवियों ने रामायण का गाढ अनुशीलन किया था और इनकी कविता में हमें जो रस मिलता है उसमें रामायण की भक्ति कम सहायक नहीं रही है। कालिदास का श्रृंगार रस सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, परन्तु उनका 'करूण' रस कम प्रभावशाली नहीं कालिदास ने उभयविध 'करूण' को उपस्थित कर उसे सांगोपांग रूप से दिखलाया है।
- पत्नी की करूणा का रूप हम रघुवंश के 'अज-विलाप' में पाते है और पति के निमित्त पत्नी की करूण परिवेदना रति-विलाप के रूप में हमें रुलाती है। ताप लोहा भी पिघल उठता है, तब कोमल मानव-चित्त सन्ताप से मृदु बन जायगा - क्या इस विषय में संदेह के लिए स्थान है ? ‘अभितप्तमयोऽपि मार्दवं भजते कैव कथा शरीरिषु ?
- कालिदास के इन करूण वर्णनों में मानव-हृदय को प्रभावित करने की क्षमता है परन्तु भवभूति के उत्तर रामचरित में तो यह अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गया है। यह भवभूति का काम था कि उन्होंने सीता के वियोग में राम को रोते देखकर पत्थर को रूलाया है और वज्र के हृदय को भी विदीर्ण होते दिखाया है - अपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदय भवभूति ने करूण को 'एको रस: ' मुख्य रस, अर्थात् समस्त रसों की प्रकृति माना है और अन्य रसों को उनकी विकृति माना है।
- एको रसः करूण एव निमित्तभेदात् इस कथन के मूल को हमें वाल्मीकि के - अन्दर खोजना चाहिये। वाल्मीकि का यह महाकाव्य पृथ्वीतलों को विदीर्ण कर उगनेवाले उस विराट् वटवृक्ष के समान है, जो अपनी शीतल छाया से भारत के समस्त मानवों को आश्रय देता हुआ प्रकृति की विशिष्ट विभूति के समान अपना मस्तक ऊपर उठाये हुए खडा है।
- महाकाव्य प्रधानतया वीर रस प्रधान हुआ करते हैं, जिनमें युद्ध का घोष, विजय दुन्दुभि का गर्जन तथा सैनिकों का माहात्म्य प्रदर्शित होता है परन्तु रामायण माहात्म्य वीर-रस के प्रदर्शन में नहीं हैं। किसी देवचरित के वर्णन में भी रामायण का गौरव नहीं है; क्योंकि महर्षि वाल्मीकि ने जब आदर्श गुणों से मण्डित किसी व्यक्ति का परिचय पूछा, तब नारद ने एक मानव को ही उन अनुपम गुणों का भाजन बतलाया- ' -‘तैर्युक्तः श्रुतयां नरः' रामायण नर- चरित्र का ही कीर्तन है।
- भारतीय गार्हस्थ्य जीवन का विस्तृत चित्रण रामायण का मुख्य उद्देश्य प्रतीत हो रहा है। आदर्श पिता, आदर्श माता, आदर्श भ्राता, आदर्श पति 3 आदर्श पत्नी - आदि जितने आदर्शों को इस अनुपम महाकाव्य में आदि कवि की शब्द-तूलिका ने खींचा है वे सब गृहधर्म के पट पर ही चित्रित किये गये हैं। इतना ही क्यों, राम-रावण का वह भयानक युद्ध भी इस काव्य का मुख्य उद्देश्य नहीं है। वह तो राम-जानकी पति-पत्नी- की परस्पर विशुद्-प्रीति को पुष्ट करने का एक उपकरण मात्र है और ऐसा होना स्वाभाविक ही है।
- रामायण को भारतीय सभ्यता ने अपनी अभिव्यक्ति के लिये प्रधान साधन बना रखा है और भारतीय सभ्यता की प्रतिष्ठा गृहस्थाश्रम है। अतः यदि इस गार्हस्थ्य धर्म की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिये आदिकवि ने इस महाकाव्य का प्रणयन किया तो इसमे आश्चर्य ही क्या है ? रामायण तो भारतीय सभ्यता का प्रतीक ठहरा, दोनों में परस्पर उपकार्योपकारक भाव बना हुआ है। एक को हम दूसरी की सहायता से समझ सकते हैं।
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