रामायण का मूल्यांकन | महर्षि वाल्मीकि आदिकवि रचित रामायण का मूल्यांकन | Ramayan review in Hindi

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 रामायण का मूल्यांकन (Ramayan review in Hindi)

रामायण का मूल्यांकन | महर्षि वाल्मीकि आदिकवि रचित रामायण का मूल्यांकन | Ramayan review in Hindi
 

रामायण का मूल्यांकन Ramayan review in Hindi


रामायण का मूल्यांकन निम्न विषयों के अंतर्गत करेंगे - 


(क) जीवन के अस्थायी तत्वों के संगठन द्वारा निर्मित काव्य

 

  • इस प्रकार की साहित्यिक रचना किसी काल-विशेष के लिए ही रोचक और उपादेय होती हैउस काल या युग का परिवर्तन होने पर नई आर्थिक स्थिति या सामाजिक ढाँचा आने पर वह केवल पुरानी ही नहीं पड़ जातीबल्कि वह अनावश्यकअनुपादेयनिष्प्राण तथा निर्जीव बन जाती है। प्रत्येक युग में कतिपय समस्याएँ अपना विशिष्ट समाधान चाहती जैसे मध्ययुगीन यूरोप में 'फ्युडल सिस्टम' (सामन्तीय प्रथा)वर्तमान युग में वर्गों का परस्पर संघर्ष मालिक और मजदूर का परस्पर विद्रोहजमीदार तथा किसान का मनोमालिन्यजो किसी विशेष आर्थिक ढाँचे की उपज है। इन समस्याओं का समाधान अनेक मूल्यवान् कृतियों का प्रेरक रहा हैपरन्तु उस युग विशेष के परिवर्तन के साथ ही साथ ये कला-कृतियाँ भी विस्मृति के गर्त में विलीन हो जाती हैं।

 

ख ) जीवन के स्थायी मूल्यवान् तत्वोंतथ्यों तथा सिद्धान्तों पर आधारित काव्य कृतियाँ मानव-


  • जीवन बालू की भीत के समान शीघ्र ही ढहकर गिर जाने वाली वस्तु नहीं है। उसमें स्थायित्व पीछे आने वाली पीढ़ियों को राह दिखाने की क्षमता है। और यह सम्भव होता है महनीय शोभन गुणों के कारणजैसे उदात्तताअर्थ और काम की धर्मानुकूलतासंकट के समय दीन का संरक्षणविपत्ति के अघात से प्रताडित मानव को अपने बाहुबल से बचानाशरणागत का रक्षण आदि। इन्हीं गुणों की प्रतिष्ठा जीवन में स्थायिता तथा महनीयता की जननी होती है। ऐसे काव्यों को हम शाश्वत काव्य का अभिधान दे सकते हैं। वाल्मीकि का काव्य इस शाश्वत काव्य का समुज्जल निदर्शन हैक्योंकि वह मानव जीवन के स्थायी मूल्यवान् तत्वों को लेकर निर्मित किया गया है। 


संस्कृत की आलोचना-परम्परा में रामायण 'सिद्धरसप्रबन्ध कहा जाता है। कथा वस्तु की विवेचना के अवसर पर आनन्दवर्धन का यह प्रख्यात श्लोक है (पृष्ठ148): 


सन्ति सिद्धरसप्रख्या ये च रामायणादयः । 

कथाश्रया न तैर्योज्या स्वेच्छा रसविरोधिनी ।

 

अभिनव गुप्त की व्याख्या से 'सिद्धरसका अर्थ स्पष्ट झलकता है - 

  • सिद्धः आस्वादमात्र - शेष:नतु भावनीयो रसो यस्मिन् अर्थात् जिस में रस की भावना नहीं करनी पड़तीप्रत्युत पुत्रस्नेही भ्रातारस आस्वाद के रूप में ही परिणत हो गया रहता हैवह काव्य 'सिद्धरसकहलाता हैजैसे रामायण । 
  • श्रीरामचन्द्र का नाम सुनते ही प्रजावत्सल नरपतिआज्ञाकारी विपद्ग्रस्त मित्रों के सहायक बन्धु का कमनीय चित्र हमारे मानस पटल के ऊपर अंकित हो जाता है। जनकनन्दिनी जानकी का नाम ज्यों ही हमारे श्रवण को रससिक्त बनाता हैत्यों ही हमारे लोचनों के सामने अलोकसामान्य पातिव्रत की मंजुल मूर्ति झूलने लगती है। उनके कथन- मात्र से हमारा हृदय आनन्दविभोर हो उठता है। उनसे आनन्द की स्फूर्ति होने के लिए क्या राम के आदर्शचरित्र के अनुशीलन की आवश्यकता पड़ती हैहमारा हृदय राम कथा से इतना स्निग्धरस सिक्त तथा धुल-मिल गया है कि हमारे लिए राम और जानकी किसी अतीत युग की स्मृति न रहकर वर्तमान काल के जीवन्त प्राणी के रूप में परिणत हो गये हैं। इसीलिए रामायण को 'सिद्धरसकाव्य कहा गया है। 
  • वाल्मीकि विमल प्रतिभा से सम्पन्नदैवी गुणों से मण्डितआर्षचक्षु रखनेवाले एक महनीय 'कविथे । 'कविके वास्तविक स्वरूप की झलक आलोचकों को वाल्मीकि के दृष्टान्त से ही मिली । कवि की कल्पना में 'दर्शनके साथ वर्णनका भी मन्जुल सामरस्य रहता है। महर्षि को वस्तुओं का निर्मल दर्शन नित्यरूप से थापरन्तु जब तक 'वर्णनका उदय नहीं हुआ तब तक उनकी कविताका प्राकटय नहीं हुआ। 


समालोचकशिरोमणि भट्टतौत का यह कथन यथार्थ है :

 

तथा हि दर्शने स्वच्छे नित्येऽप्यादिकवेर्मुने । 

नोदिता कविता लोके यावज्जाता न वर्णना ॥

 

संस्कृत की काव्य-धारा रसकूल का आश्रय लेकर प्रवाहित होगी- 


  • इसका परिचय उसी मिल गया जब प्रेमपरायण सहचर के आकस्मिक वियोग से सन्तप्त क्रौन्ची के करूण निनाद को सुनकर वाल्मीकि के हृदय का शोक श्लोक के रूप में छलक पड़ा था- शोक श्लोकत्वमागतः । 


  • काव्य का जीवन रस हैकाव्य का आत्मा रस है- यह आदि कवि की आलोचना-जगत को महती देन है। वाल्मीकि के काव्य की सबसे बड़ी विशिष्टता है- उदात्तता ।पात्रों के चित्रणमेंप्रसंगों के वर्णन मेंप्रकृति के चित्रण में तथा सौन्दर्य की स्फूर्तिमें सर्वत्र उदात्तता स्वाभाविक रूप से विराजती है। आदिकवि के इस काव्य-मन्दिर की पीठस्थली है राम तथा जानकी का पावन चरित्र । राम शोभन गुणों के भव्य पुन्ज हैं। वाल्मीकि ने ही हमें रामराज्य की सच्ची कल्पना देकर संसार के सामने एक आदरणीय आदर्श प्रस्तुत किया राम कृतज्ञता की मूर्ति हैं वे किसी प्रकार किये गए एक भी उपकार से सन्तुष्ट जाते हैंपरन्तु सैकड़ो अपकारों का भी वे स्मरण नहीं रखते (2111):

 

कथन्चिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति । 

न स्मरत्यपकाराणां शतमप्यात्मकतया ॥

 

वे सदा दान देते हैंकभी दूसरे से प्रतिग्रह नहीं लेते। वे अप्रिय कभी नहीं बोलतेसत्यपराक्रम राम अपने प्राण बचाने के लिए भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं करते (3336) :

 

दद्यान्न प्रतिगृह्णीयान्न ब्रूयात् किन्चिदप्रियम्। 

अपि जीवितह्नतोर्वा रामः सत्यपराक्रमः ॥

 

राम पूर्ण मानव हैं। वे आदर्श पति हैं। सीता के प्रतिराम का सन्ताप चतुर्मुखी है। स्त्री (अबला) के नाश होने से वे कारूण्य से सन्तप्त हैं। आश्रिता के नाश से दया (आनृशंसय) के कारणपत्नी ( यज्ञ से सहधर्म-चारिणी) के नाश से शोक के कारण तथा प्रिया ( प्रेमपात्री) के नाश से प्रेम (मदन) के कारण वे सन्तप्त हो रहे हैं (5115149) -

 

स्त्री प्रणष्टेति कारूण्यादाश्रितेत्यानृशंस्यतः । 

पत्नी नष्टेति शोकेन प्रियेति मदनेने च ॥

 

राम के भातृ-प्रेम का परिचय हमें तब मिलता हैजब वे लक्ष्मण को शक्ति लगने पर अपने अनूठे हृद्गत भाव की अभिव्यक्ति करते है: 

 

देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः।

देशं न पश्यामि यत्र भ्रातासहोदरः ॥

 

प्रत्येक देश में स्त्रियाँ मिल सकती हैं तथा बन्धुजन भी प्राप्त हो सकते हैंपरन्तु मैं तो ऐसा देश ही नहीं देखता जहाँ सहोदर भ्राता मिल सके। अनूठी उक्ति है राम की यह । शत्रु के भ्राता विभीषण को बिना विचार किये ही शरणगति प्रदान करना राम के चरित्र का मर्मस्थल हैपरन्तु मेरी दृष्टि में उनकी उदात्तता का परिचय रावण-वध के प्रसंग में हमें मिलता है। राम का यह औदार्य आज तो कल्पना के भी बाहर है:-

 

मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं न प्रयोजनम् । 

क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ।।

 

हे विभीषणवैर का अन्त होता है शत्रु के मरण से रावण की मृत्यु के साथ ही साथ हमारी शत्रुता भी समाप्त हो गई । उसका दाह संस्कार आदि क्रिया करो। मेरा भी वह वैसा ही है जैसा तुम्हारा । 'मामाप्येष यथा तव' - रामचरित्र की उदात्तता का चरम उत्कर्ष है।

 

भगवती जनक- नन्दिनी के शील-सौन्दर्य की ज्योत्स्ना किस व्यक्ति के हृदय को शीतलता और शान्ति नहीं प्रदान करती जानकी का शील वाल्मीकि की प्रतिभा का विलास हैपातिव्रत धर्म का उत्कर्ष है आर्य- ललना की विशुद्धि का प्रतीक है। रावण को सीता की यह भर्त्सना कितनी उदात्तता है (5137/62): 

चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम् । 

रावणं कि पुनरहं कामयेयं विगर्हितम् ॥

 

इस निन्दनीय निशाचर रावण से प्रेम करने की बात दूर रहीमैं तो इसे अपने पैर सेनहींबाएँ पैर से भी नहीं छू सकती। 


अपनी पीठ पर बैठकर राम के पास पहुँचा देने के हनुमान के प्रस्ताव को ठुकराती हुई सीता कह रही हैं कि मैं स्वयं किसी भी परपुरूष के शरीर का स्पर्श नहीं कर सकती।रावण का तो स्पर्श अनाथ तथा असमर्थ होने से ही मुझे करना पड़ा था। सीता की यह चिर स्मरणीय उक्ति विशुद्धि के चरम की सूचिका है (5/37/62):

 

भर्तुर्भक्ति पुरस्कृत्य रामादन्यस्य वानर । 

नाहं स्प्रष्टुं स्वतो गात्रमिच्छेयं वानरोत्तम ॥

 

परित्याग के समय भी सीता का धैर्य तथा उनका उदार चरित्र वाल्मीकि की लेखनी का चमत्कार है जिसे कालिदास और भवभूति ने अपने ग्रन्थों में अक्षरशः चित्रित किया है। 

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