रामचरित्र मर्यादा पुरुषोत्तम का मूल्यांकन
रामचरित्र मर्यादा पुरुषोत्तम का मूल्यांकन
- आदिकवि ने अपने काव्य-मन्दिर की पीठ पर प्रतिष्ठित किया है मर्यादा पुरुषोत्तम महामानव महाराजा रामचन्द्र को विभिन्न विकट परिस्थितियों के बीच में रहकर व्यक्ति अपने शील के सौन्दर्य की किस प्रकार रक्षा कर सकता है यह हमें वाल्मीकि ने ही सिखलाया है। यदि आदिकवि ने इस चरित्र का चित्रण न किया होता, तो हमे मंजुल गुणों के सामन्जस्य का परिचय कहाँ से मिलता ? इसके शब्दों में इतनी माधुरी है, चित्रों में इतनी चमक है कि मानव के कान और नेत्र इसके परिशीलन से एक साथ ही आप्यायित हो उठती हैं।
- रामायण को जितनी बार पढा जाय, उतनी ही बार उसमें नयी नयी बाते सूझती हैं। इन सरल परिचित शब्दों में इतना रस परिपाक हुआ है कि पढनेवालों का चित्त आनन्द से गद्गद् हो उठता है। सच बात तो यह है कि रामायण के इन अनुष्टुपों को पढ़कर शताब्दियों से भारत का हृदय स्पन्दित होता आ रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा।
- राम के किन आदर्श गुणों के अंकन में यह लेखनी प्रवृत्त हो ? उनकी कृतज्ञता का वर्णन किन शब्दों में किया जाय ? राम तो किसी तरह किये गये एक ही उपकार से सन्तुष्ट हो जाते है; और अपकार चाहे कोई सैकड़ों ही करे, उनमें से एक का भी स्मरण उन्हें नहीं रहता। अपकारों को भूलने वाला हो तो ऐसा हो। उनके क्रोध तथा प्रसाद दोनों ही अमोध है। अपने अपराधों के कारण हनन योग्य व्यक्तियों को बिना मारे वे नहीं रहते और अवध्य के ऊपर क्रोध के कारण कभी उनकी आँख भी लाल नहीं होती (2/4/6)
नास्य क्रोधः प्रसादो वा निरर्थोऽस्ति कदाचन ।
हन्त्येष नियमाद् वध्यानवध्येषु न कुप्यति ।।
- राम का शील कितना मधुर है। वे सदा दान करते है, कभी दूसरे से प्रतिग्रह नहीं लेते । वे अप्रिय कभी नहीं बोलते। साधारण स्थितिकी बात नहीं, प्राणसंकट उपस्थित होने की विषय दशा में भी सत्य पराक्रम वाले राम इन नियमों का उल्लंघन नहीं करते। अपने कुटुम्बियों के प्रति उनका व्यवहार कितना कोमल तथा सहानुभूति पूर्ण है सीता के प्रति राम के प्रेम का वर्णन करते समय आदिकवि ने मनस-तत्व का बड़ा ही सूक्ष्म निरीक्षण प्रस्तुत किया है।
- राम सीता के वियोग के चार कारणों से सन्तप्त हो रहे है। सीता के प्रति उनके परिताप का कारण चतुर्मुखी है धर्मशास्त्र आपत्ति में स्त्री की रक्षा करने का उपदेश होता है, परन्तु राम से यह न हो सका, अतः वह अबला स्त्री की रक्षा न कर सकते के कारण 'कारूण्य से सन्तप्त हैं। बन में सीता राम की आश्रिता थी, परन्तु राम ने अपने आश्रित की रक्षा नहीं की, अत: 'आनृशंस्य' आश्रित जनोंके संरक्षक स्वभावसे सन्तप्त हैं। सीता उनकी पत्नी सहधर्मिणी ठहरी। उनके नष्ट होने पर श्रीराम के धर्म का पालन क्योंकर हो सकेगा, अत: शोक से; वे उनकी प्रिया, प्रियतमा ठहरी, परम सुख की साधिका ठहरी । उस परम लावण्यमयी पत्नी के नाश ने उनके हृदय में अतीत के उस आनन्दमय जीवन की मधुर स्मृति जगा दी है - इस कारण प्रेम से । इन नाना भावों के कारण सीता के वियोग में राम सन्तप्त हो रहे हैं।
- वाल्मीकि की दृष्टि में मानव-जीवन में सबसे श्रेष्ठ पदार्थ है और इसी चरित्र से युक्त व्यक्ति की खोज करने पर नारद जी ने वाल्मीकि को इक्ष्वाकुवंशी रामचन्द्र को सबसे श्रेष्ठ आदर्श मानव बतलाया ।
- ब्रह्म को साक्षात् करने वाले, अनुष्टुप् छन्द के प्रथम अवतार के कारणभूत आदिकवि वाल्मीकि की परिणत प्रज्ञा का फल है यह वाल्मीकि रामायण मानव समाज, मानव-व्यवहार तथा मानव-सदद्गुणों की पराकाष्ठा का पूर्ण निर्वाह हम राम के जीवन में पाते हैं ।
- राम शारीरिक सुषुमा तथा मानसिक सौन्दर्य- दोनों के जीते-जागते प्रतीक थे। राम के सौन्दर्य के वर्णन में वाल्मीकि कह रहे हैं (2/17/13):
न हि तस्मान्मनः कश्चित् चक्षुषी वा नरोत्तमात् ।
नरः शक्नोत्यपाक्रष्टुमतिक्रान्तेऽपि राघवे ।
- रामचन्द्र की अलौकिक सुषमा का अनुमान इसी घटना से लगाया जा सकता है कि राम के अत्यन्त दूर चले जाने पर कोई भी मनुष्य न तो अपने मन को उनसे खींच सकता था और न अपने दोनों नेत्रों को जो राम को नहीं देखता और जिसे राम नहीं देखते- ये दोनों संसार में निन्दा के पात्र बनते हैं। इतना ही नहीं, उनकी अपनी आत्मा भी उन्हें निन्दा करती है। रामचन्द्र के दिव्य गुणों की यह झाँकी कितनी मधुर तथा सुन्दर है (2/1/10-14) :
स च नित्यं प्रशान्तात्मा मृदुपूर्वं प्रभाषते ।
उच्यमानोऽपि परूषं नोतरं प्रतिद्यते ।।
बुद्धिमान् मधुरभाषी पूर्वाभाषी प्रियंवदः ।
वीर्यवान् न च वीर्येण महता स्वेन विस्मितः ||
न चानृतकथो विद्वान् वृद्धानां प्रतिपूजकः ।
अनुरक्त: प्रजाभिश्च प्रजाश्चाप्यनुरज्यते ॥
- रामचन्द्र सदा शान्त - चित्त रहते थे। वे बड़ी कोमलता तथा मृदुता के साथ बोलते थे। उनसे कोई कितना भी रूखा क्यों न बोले, वे कभी भी कड़ा और रूखा उत्तर नहीं देते थे। किसी प्रकार किये गये एक भी उपकार से वह तुष्ट हो जाते थे, परन्तु सैकड़ों भी अपकारों को कभी स्मरण नहीं करते थे। किसी से भेंट होने पर भी वही पहिले बोलते थे और सदा मीठा बोलते थे। अत्यन्त वीर्यशाली थे, परन्तु इसके कारण उन्हें गर्व छूकर भी नहीं था। वे कभी झूठी बातें नहीं कहते थे ।
- 'रामो द्विर्नाभिभाषते = राम कभी दो बात नहीं कहते थे, एक बार जो कह दिया सो कह दिया- प्रजाओं के साथ उनका सम्बन्ध बड़ा मीठा था । आसक्ति उभयमार्गी थी। राम का अनुराग प्रजाओं के लिये वैसा था जैसा उनका राम के लिए था।
इन गुणों का अनुशीलन किसी भी व्यक्ति को मानवता के ऊँचे पद पर पहुँचने तथा प्रतिष्ठित करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। व्यक्ति के लिये मृदुभाषी होना; सत्य वचन होना तो आवश्यक है ही, परन्तु राम में वाल्मीकि ने एक विलक्षणगुण की सत्ता बतलाई है, वह है उपकार की स्मृति तथा उपकार की विस्मृति रामचन्द्र के इस उदार हृदय, विशाल चित्त तथा महनीय आशय का पूर्ण परिचय उसी एक वाक्य से चलता है जिसे उन्होनें सीता की सुधि लानेवाले, अलौकिक उपकार करने वाले हनुमान जी से कहा था। जनकन्दिनी का सन्देश सुनकर विह्वलचित होकर राम ने यह वचन कहा था -
मय्येव जीर्णतां यातु यत् त्वयोपकृतं हरे ।
नरः प्रत्युपकारार्थी विपत्तिम् अभिकांक्षति ।
हे कपिकुलनन्दन ! आपने जो मेरे साथ उपकार किया है वह मेरे में ही जीर्ण हो जाय, मिलकर पच जाय, बाहर अभिव्यक्ति का कोई अवसर ही न आवे, क्योंकि प्रत्युपकार करनेवाला व्यक्ति अपने उपकारी के लिये विपत्ति की कामना करता है, जिससे उसे अपने प्रत्युपकार के लिए उचित अवसर मिले। कितनी उदात्त है वाल्मीकि की यह सूक्ति और कितना उदार है राम का हृदय वह कभी सोचते भी नहीं कि हनुमान के ऊपर विपत्ति आवे जिससे उनके साथ प्रत्युपकार करने का कभी अवसर मिले। रावण से युद्ध के समय रामचन्द्र की शौर्यभावना पूर्णतया अभिव्यक्ति पाती है। वे रावण की भर्त्सना इन शब्दों में करते हैं (युद्ध 0 105/13-14 ) -
स्त्रीषु शूर घिनाथासु परदाराभिमर्शक।
कृत्वा कापुरूषं कर्म शूरोऽहमिति मन्यसे ||
भिन्नमर्याद निर्लज्ज चारित्रेष्वनवस्थित ।
दर्पान्मृत्युमुपादाय शूरोऽहमिति मन्यसे ।
- शूरता की यही सच्ची कसौटी है- स्त्रियों का आदर, मर्यादा का पालन, निर्लज्ज कार्य - कलापों से उपरम तथा शुभ चरित्र का व्यवस्थित रूप से पालन रावण में इन सबका एकदम अभाव था। इसीलिये तो वह अन्याय तथा अधर्म का प्रतीक माना जाता है। पराक्रमी शत्रु से चित्र-विचित्र युद्ध के परिणाम रूप ही राम ने रावण पर विजय पाया। रावण कोई साधारण शत्रु नहीं था। कैलाश को उखाड़ने वाला, ब्रह्मा को परास्त करने वाला तथा देवताओं से भी अपनी सेवा कराने वाला रावण कोई सामान्य मानव नहीं था। जगत् को अपने घोर कार्यो से रूलाने के कारण ही तो वह 'रावण' कहलाता था। ऐसे शत्रु को मारकर राम ने उसके साथ जो सद्व्यवहार किया वह शूरजगत् की एक आलोकसामान्य घटना है। रावण की मृत्यु पर शोक करते हुए विभीषण ने ठीक ही कहा (युद्ध0 122/5-8)
गत: सेतुः सुनीतानां गतो धर्मस्य विग्रहः ।
गतः सत्तवस्य संक्षेपः प्रस्तावानां गतिर्गता।।
आदित्य: पतितो भूमौ मग्नतमसि चन्द्रमाः ।
चित्रभानुः प्रशान्तार्चि: व्यवसायो निरूद्यमः ।
अस्मिन् निपतिते भूमौ वीरे शस्त्रभृतां वरे ।
रावण का यह नितान्त यथार्थ चरित्र चित्रण है। युद्ध में निहत रावण भूमि पर गिरनेवाले आदित्य, अन्धकार में धँसे हुए चन्द्रमा, शान्त ज्वाला वाले अग्नितथा उद्यमहीन उत्साह के समान है। राम ने भी रावण की उचित प्रशंसा की तथा उसमें वर्तमान गुणों के महत्व को समझाया और अन्त में अपने हृदय की विशालता को बड़े सुन्दर शब्दों में प्रकट किया-
मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम् ।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥
मरण ही वैर की समाप्ति है। रावण के मर जाने पर हमारा प्रयोजन सम्पन्न हो गया। अब इसका उचित दाह संस्कार करो। जैसे यह तुम्हारा है, वैसे ही मेरा भी है। शत्रु के प्रति इतनी भावना रखना तथा तदनुसार व्यवहार करना युद्ध के इतिहास में अश्रुतपूर्व घटना है।
आदि कवि परिचय,समय, रामायण का मूल्यांकन |
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आदि कवि परिचय,समय, रामायण का मूल्यांकन |
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