उर्दू साहित्य आरंभिक काल : दक्खिनी काव्य
उर्दू साहित्य आरंभिक काल : दक्खिनी काव्य
- उर्दू भाषा का जन्म एवं विकास उत्तरी भारत के दिल्ली के आसपास हुआ किंतु साहित्य का सर्वप्रथम उद्गम एवं विकास दूर दक्षिण भारत में हुआ। जिसे 'दक्षिणी देशीय काव्य', 'दक्खिनी उर्दू काव्य या 'दक्खिनी काव्य से अभिहित किया गया उर्दू भाषा एवं साहित्य को प्रारंभ से राजकीय संरक्षण प्राप्त था जिससे विकसित प्रतिष्ठित होकर भी जन मानस की आकांक्षा की पूर्ति न कर सकी। बादशाहों ने भी उत्कृष्ट रचनाएं की।
दक्खिनी के प्रथम कवि
- दक्खिनी के प्रथम कवि 'सैयद मुहम्मद हुसैनी' हैं इन्हें दो अन्य ख्वाजा बंदानेवाज (भक्तों पर कृपा करने वाले) तथा गेसू दरात (लंबे बालों वाले) नामों से भी पुकारा जाता था। सूफी संत कवि थे। उन्होंने गद्य-पद्य दोनों की रचनाएं की।
उर्दू साहित्य का विकास
- इनके अतिरिक्त लगभग चालीस मुसलमान कवियों ने मसनवी शैली में प्रबंध काव्य तथा मुक्तक रचनाएं की जिनमें अकबर हुसैनी, निजामी, मुहम्मद कुली, कुतुबशाह, वजही, गौवासी शेख मुहम्मद जुनेद, इब्न निशाती, इश्रती, तबई, नुस्रती, हाशिमी, आतिशी, अमीन, मुकीमी, सनाती, रुश्तमी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
- मुहम्मद कुली कुतुबशाह दक्खिनी काव्य के विशेष कवि थे। ये आध्यात्मिक थे। साहित्यिकता एवं काव्यत्व की दृष्टि से इनके काव्य में उत्कृष्टता नहीं है किन्तु भाषा और साहित्य के विकास की दृष्टि से इनका ऐतिहासिक महत्व है।
दक्खिनी काव्य की विशेषताएं
- उर्दू साहित्य के आरंभिक काव्य या दक्खिनी काव्य की विशेषताएं निम्नलिखित हैं ईश्वर में विश्वास इस काल के कवियों को अल्ला में पूर्ण आस्था थी। उनकी स्तुति एवं गुणगान में अनेक छंद उपलब्ध हैं।
- ईश्वर को एक माना है। पैगंबर मुहम्मद की आकृति प्रकृति तथा वेशभूषा का वर्णन किया है।
दक्खिनी की प्रशंसा
- उत्तर से दक्षिण को श्रेष्ठ ही नहीं सिर का ताज माना है। संस्कृत, फारसी आदि अन्य भाषाओं से अधिक सम्मान दक्खिनी को दिया है। हिंदवी में बाचा करना तकरीर हिंदवी सब बखान यो मैं हिंदवी कर आसान, आदि कथन दक्खिनी की प्रशंसा में कहे गए है।
आश्रयदाता प्रशंसा
- आश्रयदाता राजाओं के दरबारों में रहकर जीवन यापन करते थे। मसनवी के अनुसार शाहे तख्त की वंदना की है।
स्वदेश प्रेम
- राष्ट्रीयता की भावना व्यापक नहीं थी उनका देश दक्षिण सीमित प्रदेश था। उससे उन्हें अत्यधिक प्रेम था। उसे इन्होंने दखिन सा नहीं ठार संसार में', 'दखिन है नगीना अंगूठी है जग सब मुल्क सिर होर दखिन ताज है' आदि कथनों के द्वारा दक्षिण या स्वदेश प्रेम का वर्णन किया है।
सौंदर्य प्रेम
- नर नारी के सौंदर्य का वर्णन, नख-शिख वर्णन में नायिका के नयन, कपोल, बाल, भौं आदि का सुंदर वर्णन किया है।
- प्रेम मानव की मूलभूत पूंजी है इसके अनेक प्रेम प्रतीक्षा, प्रेम उल्लास, प्रेम पिपासा, प्रेम मदिरा, प्रेम सुख, प्रेम दुख, प्रेम पाती, प्रेम प्रभाव आदि रूपों के साथ साथ विरह की सहज व्यंजना की है।
प्रकृति प्रेम
- ग्रीष्म, वर्षा, शरद, वसंत, हेमंत तथा शिशिर आदि ऋतुओं, प्रातः मध्याहन, संध्या तीनों कालों के साथ-साथ वन, लता, पशु-पक्षी, आदि का सुंदर चित्र उपस्थित किया है। वसंत का मादक एवं उत्तेजक वर्णन करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है।
संस्कृति प्रेम
- संस्कृति में ईमान, वतन, जीव, कुरान, तोबा, बंदगी, परहेजगारी, तुख्म से इल्म, शर्म, मोमिन का दिल आदि एक ही स्थान पर सवाल-जवाब के द्वारा जीवन की नैतिकता एवं कर्तव्यपरायणता का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त, उत्सव-त्यौहार, मंगलाचरण, वर्षगांठ, जन्मोत्सव, जन्म दिन, विवाह, बारात विदाई, सोहागरात आदि का वर्णन किया है। कुली ने नव वर्ष (नीरोज) का सुंदर वर्णन किया है।
युद्ध वर्णन
- युद्ध का सजीव एवं जीवंत वर्णन करने में नस्रती, इत्रती वली वेल्लोरी आदि उल्लेखनीय हैं। शिवाजी – अली आदिल के पनाला के युद्ध वर्णन में तलवारों की खनखनाहट ध्वनि काव्य का सौंदर्य प्रस्तुत कर देता है।
काव्य शिल्प
- दक्खिनी के उच्चारण तथा आर्य भाषाओं के ध्वनि संबंधी विवेचन महत्वपूर्ण है। समन्वय की प्रणाली है। अरबी, फारसी एवं तुर्की के साथ-साथ अवधी, ब्रज, तथा पश्वों, मराठी, तेलुगु एवं कन्नड आदि देशी-विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। प्रसाद, ओज एवं माधुर्य मयी भाषा में रीतियों का भी समावेश किया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास तथा अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया गया है।
उर्दू साहित्य - मध्यकाल
मध्यकालीन उर्दू साहित्य के विकास में दिल्ली एवं लखनऊ का विशेष योगदान रहा है। इसी के आधार पर मध्यकालीन उर्दू साहित्य को भागों में विभक्त किया जा सकता है।
दिल्ली उर्दू साहित्य -
- उर्दू भाषा की उत्पत्ति दिल्ली के आस पास हुई किंतु पांच सौ वर्षों तक साहित्य सजन दक्षिण में चलता रहा। दिल्ली उर्दू भाषा एवं साहित्य का प्रभुत्व बनाए रही। 18वीं शताब्दी में ऐतिहासिक परिवेश में परिवर्तन हुआ। उर्दू भाषा एवं साहित्य में नई चेतना आई। उर्दू भाषा एवं साहित्य का विकास दक्षिण से उत्तर आया। इसका श्रेय वली औरंगावादी' को है। उन्होंने उर्दू भाषा को दिल्ली में प्रतिष्ठित किया।
दिल्ली यात्रा के मध्य वली ने दो महत्वपूर्ण कार्य -
i. उर्दू भाषा का प्रचार प्रसार किया तथा उर्दू की लोकप्रियता में वृद्धि की।
ii.
वली औरंगाबादी -
- दिल्ली में वली और उनकी गजलों का अत्यधिक स्वागत हुआ। उसने फारसी के साहित्यकारों को उर्दू लेखन हेतु बाध्य कर दिया। फारसी भाषा के विद्वान कवि फितरत, उन्मीद, बेदिल, नदीम तथा आरजू आदि शिष्यों के अनुरोध पर उर्दू के शेर लिखने लगे जिनमें एक पंक्ति फारसी की तथा दूसरी पंक्ति उर्दू की होती थी। फारसी कवियों ने स्वाभाविक रूप से दो भाषाओं को काव्य का माध्यम बनाया। जिसके संयोग से नई भाषा बनने लगी। मुगल सत्ता के प्रभाव घटने के परिणाम स्वरूप फारसी का प्रभाव भी घटने लगा। बादशाह मुहम्मद शाह उर्दू कविता का प्रेमी हो गया। उसी समय नादिरशाह दुर्रानी ने दिल्ली पर आक्रमण करके दिल्ली सल्तनत की नींव हिला दी। फारसी कवियों का राजकीय संरक्षण समाप्त हो गया फलस्वरूप जनभाषा उर्दू को सिर उठाने का अवसर मिल गया।
- 18वीं 19वीं शताब्दी में उर्दू कविता दिल्ली में खूब फूली भली। फारसी का प्राधान्य होने से जन मानस से दूर रही। प्रेम, सौंदर्य तथा शाश्वत सच्चाइयों की अभिव्यक्ति ने इसे लोकप्रिय बनाया। उर्दू के साथ से अब दक्खिनी शब्द अलग हो गया 18वीं शती के उर्दू साहित्य का विकास दो चरणों में हुआ। प्रथम में उर्दू कविता की नींव तैयार हुई और द्वितीय में उर्दू कवियों ने उस नीव पर भव्य महल का निर्माण किया।
प्रथम चरण के विषय में रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने लिखा है -
प्रथम चरण या प्रारंभिक काल की चार विशेषताएं हैं
i. दकनी शब्द का बहिष्कार।
ii. सूफियाना विषयों की कमी और ठोस भौतिक प्रेम प्रदर्शन।
iii वर्णन में पहले से अधिक सफाई तथा प्रवाह
iv. शाब्दिक अनुरूपता तथा द्वयअर्थक शब्दों का अधिक प्रयोग।
- इस प्रवत्ति से संबंधित शायरों में खान आजू, शाह मुबारक आबरू, अशरफ अली फुगा, शाह हातिम, मिर्जा जानाजाना, मअहर, तांबा आदि उल्लेखनीय हैं।
- द्वितीय चरण के शायरों ने उर्दू कविता को उन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया जिनमें मीर तकी मीर मुहम्मद रफी सौदा, दर्द एवं स्वज के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। पूर्ववर्ती उर्दू कविता की न्यूताओं से मुक्ति दिलाकर उसे रवानी दी। इस काल को उर्दू का स्वर्ण काल कहा जाता है।
- समसामयिक कटु यथार्थ का विवेकपूर्ण प्रस्तुतीकरण किया गया। मीर की शायरी की उच्चता गालिब को भी नहीं मिली। आक्रमण कारियों के अत्याचारों से मीर तथा सौदा दिल्ली छोड़ गए। 19वीं शताब्दी में उर्दू कविता को पुनर्जीवित करने वालों में हकीम मोमिन खां मोमिन, शेख इब्राहिम जौक, मिर्जा असदुल्ला खां गालिब, बहादुर शाह जफर, आदि का नाम बड़े गौरव से लिया जाता है। इनके अतिरिक्त दिल्ली में उर्दू कविता के पुनरुत्थान में योगदान देने वाले शायरों में शाहन सीर, सेफता, तसकीन, नसीन देहलवी तथा अनवर आदि के नाम प्रमुख हैं। गालिब युग निर्माता कवि हैं। इसलिए इस युग को गालिब युग की संज्ञा दी जाती है।
लखनऊ: उर्दू साहित्य
- लखनऊ की उर्दू शायरी को लखनवी उर्दू कविता का नाम दिया गया है। 18वीं शताब्दी में नादिरशाह, अहमदशाह तथा मराठों जाटों के अत्याचार से शायरी दिल्ली से उचट गई। दिल्ली के स्थान पर लखनऊ उर्दू कविता का केन्द्र बन गया। लखनऊ के अलावा फर्रुखाबाद, टांडा, अजीमाबाद, मुर्शिदाबाद, हैदराबाद तथा रामपुर के राजदरबारों में शायरों ने शरण ली। अन्य स्थानों की अपेक्षा उर्दू शायरी का गढ़ लखनऊ बन गया।
- लखनऊ ने उर्दू शायरी पर अपना रंग जमाया तथा उसे दिल्ली शायरी से अलग कर दिया। लखनवी उर्दू कविता को सजाने-संवारने वालों में नासिख आतिश, अनीस तथा दबीश का नाम प्रमुख है। लखनऊ में सौदा, जौक, मुसहफी तथा इंशा ने उर्दू कविता का प्रसार प्रचार किया। यदि नवाबों ने शायरों को शरण न दी होती, उन्हें बुला-बुलाकर सम्मानित एवं पुरस्कृत न किया होता तो लखनऊ में उर्दू शायरी का वह दौर न चल पाता जिसके लिए वह अलग से जानी-पहचानी जाती है। आसुफद्दौला, सआदत खां तथा वाजिद अली शाह 'अख्तर' आदि नवाबों ने उर्दू कविता को समद्धि प्रदान की। अख्तर के चालीस ग्रंथों का उल्लेख मिलता है।
- लखनऊ का परिवेश प्रारंभ में गजल के लिए काफी मुफीद था। लखनऊ की पष्ठभूमि ने मरसिया को प्रतिष्ठित किया। मरसियाकारों में मीर बबर अली, अनीस, मिर्जा सलामत अली दबीर, रशीद, आरिफ तथा नफीस आदि के नाम प्रमुख हैं। अनीस की शायरी में सहजता, सरलता तथा अलंकार प्रियता है तो दबीर में आलंकारिक क्लिष्टता, जटिलता तथा कल्पना की प्रधानता है। अनीस भाववादी तथा दबीस कलावादी शायर थे।