भवभूति की रचनाएं और उनका संक्षिप्त परिचय
भवभूति की तीन प्रसिद्ध रचनाएं इस समय उपलब्ध है- 1 मालतीमाधव 2. महावीरचरित (अथवा वीरचरित) 3. उत्तररामचरित । ये तीनों कृतियां नाटक है। इन रचनाओं के पौर्वापर्य - क्रम के विषय में विद्वानों में बडा मतभेद है। कुछ लोग यह निर्णय देते है कि इनका रचना क्रम इस प्रकार है-महावीरचरित, मालतीमाधव, तदन्तर उत्तररामचरित उनकी दृष्टि में ऐसा क्रम निर्धारित करने में मालतीमाधव का यह श्लोक रहा है-
ये नाम केचिदिह इतिप्रथयन्त्यवज्ञां
जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः ।
उत्पत्स्यने हि मम कोऽपि समानधर्मा
कालो महान निरवधिर्विपुला च पृथिवी ॥
- उनका तर्क है कि उत्तररामचरित अपने में एक अत्यन्त प्रौढ़ रचना है। कवि की यह अन्तिम रचना है, इसमें किसी प्रकार की विपतिपत्ति नहीं है। मालतीमाधव में उक्त श्लोक के द्वारा कवि ने अपने आलोचकों के प्रति जो आक्रोश व्यक्त किया है, उससे प्रतीत होता है कि महावीरचरित की रचना प्रथम हुई ।
- आलोचकों द्वारा उसकी अवज्ञा होने पर कवि ने मालतीमाधव की रचना की और उससे उक्त श्लोक में कवि का अवज्ञाजनित आक्रोश फूट पड़ा है। इससे मेरी मन्द बुद्धि में यह आती है कि इन तीनो रचनाओं का क्रम इस प्रकार है-मालतीमाधव, महावीरचरित और अन्त में उत्तररामचरित। मालतीमाधव में कवि द्वारा व्यक्त अवज्ञाजनित आक्रोश के मूल में कवि की उन रचनाओं की अवज्ञा है, जो मालतीमाधव के पूर्व की गयी थीं और जो तत्कालीन आलोचकों की अवज्ञा से प्रचार-प्रसार न पाकर कुछ समय में अपनी सत्ता खो बेठी, जिनका कुछ अवशेष कल्हण की सूक्तिमुक्तावली तथा अन्य सूक्ति-ग्रन्थों में यत्र-तत्र विकीर्ण मिलता है।
- राम के पूर्वचरित रूप महावीरचरित और उत्तररामचरित की रचना में अधिक समय का व्यवधान ठीक नहीं लगता। यह भी अयथार्थ सा लगता है कि एक बार रामचरित की ओर कवि 'महावीरचरित' की रचना करे, फिर उससे मुँह मोड़कर मालतीमाधव जैसी रचना में प्रवृत्त और पुनः उधर मुड़कर रामचरित उन्मुख होकर (उत्तर) की और प्रवृत्त हों । तत्कालीन आलोचकों द्वारा ‘महावीरचरित' की अवज्ञा हुई, यह बात भी विश्वनीय नही लगती, क्योंकि तब तो ग्रन्थ को परावर्त्ती लक्षणग्रन्थकारों-आचार्य विश्वनाथ, महाराज भोज आदि द्वारा सम्मान मिलना इस अवज्ञेय सन्दिग्ध हो जाता है, तब भी उनके ग्रन्थों में 'महावीरचरित' के उद्धरण आदरपूर्वक स्वीकार किये गये है। तथाकथित आलोचकों द्वारा अवज्ञात होने पर तो प्रचार-प्रसार के अभाव में इसका लुप्त प्राय हो जाना स्वाभाविक होता। वस्तुतः मालतीमाधव, महावीरचरित और उत्तररामचरित ये तीनों कवि के वह ग्रन्थरत्न है जिनकी आभा सतत समान रूप से देदीप्यमान रही है।
मालतीमाधव
- यह दस अंको का प्रकरण है। इसमें विदर्भ के राजमन्त्री देवराज के पुत्र माधव और पद्यावती के राजमन्त्री भूरिवसुकी कन्या मालती का विवाह अत्यन्त कौतुहलवर्द्धक और मनोरंजक ढंग से वर्णित है। सम्पूर्ण कथा काल्पनिक है, जो प्रकरण के लिए आवश्यक है। इसमें श्रृंगार प्रधान रस है, जो साहित्यशास्त्र के अनुसार प्रायः प्रकरण के लिए आवश्यक माना जाता है । इस प्रकरण में स्थान-स्थान पर भवभूति का हृदयावर्जक वैशिष्ट्य परिलक्षित होता है । बृहत्कथामन्जरी और कथासरित्सागर में तीन ऐसी कहानियाँ मिलती है, जिनमें प्रेमी और प्रेमिका का चुपके से भाग निकलना, लुक छिपकर विवाह करना, प्रेमिका का संकट में पड़ जाना तथा उसका कौतुहलपूर्ण ढंग से उद्धार होना आदि वर्णित है। मालतीमाधव की कथा को देखते हुए ऐसा लगता है कि भवभूति को उन्ही तीन कहानियों से अवश्य प्रेरणा मिली होगी।
महावीरचरित
- यह सात अंको का नाटक है। इसमें रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक तक की घटनाओं अर्थात् राम के जीवन के पूर्वार्द्ध का वर्णन है। इस नाटक के नायक रामचन्द्र है। नाटक की मर्यादा को ध्यान में रखकर कवि ने कथानक में पर्याप्त परिवर्तन कर दिया है, जिससे नाटकीय स्वाभाविकता भी स्वयम् आ गयी है। प्रतिनायक रावण का राम के साथ संघर्ष सीता- विवाह के समय से ही प्रारम्भ हो जाता है। परशुराम गुरू शिव के अपमान से क्रुध होकर नहीं, रावण के द्वारा भड़काकर भेजे जाते है ।
- कैकेयी की दासी मन्थरा और कोई नही है, वह सुपर्णखा है, जो रावण के द्वारा मन्थरा-वेश में भेजी गयी है और कैकेयी द्वारा राम को वन में भिजवाकर वह अपने षडयन्त्र में सफल हो जाती है। राम के वनवास काल में माल्यवान् सीता हरण कराता है, वही बाली को भी भड़काता है। बाली स्वयं राम से लडने आता है और मारा जाता है। बालि वध की कथा में ऐसा परिवर्तन नायक की मर्यादा बचा लेता है, अन्यथा धीरोदात्त प्रकृति के राम, धीरोद्धत प्रकृति के नायक की तरह छल से से बाली को मारें, यह 'प्रकृति विषयक' रस दोष आये बिना न रहता। परवर्ती लक्षणग्रन्थकारो ने उदाहरणो के रूप में इस नाटक के उदाहरणो को अपने-अपने ग्रन्थों में स्थान देकर इसका गौरव स्वीकार किया है।
उत्तररामचरित
- भवभूति का यह सात अंको का सर्वश्रेष्ठ नाटक है। इसमें रामचन्दजी का लोकोत्तर उत्तरचरित्र का वर्णन है। महावीरचरित का उत्तर भाग कहा जा सकता है। इसमें प्रथम अंक में की योजना कर कवि ने सीताजी के द्वारा गंगा दर्शन की इच्छा व्यक्त करायी है इधर दुर्मुख नामक गुप्तचर से प्रजा में फैले हुए लोकापवाद की सूचना राम को मिलती है ।
- प्रजारंजन के लिए सीता - परित्याग का दृढ निश्चय कर राम सीता को गंगा दर्शन के व्याज से लक्ष्मण द्वारा वन में भिजवा देते है। सीताजी को उस समय अपने निर्वासन का पता नही रहता है सीता-परित्याग की भूमिका कवि ने बड़े कौशल से संयोजित की है। द्वितीय अंक में सीता परित्याग के 12 वर्ष बाद की घटनाएं चित्रित की गयी है। उसमें आत्रेयी नामक तापसी और वासन्ती नामक वनदेवी के संवाद से हमे पता चलता है कि राम अश्वमेधयज्ञ करने जा रहे है। महर्षि बाल्मिकी किसी देवता द्वारा सौपे गये दो कुशाग्रबुद्धि बालकों के लालन-पालन में निरत है इसी अंक में राम दण्डकारण्य में आकर शुद्ध तपस्वी शम्बुक का वध करते है।
- तृतीय अंक में तमसा और मुरला इन दो नदियों के संवाद से हमे ज्ञात होता है कि मुरला गोदावरी से अगस्त्य पत्नी लोपामुद्रा का यह सन्देश कहने जा रही है कि सीता-वियोग से अत्यन्त दुर्बल राम अगस्त्याश्रम से लौटकर पंचवटी पहुचने पर पूर्व वृत्तान्तों की स्मृति से व्याकुल हो उठेंगे, अतः गोदावरी उनका सार- सम्भाल करने में सर्तक रहे। वहीं तमसा के मुख से यह भी ज्ञात होता है कि वाल्मीकि के आश्रम के पास जब लक्ष्मण सीता को छोड़कर चले गये और सीता को प्रसव वेदना हुई, तब वे गंगा में कूद पड़ी। जल में ही उन्हे दो पुत्र हुए, जिन्हे पृथ्वी और गंगा ने संभाला सीता पाताल चली गयी और दूध छुटने पर दोनो बच्चो को गंगा ने वाल्मीकि के आश्रम में पहुचा दिया। उधर सरयू के मुख से राम के पन्चवटी में आने की संभावना सुनकर गंगाजी भी सीता को साथ लेकर गोदावरी के पास पहुंच गयी।
- गंगा ने कुश और लव की बारहवीं वर्षगांठ मनाने के बहाने सीता को अदृश्य बनाकर तमसा के साथ राम की रक्षा के लिए ही पंचवटी भेज दिया। राम भी अगस्त्याश्रम से लौटकर पंचवटी में पहुंचे और सीता को सहवास - कालीन स् को देखकर विरह-सन्तप्त हो मूर्च्छित हो गये। तमसा के कहने पर सीता ने अपने हाथो के स्पर्श से राम को आश्वस्त किया। वासन्ती भी राम से मिली और उसने सीता-निर्वासन के उपालम्भ से पूर्ण बातें राम से कीं । राम और वासन्ती के संवादो को सुनकर सीता के हृदय से राम के प्रति स्थिर क्षोभ दूर हो गया। राम और सीता दोनो अलग-अलग शोकाभिभूत हो विलाप करने लगे। आश्वस्त होने के बाद राम अश्वमेध का अनुष्ठान करने के लिए अयोध्या चले गये और सीता गंगा के पास लौट गयीं ।
- चतुर्थ अंक में जनक, कौसल्यादि रानियाँ, अरुन्धती, वसिष्ठ आदि का आगमन बाल्मीकि आश्रम में होता है। वहीं से सब बालक लव को देखते है । सीता-पुत्र होने की संभावना से राजा जनक ने अपने सन्देह को निश्चयात्मक करने के उद्देश्य से उससे तरह-तरह की बातें की, किन्तु लव की बातों से वे अपने उद्देश्य में सफल न हो सके। इतने में अश्वमेधयज्ञ के घोड़ो को देखकर आश्रम के बटुकों को बड़ा कौतुहल हुआ। कुछ बटुक घोड़े को देखने के लिए लव को भी खींच ले गये । लव ने घोड़े को बटुकों के द्वारा पकड़वा लिया। रक्षकों के विरोध करने पर लव युद्ध के लिए उद्यत हो गया। पंचम अंक में यज्ञाश्व के रक्षक लक्ष्मण-पुत्र चन्द्रकेतु से लव का वाद-विवाद होता है और वे परस्पर युद्ध के लिए उद्यत हो जाते है ।
- षष्ठ अंक में विद्याधर-दम्पति के मुख से हमें लव और चन्द्रकेतु के युद्ध का वर्णन प्राप्त होता है। शम्बुक युद्ध को मारकर उसी युद्धस्थल में राम के आने से युद्ध रूक जाता है। कुश भी उसी समय की सूचना पाकर वहाँ आ जाता है। कुश और लव को देखकर सीता पुत्र की संभावना से राम के हृदय में उनके प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ता है। किन्तु कुश और लव की तटस्थ बातचीत से वे इस निर्णय पर नही पहुच पाते है कि ये उन्ही की सन्तान है। सप्तम अंक में गर्भनाटक की योजना की गयी है। उसका अभिनय देखने के लिए समस्त प्रजा, देव, असुर, पशुपक्षी, नाग, सभी स्थावर जंगम प्राणी तथा राम-लक्ष्मण भी उपस्थित थे। इसमें कुश और लव की उत्पत्ति, सीता का पाताल-प्रवेश, कुश और लव को गंगा द्वारा वाल्मीकि के आश्रम में पहुंचाना आदि सभी कुछ दिखलाया गया है। सीता के पाताल-गमन से राम मूर्च्छित हो गये। तब मुख्य नाटक में गंगा और पृथ्वी के साथ सीता जल से निकलकर अपने हाथों के स्पर्श से अरुन्धती के आदेशानुसार राम को प्रशंसा करती हुई अरुन्धती ने उपस्थित जनता के समक्ष राम से सीता को स्वीकार करने का प्रस्ताव किया। इस प्रकार राम, सीता, कुश एवं लव का सामगम हुआ । अत एव यह नाटक सुखान्त सिद्ध होता है।