किरातार्जुनीयम् महाकाव्य का दुर्योधन
किरातार्जुनीयम् महाकाव्य का दुर्योधन
- यद्यपि दुर्योधन इस महाकाव्य में एक प्रतिनायक के रुप में है, तथापि प्रथम सर्ग में सुयोधन की शासन नीति के वर्णन के माध्यम से आदर्श राजा का चित्र प्रस्तुत किया गया है। शासक का अपने परिजनों पर पूर्ण विश्वास, सामदानादि का समुचित प्रयोग, धार्मिक कृत्यों के माध्यम से लोक सामान्य के बीच उदात्त छवि प्रस्तुत करना तथा जनकल्याणकारी कार्यो का सम्पदान जैसे गुण है, जो उसे लोकप्रिय बना देते हैं। इसी प्रसंग में कवि ने यहाँ भी बताया है कि कई बार कुटिल शासक भी जनकल्याणकारी कार्यो का जाल बिछाकर जनता को आकृष्ट कर लेते हैं। केवल सैन्य शक्ति या छलबल से प्राप्त सत्ता भी तब तक चिरस्थायी नहीं होती, जब तक कि जनता को अनुकूल नहीं बना लिया जाता इसलिए तो सुयोधन सिंहासनारूढ़ होते कूटनीतिक कौशल से जनता के हृदय को जीतने का प्रयास करता है -
“ दुरोदरच्छद्म जितां समीहते,
नयेन जेतुं जगतीं सुयोधनः ।। ” ( 1 /7 )
- भारवि की मान्यता है कि शासन की स्थिरता के लिए राज्य की तीनों शक्तियों मन्त्रशक्ति, प्रभुशक्ति तथा उत्साहशक्ति में सन्तुलन आवश्यक होता है। प्रत्येक कार्य की सफलता के लिए योजना ( मन्त्र शक्ति ) क्षमता ( प्रभुत्त्व ) और उत्साहपूर्ण क्रियान्वयन ( उत्साहशक्ति ) की आवश्यकता होती है । इन तीनों में से किसी एक पक्ष के दुर्बल होने से अपेक्षित सफलता नहीं मिलती, इसलिए दुर्योधन सेवकों के साथ मित्रों जैसा व्यवहार करता था मित्रों के साथ बन्धुजनों जैसा तथा बन्धुजन के साथ राज्याधिकारी जैसा व्यवहार करता था। उसके सैनिक तेजस्वी और युद्व कौशल में पूर्णतः निपुण थे। वह उनका पूर्ण सम्मान करता था अतएव वे भी प्राणार्पण से उसकी तथा उसके राज्य की रक्षा करते थे। सभी राजा उसके गुणों से प्रभावित थे । अतः उसके गुणों के प्रति अनुराग के कारण उसकी आज्ञा को माला के समान शिरोधार्य करते थे ।
“ गुणोनुरागेण शिरोभिरूह्यते
नराधियैर्माल्यमिवास्य शासनम् ।। ” ( 1/21 )
प्रजाओं को धन धान्य से पूर्ण बनाने के लिए उसने कृषि संबंधी सभी सुविधाएँ दे रखी थीं। सिंचाई के कृत्रिम साधन देश में उपलब्ध होने से कुरु जनपद धन धान्य से सम्पन्न था । उसके राज्य में गुणों से द्रवीभूत बनी हुई पृथ्वी स्वयं उसके लिए धन उगलती थी -
“ स्वयं प्रदुग्धेऽस्य गुणैरुपस्नुता
वसूपमानस्य वसूनि मेदिनी । ” ( 1 / 18 )
धर्म, अर्थ और काम का वह समय विभागानुसार सेवन करता था। वह जितेन्द्रिय बनकर मनु आदि स्मृति बेधित न्याय एवं दण्ड का प्रयोग करता था । वह सदा पक्षपातरहित होकर दण्ड न्याय का पालन करता था इस प्रकार न्याय के क्षेत्र में शत्रु एवं पुत्र के मध्य भी जैसा धर्म गुरु निर्देश देते थे वह न्याय करता था
“गुरुपदिष्टेन रिपौ सुतेऽपि वा,
निहन्ति दण्डेन स धर्म विप्लवम् । ” ( 1 / 13 )
इस प्रकार दुर्योधन एक योग्य, न्यायी एवं कुशल प्रशासक के गुणों से सम्पन्न है ।