कालिदास की दृष्टि में : गीता का आदर्श
कालिदास की दृष्टि में : गीता का आदर्श
- वैदिक धर्म तथा दर्शन ने इस जगत् के उदय, संचालन तथा विनाश के निमित्त विश्व के अन्तर में एक विशाल दैवी शक्ति को अंगीकार किया है। बिना उस शक्तिमान् की इच्छा के जगत् का छोटा से छोटा कार्य भी संपादित नहीं हो सकता।
- कालिदास ने उस शक्तिमान् को 'शिव' के रूप में ग्रहण किया है। 'शिव' जगत् के मंगलकारक तत्व का सामान्य में इसका अभिधान है। विश्व का प्रत्येक कण उनकी सत्ता की सूचना देता है।
- वैदिक धर्म अन्य धर्मो की अपेक्षा उदात्त है और कालिदासके ग्रन्थों उदात्ततम रूप दृष्टिगोचरहोता है। कालिदास शंकर के उपासक होकर भी विष्णु तथा ब्रह्मा में उसी प्रकार श्रद्धा और आदर रखते हैं। वे क्षुद्, संकीर्णसाम्प्रदायिकता से कोसों दूर थे।
- भगवान् की मूर्ति एक ही है जो गुणों की विषमता के कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर का रूप धारण करती है। तत्व वस्तुतः एक ही है; त्रिविध रूप उपाधिजन्य है। इन त्रिदेवों में ज्येष्ठ और कनिष्ठ का भाव सामान्य है। कभी हरि शंकर के आदि में विद्यमान रहते हैं, तो कभी हर हरि के आदि में और कभी ब्रह्मा हरि और हर दोनों के आदि में स्थित हैं। ऐसी दशा में किसी एक देवता को बड़ा मानना तथा दूसरों को छोटा बतलाना नितान्त अनुचित एवं तर्कहीन है।
कालिदास का कथन संशयहीन है (कुमारसम्भव 7/44 ) -
एकैव मूर्तिर्बिभिदे त्रिधा सा सामान्यमेषां प्रथमावरत्वम्।
विष्णोर्हरस्तस्य हरि: कदाचिद् वेधास्तयोस्तावपि धातुराद्यौ ।
- आकाश से गिरनेवाला वर्षाकालीन जल एकरस ही होता है, परन्तु जिन स्थानों पर वह गिरता है उन स्थानों की विशेषता के कारण नाना रसों को प्राप्त करता है। ब्रह्म तत्व भी ठीक इसी प्रकार समरस है। उसमें किसी प्रकार का विकार नहीं है। परन्तु सत्व, रज तथा तम के सम्पर्क में आकर नाना कार्यों के निर्वाह के निमित्त वह विष्णु, ब्रह्मा तथा शंकर नाम धारण करता है (रघु0 10/17 )।
- ब्रह्मतत्व अमेय है उसके मान का पता नहीं चलता। कालिदास ने इसी लिये ब्रह्म की समता समुद्रसे की है। समुद्र दश दिशाओं को व्याप्त किये हुए है और भिन्न-भिन्न समय में नाना अवस्थाओं को प्राप्त कर विद्यमान रहता है। अत: उसके रूप तथा प्रमाण का पता नहीं चलता। भगवान् विष्णु ने भी नाना स्थावर-जड्. गम का रूप धारण कर अपनी महिमा से समग्र विश्व को व्याप्त कर रखा है। इनके भी रूप का पता हमारी बुद्धि से नहीं चलता कि उनका स्वरूप किस प्रकार का है (ईदृक्तया) तथा वह कितना बड़ा है (इयत्तया) (रघु013/5 )-
ता तामवस्थां प्रतिपद्यमानं स्थितं दश व्याप्य दिशो महिम्ना।
विष्णोरिवास्यानवधारणीयमीदृक्तया रूपमियत्तया वा ॥
भगवान् नित्य परिपूर्ण हैं। अतः उनके लिए कोई भी वस्तु अनवाप्त (अप्राप्त) तथा प्राप्तव्य नहीं है। जो व्यक्ति पूर्ण नहीं होता वह नाना प्रकार की वस्तुओं की कामना किया करता है, परन्तु जो स्वयं सर्वसमः' 'सर्वरसः' है उसके लिए किसी वस्तु की कामना की अपेक्षा ही नहीं रहती। ऐसी दशा में जन्म-कर्म का क्या कारण है ? क्या कारण है कि भगवान् इस भूतल पर जन्म ग्रहण करते हैं तथा नाना प्रकार के कर्मों का सम्पादन करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर कालिदास के शब्दों में 'लोकानुग्रह है। कल्याण के निमित्त उनकी समग्र प्रवृत्तियों परार्थ ही होती है (रघु0 10/31) -
अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किञ्चन विद्यते ।
लोकनुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणोः ||
कालिदास इस श्लोक के भाव तथा शब्द दोनों के लिए ऋणी है (गीता 3/12 )
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानावाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
कालिदास के धार्मिक तथा दार्शनिक विचारों पर गीता का प्रचुरप्रभाव दृष्टिगत होता है। गीता का 'कर्मयोग' कालिदास को सर्वथा मान्य है। इस संसार से आत्यन्तिक निवृत्ति के लिये कालिदास द्वारा निर्दिष्ट मार्ग यह है (रघु0 10/27 )
त्वय्यावेशितचित्तानां त्वत्समर्पित-कर्मणाम्।
गतिस्त्वं वीतरागाणामभूयः-संनिवृत्तये ॥
इस सारगर्भित श्लोक को हम कालिदास के दर्शन की 'चतु:सूत्री' मान सकते है। इसके चारों चरण नवीन तत्व की व्याख्या करते हैं। भगवान् की प्राप्ति के तीन साधन हैं—–
( 1 ) भगवान् में चित्त को लगाना,
(2) भगवान् को सब कर्मों को समर्पण करना,
(3) संसार के सब विषयों से राग से रहित होना चित्तावेश का प्रधान उपाय है- योग का अभ्यास योग-विधि के द्वारा चित्त को एकाग्र कर भगवान् में लगाया जा सकता है।
कालिदास 'योग' के बड़े भारी पक्षपाती हैं। उनका कहना है (कुमार0 6/77)–
योगिनो यं विचिन्वन्ति क्षेत्राभ्यन्तरवर्तिनम् ।
अनावृत्ति- भयं यस्य पदमाहुर्मनीषिणः ।।
- रघुवंश के अष्टम सर्ग के आरम्भ में रघु को योग-विधि के द्वारा मोक्ष प्राप्ति का वृत्तान्त प्रामाणिक रूप से वर्णित है। समग्र कर्मों को भगवान् को समर्पण करना चाहिये। कर्मों में फलरूपी विषदन्त हैं जिसे तोड़ना नितान्त आवश्यक है। समस्त कर्म बन्धन रूप है।
जब कर्मों का फल भगवान् को समर्पण किया जाता है तब वे बन्धनरूप नहीं होते, प्रत्युत वे मोक्ष के सहायक बन जाते हैं। भगवतगीता की यह सूक्ति इसी अर्थ की पोषिका है –
- रागादि तभी तक स्तेन (चोर) हैं, जो चित्त को चुराकर इधर-उधर अस्त व्यस्त किया करते हैं; गृह तभी तक कारागार है- बन्धनभूत है, मोह तभी तक पैर का बन्धन है, जब तक हे तुम्हारे सेवक हम नहीं बन जाते भगवान् के भक्त सेवक बनते ही यह दशा बदल जाती है। कृष्ण ! उसी प्रकार कर्म बन्धन जरूर हैं, परन्तु ज्यों ही उनका फल भगवान् के चरणों में अर्पित कर दिया जाता है, त्यों ही उनका दोष दूर हो जाता है । बन्धन होने की अपेक्षा वे मोक्ष में सहायक होते हैं।
श्रीमद्भागवत का महनीय श्लोक यह है
तावद् रागादय: स्तेनास्तावत् कारागृहं गृहम् ।
तावन्मोहोऽड्. प्रनिगडो यावत् कृष्ण न ते जानाः ।।
- तीसरी बात है रागहीनता, वैराग्य। संसार के विषयों में प्रेम-भाव नितान्त बन्धन है। वैराग्य अत्यन्त आवश्यक है। 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः' - पतञ्जलि ने चित्तनिरोध के उपायों में वैराग्य को विशेष महत्व दिया है।
इन उपायों से भगवान् की प्राप्ति होती है, जिससे सद्य: मोक्ष का उदय होता है । वह महत्वपूर्ण श्लोक गीता के निम्नलिखित श्लोक (17-65) पर अवलम्बित है -
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि में ॥
- कालिदास पक्के अद्वैतवादी थे। शास्त्र तथा आगमों ने सिद्धि के भिन्न-भिन्न मार्ग बतलाये हैं। परन्तु इन मार्गों का चरम लक्ष्य भगवान् ही हैं। जिस प्रकार गंगाजी के प्रवाह भिन्न-भिन्न मार्गो से प्रवाहित होते हैं, परन्तु अपने अन्तिम स्थान समुद्र में ही वे गिरते हैं तथा अपना जीवन सफल बनाते हैं (रघु0 10/26)
बहुधाप्यगमैर्भिन्नाः पन्थानः सिद्धिहेतवः ।
त्वय्येव निपतन्त्योघा जाह्नवीया इवार्णवे ||
- भारतीय धर्म तथा दर्शनका अन्तिम लक्ष्य है- भिन्नता में अभिन्नता की अनुभूति, नाना में एकता का साक्षात्कार । कालिदास ने अपने श्लोक में इसी उदात्त भावना को स्थान दिया है । इस श्लोक के भाव को जितना ही कार्य में परिणत किया जायगा उतना ही मंगल होगा और पारस्परिक विरोध तथा संघर्ष का अन्त होगा।