पण्डितराज जगन्नाथ का काव्यलक्षण (Jagannath Pandit Raj Ke Kavya Ke Lakshan)
पण्डितराज जगन्नाथ का काव्यलक्षण
पण्डितराज, जगन्नाथ ने 'रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य कहा है-
रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् ।
- रमणीय अर्थ वह है जिसके बार-बार अनुसन्धान से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है । लोकोत्तरत्व लौकिक ‘आपके लड़का पैदा सुख से भिन्न चमत्कार का पर्याय आन्तरिक अनुभव की वस्तु है। जैसे हुआ है अथवा “मैं आपको धन दूंगा, इत्यादि वाक्यों से हमे आनन्द तो प्राप्त होता है किन्तु यह आनन्द लोकोत्तर (अलौकिक) नहीं है। अपितु लौकिक है अतः इसे हम काव्य नहीं कह सकते। अतः जिस शब्द अथवा जिन शब्दों के अर्थ की भावना करने से किसी अलौकिक आनन्द की प्राप्ति हो, उसे 'काव्य' कहते हैं ।
मम्मट के काव्य लक्षण पर आक्षेप करते हुए पण्डितराज जगन्नाथ कहते हैं-
- मम्मट के काव्य लक्षण पर आक्षेप करते हुए पण्डितराज जगन्नाथ कहते हैं कि जो काव्यप्रकाशकार आदि प्राचीन आचार्य शब्द और अर्थ दोनों को काव्य मानते हैं, वह उचित नहीं है। क्योंकि यदि शब्दार्थयुगल को काव्य मानते हैं तो लोक व्यवहार में 'काव्य उच्च स्वर से पढ़ा जा रहा है, काव्य से अर्थ समझा जाता है, काव्य सुना, किन्तु अर्थ समझ में नहीं आया इत्यादि सार्वजनिक व्यवहार से शब्द को ही काव्य कहा जा सकता है। यदि कहा जाय कि व्यवहार में काव्य के लिए केवल शब्द का प्रयोग लक्षण से कर लेना चाहिए, ठीक है, यह हो सकता है। किन्तु तभी, जब किसी दृढ़तर प्रमाण से यह सिद्ध हो जाय कि काव्य शब्द का प्रयोग शब्दार्थयुगल के लिए होता है, वही ता हमें नहीं दिखाई देता और बिना प्रमाण के कोई बात प्रामाणिक नहीं होती। अतः लोक व्यवहार में प्रमाण के द्वारा हमारे मत में केवल शब्दार्थ-विशेष ही काव्य सिद्ध होता है, शब्द और अर्थ में नहीं। अतएव वेद, पुराण आदि के लक्षणों में भी यही स्थिति है, अन्यथा बड़ी दुर्व्यवहार हो जायेगी ।
- अब दूसरा प्रश्न उठता है कि उन स्वाद (रस) का उद्धोध नही काव्य का प्रयोजन है और यह आस्वादोद्धोधक शब्द और अर्थ दोनों में समान भाव से रहता है, अतः शब्द और अर्थ दोनों को ही काव्य मानना उचित है। इस पर पण्डितराज कहते हैं कि यदि आस्वादोद्धोधक शब्द और अर्थ दोनों में समान भाव से रहता है, अतः शब्द और अर्थ दोनों को ही काव्य मानना उचित है। इस पर पण्डितराज कहते हैं कि यदि आस्वादोद्धोधक वस्तु को काव्य मानते है तो आस्वादोद्धोधक होने के कारण राग भी काव्य कहलाने लगेगा, क्योंकि ध्वनिकार, आदि आचार्यों ने राग को रस-व्याज्जक माना है और अधिक क्या कहें? नाट्य के नृत्य, गीत, बाद्य आदि सभी अंगकाव्य मान लिये जाये, क्योंकि वे भी रसोद्धोधन में समर्थ है। और जो मम्मट आदि आचार्य शब्द और अर्थ दोनों को काव्य मानते हैं। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या शब्द और अर्थ दोनों के सम्मिलित रूप को काव्य कहेंगे अथवा अलग-अलग ? यदि दोनों के सम्मिलित रूप को काव्य कहते हैं तो जिस प्रकार दो एक के सम्मिलित रूप को दो के अवयवभूत प्रत्येक एक को दो नहीं कह सकते, उसी प्रकार श्लोक के एक वाक्य को को काव्य नहीं कह सकते, जबकि व्यवहारतः श्लोक के एक वाक्य को भी काव्य कहा जाता है। यदि आप कहें कि दोनों अलग-अलग काव्य हैं, तो एक ही श्लोक में दो काव्य का व्यवहार होने लगेगा। अतः वेद, पुराण, शास्त्र के समान काव्य को भी शब्दनिष्ठ मानना उचित होगा।
नागेशभट्ट ‘उचिता’ इस प्रतीक को लेकर पण्डितराज के मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि
- नागेशभट्ट ‘उचिता’ इस प्रतीक को लेकर पण्डितराज के मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार 'काव्य पढ़ा' या 'काव्य सुना' यह व्यवहार होता है, उसी प्रकार 'काव्य समझा' यह भी व्यवहार होता है और समझना अर्थ का होता है, शब्द का नहीं । वेदादि शास्त्र भी शब्दार्थोभय वृत्ति के प्रतिपादक हैं। अतएव 'तदधीते तद्वेद' इस सूत्र का भाष्य संगत होता है। उक्त सूत्र के भाष्य में पातंजलि ने वेदादि को शब्दार्थोभयनिष्ठ माना है। जिस प्रकार दो के अवयव एक को दो नहीं कहा जाता सकता (एको न द्वौ), इसी प्रकार शब्दार्थोभयनिष्ठ काव्य के अवयव शब्द और अर्थ प्रत्येक के लिए शब्द व्यवहार नहीं हो सकता। यहँ पर लक्षणा के द्वारा काम चल जायगा । अतः शब्द और अर्थ के सम्मिलित रूप से काव्य मानने में कोई दोष नहीं है ।
- इसी प्रकार काव्यलक्षण में गुण और अलंकार का सन्निवेश भी उचित नहीं प्रतीत होता । क्योंकि ‘उदितं मण्डलं विभोः इस वाक्य को दूती के द्वरा अभिसरण विधि में अभिसारिका के द्वारा अभिसर निषेध में विरहिणी के द्वारा जीवनभाव (प्राण छोड़ने) के अर्थ में कहे जाने पर भी गुणालंकार के अभाव में काव्य नहीं होगा। इसी प्रकार 'गतोऽस्तमर्कः इस वाक्य के सन्ध्या के समय किसी दूती के द्वारा नायिका से कहे जाने पर अभिसरण के विधान में व्यङ्ग्यार्थ होने पर भी गुणालंकार के अभाव में काव्य नहीं होगा। जबकि उसमें काव्यत्व है। दूसरे जिसे आप काव्य कहते हैं उसे भी कोई काव्य मानने के लिए तैयार न होगा। क्योंकि 'चमत्कार ही काव्य का जीवन है’ वह दोनों में समान है। दूसरे गुणत्व और अलंकारत्व का अनुगम है क्योंकि आज तक यह निश्चित नहीं हो सका है कि गुण अलंकार क्या हैं, कितने हैं? इस प्रकार जो अनगिनत (अनिश्चित) है, उनका लक्षण में सन्निवेश करना उचित नहीं है।
- यदि यह कहा जाय कि जैसे कि एक ही वृक्ष के मूल (जड़) में पक्ष का संयोग है और दूसरे स्थान पर (शाखा में) संयोग का अभाव है, फिर भी सर्वत्र संयोग न होने पर, एक स्थान पर संयोग होने के कारण 'वृक्षः संयोगी' (यह वृक्ष संयोग वाली है) यह व्यवहार होता है। उसी प्रकार एक ही वाक्य अंशभेद से दोष-रहित, होने के कारण 'दुष्ट काव्य कहलायेगा। किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है । क्योंकि जैसे ‘वृक्ष के जड़ में पक्षी बैठा है और शाखा पर नहीं' सब लोगों को यह प्रतीति होती है । उसी प्रकार ‘इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में काव्य है और उत्तरार्द्ध में नहीं' इस प्रकार दृष्टान्त के द्वारा सार्वजनिक अनुभव न होने से दोषाभाव की अव्याप्यवृत्तिता सिद्ध होती है। के अतः उक्त दृष्टान्त के अनुसार 'दोष रहित दुष्ट' यह व्यवहार नहीं हो सकता है।
- एक बात और भी है कि जिस प्रकार धैर्य आदि आत्मा के धर्म है, उसी प्रकार गुण भी काव्यात्मा रस के धर्म है और जिस प्रकार हारादि अलंकार शरीर को शोषित करते है, उसी प्रकार अनुप्रासोपमादि अलंकार काव्य-शरीर को अलंकृत करने वाले हैं। अतः जिस प्रकार शौर्यादि अथवा हारादि शरीर के निर्माण में उपयोगी नहीं है उसी प्रकार गुण और अलंकार भी काव्य के स्वरूप निर्धारण में उपयोगी नहीं है।
अब पण्डितराज जगन्नाथ, साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ, के काव्य-लक्षण की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि -
- यदि विश्वनाथ कविराज रसात्मक वाक्य को 'काव्य मानते हैं तो वस्तु-प्रधान अथवा अलंकार प्रधान काव्य-काव्य नहीं कहलायेगे। यदि आप कहें कि यह हमको अभीष्ट है, हम उन्हें काव्य नहीं मानेंगे सो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि महाकवियों की चिरकाल से चली आ रही व्यावहारिक परम्परा उच्छिन्न हो जायेगी। उन लोगों ने समय-समय पर जो जल के प्रवाह, वेग, पतन, उच्छलन एवं भ्रमण तथा वानरों एवं बालकों की क्रीड़ाओं का वर्णन किया है, क्या वे सभी काव्य नहीं हैं ? यदि यह कहा जाय कि वहाँ वस्तु-प्रधान एवं अलंकार-प्रधान रचनाओं में भी परम्परा किसी न किसी प्रकार रसो का स्पर्श है ही, ऐसा मान लेने पर भी वे काव्य नहीं कहलायेगें क्योंकि ऐसी स्थिति में 'गौश्चरति' मृगो धावति' इत्यादि वाक्य भी काव्य कहलाने लगेंगे, क्योंकि विश्व की समस्त वस्तुएँ विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव हो सकती हैं। क्योंकि वहाँ किसी न किसी तरह रस का स्पर्श (सम्बन्ध ) रहता ही है। अतः 'रसात्मक वाक्य' को काव्य मानना उचित नहीं है।