कालिदास की काव्य नाट्यकला- उपमा कालिदासस्य
(Kalidaas Ki Natya Kala- Upma Kalidassya )
कालिदास की काव्य नाट्यकला- उपमा कालिदासस्य
सामान्य परिचय
- प्रस्तुत आर्टिकल में परवर्ती कवियों की गणना श्रृंखला में प्रथम स्थान पर गिने जाने वाले कवि कालिदास की नाट्य कला एवं उनके उपमा प्रयोग से सम्बन्धित वर्णन प्रस्तुत किया गया है।
- महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के कविकुलगुरू के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ये नाटक महाकाव्य तथा ज्योतिष परम्परा में भी निष्णात माने गयें है। इन्होंने कुल सात ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें तीन महाकाव्य, तीन नाटक और एक ऋतुसंहार नाम का ग्रन्थ रचा था। इसके अतिरिक्त ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्धित ज्योतिविदाभरणम् नाम का इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इन रचनाओं में जो वैशिष्ट्य है उसी के कारण वर्तमान में भी कालिदास की उतनी ही प्रतिष्ठा है जितनी पूर्व में थी। कालिदास महाकाव्यों के रचना में तो प्रवीण हैं ही बल्कि वे नाटकीयता में भी सर्वाधिक निपुण कवि है। उनका उपमा प्रयोग संस्कृत साहित्य में एक कीर्तिमान के रूप में स्थापित है।
- आप कालिदास रचित ग्रन्थों के संक्षिप्त वर्णन के आधार पर उनकी नाटकीय तथा अन्य साहित्यिक समस्त शैलियों, वर्णन प्रकारों का समुचित प्रयोजन बता सकेंगे । साथ ही यह भी समझा सकेंगे कि मूल रूप से कालिदास किस रीति के समर्थक कवि थे।
1 उपमा कालिदासस्य
काव्य में अलंकार प्रयोग के विषय में ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन ने एक बड़ी रहस्यमयी उक्ति प्रस्तुत की है-
रसाक्षिप्ततया यस्य बन्ध: शब्दक्रियों भवेत् ।
अपृथग्-यत्ननिर्वर्त्यः सोऽलड्कारो ध्वनौ मतः ॥
- रस के द्वारा आक्षिप्त होने के कारण जिसका बन्ध या निर्माण शक्य होता है और जिसकी सिद्धि में किसी प्रकार के पृथक् प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, वही सच्चा अलंकार है- ध्वनिवादियों का यही मत है। प्रथम होती है रस की अनुभूति और तदनन्तर होती है उसकी अलंकृत अभिव्यक्ति रसानुभूति तथा शब्दाभिव्यक्ति दोनों एक ही प्रयास के परिणित फल हैं। कोई कलाकार जिस चित्तप्रयास द्वारा रस विधारण करता है उसी चित्तप्रयास द्वारा अलंकारादि के माध्यम से रसप्रस्फुटन करता है; उसके लिए उसे किसी प्रकार के पृथक् प्रयास करने की जरूरत ही नहीं होती ।
- रससंवेग द्वारा ही अलंकार के स्वतः प्रकाशन का यह सिद्धान्त ध्वनिवादियों को ही मान्य नहीं है, प्रत्युत प्रख्यात आलोचक क्रोचे भी इससे पूर्णतया सहमत हैं चित्त की सहजानुभूति (इन्टयूशन) एवं अभिव्यन्जना (एक्सद्वप्रेशन)- इन दो वस्तुओं को वे दो प्रक्रियाओं से उत्पन्न नहीं मानते। उनका यह दृढ विश्वास है कि कला की अभिव्यन्जना की सम्भावना बीज रूप में हृदय की रसानुभूति में ही निहित रहती है; जैसे- एक विराट वृक्ष की शाखा - प्रशाखायें, किसलय पल्लव, फूल-फल आदि की रेखाओं की प्रकाशन संभावना एक छोटे से बीज में |
- साहित्य के रस एवं साहित्य की भाषा में अद्वय योग रहता है, अभिव्यक्त अलंकार-भाषा का यह समस्त सौन्दर्य-कटककुण्डलावदिवतु कहीं बाहर से जोड़ा हुआ नहीं रहता, प्रत्युत् वह काव्यपुरूष का स्वाभाविक देह धर्म होता है।
अभिनव गुप्त ने भी स्पष्ट ही कहा है-
'न तेषां बहिरङ्गत्वं रसाभिव्यक्तौ ।
इस विषय में महाकवि कालिदास भी अद्वयवादी थे:
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥
- वाक् तथा अर्थ का – काव्य की अन्तर्निहित भाववस्तु एवं उसके अभिव्यन्जक शब्द का परस्पर नित्य सम्बन्ध है, जैसे विश्वसृष्टि के आदि माता-पिता पार्वती - परमेश्वर का त्रिगुणात्मिका शक्ति ही विशुद्ध चिन्मय शिव की विश्व में अभिव्यक्ति का कारण बनती है। शिव के आश्रयविना शक्ति की लीला नहीं, शक्ति के विना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं; वह शवमात्र होता है। साहित्य के क्षेत्र में भी भावरूप महेश्वर एवं शब्दरूपा पार्वती दोनों ही एक दूसरे के आश्रित हैं। महाकवि कालिदास की उपमा (या अलंकार) के प्रयोग के अवसर पर इस तथ्य का अनुशीलन नितान्त आवश्यक है कि रसानुभति की समग्रता को वर्ण, चित्र तथा संगीत में जो भाषा जितना अधिक मूर्त कर सकेगी, वह भाषा उतनी ही सुन्दर एवं मधुर होगी।
कालिदास अपनी
उपमा के द्वारा देवता तथा मानव दोनों के गौरव को प्रतिष्ठित करते हैं। समाधि में
निरत भूतभावन शंकर की उपमा द्वारा जिस अपूर्व स्तब्धता का परिचय दिया है उसका
सौन्दर्य नितान्त अवलोकनीय है (कुमारसम्भव 3/48) -
अवृष्ठिसंरभमिवाम्बुवाहम् अपामिवाधारमनुत्तरङ्गम् ।
अन्तश्चराणां मरूतां निरोधाद् निवापनिष्कम्पमिव प्रदीपम् ।।
- योगेश्वर महादेव शरीरस्थ समस्त वायुओं को निबद्ध कर पर्यड्कबन्ध में स्थिर अचंचल भाव से बैठे हैं, जैसे वृष्टि के संरम्भ से हीन अम्बुवाह मेघ हो (जल को धारण जलराशि का आधारभूत समुद्र जैसे तरंगहीन अचंचल हो; 'अपामिवाधार' शब्द की यही ध्वनि है) तथा निवातनिष्कम्प प्रदीप हो । यहाँ तीनों प्राकृतिक उपमानों के द्वारा कालिदास योगिराज की अचंचल स्थिरता की अभिव्यन्जना कर उनके गौरव की एक रेखा खींचते हुये प्रतीत होते हैं ।
रघुवंश (3/2) में कालिदास ने गर्भवती सुदक्षिणा का बड़ा सुन्दर चित्र
उपमा के द्वारा खींचा है
शरीरसादादसमग्रभूषणा मुखेन साऽलक्ष्यत लोध्रपाण्डुना ।
तनुप्रकाशेन
विचेयतारका प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी ॥
- आसन्नप्रसवा सुदक्षिण मानों प्रभातकल्पा रजनी हो । रजनी दिन को प्रकाश देने वाले सूर्य का प्रसव करती है, वैसे ही रानी वंशकर्ता उज्जवलमूर्ति रघु को प्रसव करने जा रही है। सूर्यरूपी पुत्र को गर्भ में धारण करनेवाली आसन्नप्रसवा विराट् रजनी की महिमामयी मूर्ति होती है, सुदक्षिणा की मूर्ति में भी वह गौरव प्रस्फुटित हो रहा है। शरीर की कृशता के कारण हीरे, जवाहिरों के भूषण स्वयं खिसक पड़े हैं; जैसे रजनी में टिमटिमाते तारे स्वयं खिसक जाते हैं और दो चार ही बचे रहते हैं। लाध्र के समान ईषत्-पीला मुख पीले पड़ जानेवाले चन्द्रमा के समान प्रकाशहीन हो गया है। गर्भिणी के स्वभाविक चित्रण के साथ ही प्रभातप्राय निशा का कितना समुचित वर्णन हमारे नेत्रों के सामने उपस्थित हो जाता है।
- कालिदास की उपमाओं की रसात्मिकता तथा रसपेशलता नितान्त मर्मस्पर्शी है। औचित्य तथा सन्दर्भ को शोभन बनाने की कला उनमें अपूर्व है तपस्या के लिए आभूषणों को है छोड़कर केवल वल्कल धारण करने वाली पार्वती चन्द्र तथा ताराओं से मण्डित होनेवाली अरूणोदय से युक्त रजनी के समान बतलाई गई है (कुमार0 5/44)। स्तनों के भार से किंचित् झुकी हुई नवीन लाल पल्लवों से मण्डित संचारिणी लता के समान प्रतीत होती है -पर्याप्त पुष्पस्तबकावनम्रा संचारिणी पल्लविनी लतेव।
स्वयंवर में उपस्थित भूपालों को छोड़कर जब इन्दुमती आगे बढ़ जाती है, तब वे राजमार्ग पर दीपशिखा के द्वारा छोड़े गये महलों के समान प्रतीत होते हैं। यहाँ राजाओं की विषष्णता तथा उदासी की अभिव्यक्ति इस उपमा के द्वाराबड़ी सुन्दरता से की गई है -
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा ।
नरेन्द्र मार्गाह इव प्रपेदे
विवर्णभावं स स भूमिपालः ॥
- इसी उपमा प्रयोग के सौन्दर्य के कारण यह महाकवि दीपशिखा कालिदास' नाम से कविगोष्ठी में प्रसिद्ध है। कालिदासीय उपमा की यह भूयसी विशिष्टता है कि वह ‘स्थानीयरन्जना' (लोकल कलरिंग) से रंजित है और इससे श्रोता के चक्षुः पटल के सामने समग्र चित्र को प्रस्तुत कर देती है। परास्त किये जाने पर पुनः प्रतिष्ठित किये गये वंगीय नरेश रघु के चरण-कमल के ऊपर नम्र होकर उन्हें फलों से समृद्ध बनाते हैं, जिस प्रकार उस देश के धान के पौधे (रघु0 4/37) | कलिंग-नरेश के मस्तक पर तीक्ष्ण प्रताप के रखने वाले रघु की समता गंभीरवेदी हाथी के मस्तक पर तीक्ष्ण अंकुश रखने वाले महाव्रत से की गई है (रघु04/39)। प्राग्ज्योतिषपुर (आसाम) के नरेश रघु के आगमन पर उसी प्रकार झुक जाते हैं जिस प्रकार हाथियों के बाँधने के कारण कालागुरू के पेड़ झुक जाते हैं (रघु0 4/81) इन समस्त उपमाओं में 'स्थानीय रंजन' का आश्चर्यजनक चमत्कार है।
प्रकृति से गृहीत उपमाओं में एक विलक्षण आनन्द है। राक्षसके चंगुल से बचने पर बदहोश उर्वशी धीरे-धीरे होश में आ रही है। इसकी समता के लिए कालिदास चन्द्रमा के उदय होने पर अन्धकार से छोड़ी जाती हुई (मुच्यमाना) रजनी, रात्रिकाल में धूमराशि से विरहित होने वाली अग्नि की ज्वाला, बरसात में तट के गिरने के कारण कलुषित होकर धीरे-धीरे प्रसन्न - सलिला होने वाली गंगा के साथ देकर पाठकों के सामने तीन सुन्दर दृश्य को एक साथ उपस्थित कर देते हैं।
ये तीनों
उपमायें औचित्यमण्डित होने से नितान्त रसाभिव्यन्जक हैं (विक्रमोर्वशीय 1/9 ) -
आविर्भूते शशिनि तमसा मुच्यमानेव रात्रि
नैंशस्यार्चिर्हुतभुज इव छिन्नभूयिष्ठधूमा
मोहेनान्तर्वरतनुरियं लक्ष्यते मुक्तकल्पा
गंगा रोध:पतनकलुषा गृह्णतीव प्रसादम् ॥