कालिदास की काव्य नाट्यकला - राष्ट्रमंगल भावना
कालिदास की काव्य नाट्यकला - राष्ट्रमंगल भावना
- भारतवर्ष एक अखण्ड राष्ट्र है। इस विशाल विस्तृत देश के नाना प्रान्तों में भाषा तथा स्थानीय वेश-भूषा की इतनी विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है कि वाह्यदृष्टि से देखने वालों को विश्वास नहीं होता कि देश में समरसता का साम्राज्य है, अखण्डता का बोलबाला है; परन्तु बाहरी आवरण को हटाकर निरखनेवालों की दृष्टि में इसकी सांस्कृतिक एकता तथा अभिन्नता का परिचय पद-पद पर मिलता है ।
- कालिदास भारतीय संस्कृतिक के हृदय थे। उनकी कविता में हमारी सभ्यता झलकती है; उनके नाटकों में हमारी संस्कृति विश्व के रंगमंच पर अपना भव्य रूप दिखलाती है। उनकी वाणी राष्ट्रीय भाव तथा भावना से ओतप्रोत है।
- इतिहास साक्षी है, इसी महाकवि ने आज से डेढ सौ वर्ष पहले, जब भारत पाश्चात्य जगत् के सम्पर्क में आया, तब इस देश के सरस हृदय, कोमल वाणी तथा उदात्त भावनाका प्रथम परिचय पाश्चात्य संसार को दिया। आज भी हम इस महाकवि की वाणी से स्फूर्ति तथा प्रेरणा पाकर अपने समाज को सुधार सकते हैं तथा अपना वैयक्तिक कल्याण सम्पन्न कर सकते हैं ।
- कालिदास ने अखण्ड भारतीय राष्ट्र की स्तुति अभिज्ञान शाकुन्तल की नांदी में की है । कविवर ने शंकर की अष्टमूर्तियों का उल्लेख किया है। कुमारसम्भव (6/26) में भी इन्ही मूर्तियों का विस्तार कर जगत् के रक्षण कार्य का स्पष्ट संकेत है। महादेव की आठ मूर्तियाँ ये हैं – सूर्य, चन्द्र, यजमान, पृवी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश ये समस्त मूर्तियाँ प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होती अत: इन प्रत्यक्ष मूर्तियों को धारण करने वाले इस जगत् के चेतन नियामक की सत्ता में किसी को सन्देह करने का अवकाश नहीं है ।
- कालिदास वैदिक धर्म तथा संस्कृति के प्रतिनिधि ठहरे । प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीश:' – इन शब्दों में वैदिक कवि ने निरीश्वरवादी बौद्धों को कड़ी चुनौती दी है। भगवान् की प्रत्यक्ष दृश्य-मूर्तियों में अविश्वास रखना किसी भी चक्षुष्मान् को शोभा नही देता। इतना ही नहीं, इस श्लोक में भारत की एकता तथा अखण्डता की ओर भी संकेत किया गया है। शिव की इन मूर्तियों के तीर्थ इस देश के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक फैले हुए है। सूर्य प्रत्यक्ष देवता है चन्द्रमूर्ति की प्रतिष्ठा दो तीर्थो में है- एक है भारत के पश्चिम में काठियावाड़ का सोमनाथ मन्दिर और दूसरा है भारत के पूरब में बंगाल का चन्द्रनाथ क्षेत्र ।
- सोमनाथ का प्रसिद्ध तीर्थ प्रभासक्षेत्र में है और चन्द्रनाथ का मन्दिर चटगाँव से लगभग चालीस मील उत्तर पूर्व में एक पर्वत पर स्थित है। नेपाल के पशुपतिनाथ यजमान मूर्ति के तीर्थ हैं। पन्च तत्वों की सुचक मूर्तियों के क्षेत्र दक्षिण भारत में विद्यमान हैं। क्षितिलिंग शिवकांची में एकाम्रेश्वरनाम के रूप में हैं।
- जललिंग जम्बुकेश्वर के शिव मन्दिर में मिलता है। तेलोलिंग अरूणाचल पर है, वायुलिंग कालहस्नीश्वर के नाम से विख्यात है, जो दक्षिण के तिरूपति बालाजीके कुछ ही उत्तर में है। आकाशलिंग चिदम्बर के मन्दिरमें है। ‘चिदम्बर' का अर्थ ही है 'चिदाकाश'। इसी से मूल-मन्दिर में कोई मूर्ति नहीं है, आकाश स्वयं मूर्तिहीन जो ठहरा ।
- इस प्रकार भगवान् चन्द्रमौलीश्वर की ये आठों मूर्तियों भारत के सबसे उत्तरीय भाग नेपाल से लेकर दक्षिण चिदम्बर तक तथा काठियावाड़ से लेकर बंगाल तक फैली हुई हैं और उनकी उपासना का अर्थ है समग्र भारतवर्ष की आध्यात्मिक एकता की उपासना । महाकवि ने राष्ट्रीय एकता की ओर इस श्लोक में गूढ़ रूप से संकेत किया है।
- राष्ट्र का मंगल किस प्रकार सिद्ध हो सकता है ? क्षात्रबल तथा ब्राह्मतेज के परस्पर सहयोग से ही किसी देश का वास्तव में कल्याण हो सकता है। ब्राह्मण देश के मस्तिष्क है, उन्हीं के विचार तथा मार्ग पर समग्र देश आगे बढ़ता है। सम्राट् त्रैवृष्ण त्र्यरूण और महर्षि वृश जान के वैदिक आख्यान का यही रहस्य है। कालिदास ने इस तत्व का स्पष्टीकरण बड़े सुन्दर शब्दों में किया है (रघुवंश 8/4)
स बभूव दुरासद: परैर्गुरूणाथर्वविदा कृतक्रिया ।
पवनाग्निसमागमो ह्ययं सहितं ब्रह्मयदस्त्रतेजसा ॥
- अथर्ववेद के जाननेवाले गुरू वसिष्ठ के द्वारा संस्कार कर दिये जाने पर वह अज शत्रुओं के लिये दुर्द्धर्ष हो गया। ठीक ही है, अस्त्र - तेज से युक्त ब्रह्म - तेज आग और हवा के संयोग के समान प्रदीप्त हो उठता है.
भारतीय राजाओं का जीवन परोपकार की एक दीर्घ परम्परा होता है। कालिदास ने महाराज अज के वर्णन में कहा है कि उसका धन ही केवल दूसरों के उपहार के लिए नहीं था, प्रत्युत् उसके समस्त सद्गुण दूसरों का कल्याण - सम्पादन करते थे; उसका बल पीडितो के भय तथा दुःख का निवारण करता था और इसका शास्त्राध्यन विद्वानों के सत्कार एवं आदर करने में लगाया गया था ( रघु0 8/3) -
बलमार्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये बहु श्रुतम् ।
वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजना ॥
- राजा की सार्थकता प्रजापालन से है। राजा प्रकृतिरन्जनात्'- हमारी राजनीति का आ तत्व है। प्रकृति का अनुरन्जन ही हमारे शासकों का प्रधान लक्ष्य होता था। और प्रजा का कर्तव्य था राजा की भक्ति के साथ अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा ।
- समाज वर्णाश्रम धर्म पर प्रतिष्ठित होकर ही श्रेयः साधन कर सकता है, कालिदास की यह स्पष्ट सम्मति प्रतीत होती है। भारत का वास्तव कल्याण दो ही वस्तुओं से हो सकता है- त्याग से और तपोवन से। जिस दिन त्याग का महत्व कम हो जाएगा तथा तपोवन के प्रति हमारी आस्था नष्ट हो जायगी, उसी दिन न हम भारतीय रहेंगे और न हमारी सभ्यता भारतीय रहेगी। आर्य संस्कृति की मूल -प्रतिष्ठा इन्हीं दो पीठों पर है। भारतीय राष्ट्र संरक्षक रघु के जन्म का कारण नगर से बहुत दूर, वसिष्ठ के पावन आश्रम में निवास तथा गोचारण है। रघु का उदय गोमाता के वरदान का उज्जवल प्रभाव है।
- इसी प्रकार दुष्यन्त पुत्र भारत का जन्म और पोषण हेमकूट पर्वत पर मारीचाश्रम में होता है। भारतीय राष्ट्र के संचालन नेता पावन तपोवन और पवित्र त्याग के वायुमण्डल में पले है और बड़े हुए हैं। हमारे राजाओं ने जिस दिन कालिदास के इस सन्देश को भुला दिया, उस दिन उनका अध: पतन आरम्भ रघु गया। की तेजस्विता तथा अग्निवर्ण की स्त्रैणता का कितना सजीव चित्र कालिदास ने खींचा है। रघु था त्याग का उज्जवल अवतार और अग्निवर्ण था स्वार्थ परायणता की सजीव मूर्ति - रघु की वीरता तथा उदारता भारतीय नरेश का आदर्श है और रघु हिन्दू राजा का प्रतीक हैं, तो अग्निवर्ण पतित-पातकी भूपालों का प्रतिनिधि है। राजभक्त प्रजा प्रातः काल अपने राजा का मुख देखकर सुप्रभात मनाने आती थी; परन्तु अग्नि-वर्ण मन्त्रियों के लाखों सिफारिस करने पर यदि कभी दर्शन देता था तो खिड़की से लटकाकर अपने केवल पैर का | प्रजा मुख देखने के लिये आती थी, पर पैर का दर्शन पाकर लौटती थी । वाह री विडम्बना ! (रघु0 19/7)
गौरवाद्यदपि जातु मन्त्रिणां दर्शनं प्रकृतिकांक्षितं ददौ
तद् गवाक्षविवरावलम्बिना केवलेन चरणेन कल्पितम्।।
- अग्निवर्ण पार्थिव भोगविलास का दास था। उसे फल भी अच्छा ही मिला राष्ट्र तथा देश का सत्यानाश । अग्निवर्ण के दुश्चरित्र का कुफल कवि ने बड़े ही प्रभावशाली शब्दों में अभिव्यक्त किया है। इस चित्र को देखकर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।