कालिदास का जीवन परिचय (Kalidas Biography in Hindi)
कालिदास का जीवन परिचय (Kalidas Biography in Hindi)
- महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के कविकुलगुरू के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ये नाटक महाकाव्य तथा ज्योतिष परम्परा में भी निष्णात माने गयें है। इन्होंने कुल सात ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें तीन महाकाव्य, तीन नाटक और एक ऋतुसंहार नाम का ग्रन्थ रचा था। इसके अतिरिक्त ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्धित ज्योतिविदाभरणम् नाम का इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इन रचनाओं में जो वैशिष्ट्य है उसी के कारण वर्तमान में भी कालिदास की उतनी ही प्रतिष्ठा है जितनी पूर्व में थी ।
- इस आर्टिकल में कालिदास रचित ग्रन्थों के संक्षिप्त वर्णन के आधार पर उनकी नाटकीय तथा अन्य साहित्यिक समस्त शैलियों, वर्णन प्रकारों का समुचित प्रयोजन बता सकेंगे। साथ ही यह भी समझा सकेंगे कि मूल रूप से कालिदास किस रीति के समर्थक कवि थे।
कालिदास का जीवन परिचय (Kalidas Biography in Hindi)
- कालिदास भारतीय तथा पश्चात्य दृष्टियों में संस्कृत के सर्वमान्य कवि माने जाते हैं। नाट्यकला की सुन्दरता निरखिये, काव्य की वर्णनछटा देखिये, गीतिकाव्य के सरस हृदयोद्गारों को पढिये, कालिदास की प्रतिभा सर्वातिशायिनी है। उनके काव्यों की जितनी ख्याति निश्चित है, उनकी जीवनी तथा काल-निरूपण उतना ही अनिश्चित है। कालिदास की जन्मभूमि के विषय में बंगाल तथा कश्मीर के नाम लिये जाते है परन्तु यह अभी तक अनिर्णीत ही है ।
- कवि ने उज्जयिनी के लिए विशेष पक्षपात दिखलाया है, जिससे यही इनकी जन्मभूमि प्रतीत होती है । मेघदूत (1/29) में यक्ष रास्ता टेढा होने पर भी 'श्रीविशाला' विशाला (उज्जयिनी) को देखने के लिये मेघ से आग्रह करता है। उज्जयिनी के विशाल महलों और रमणियों के कुटिल-कटाक्षों को देखने से यदि वह वन्चित रह गया तो उसका जीवन ही निष्फल है।
- कालिदास ने अवन्ती प्रदेश की भौगोलिक स्थिति का सूक्ष्म वर्णन मेघदूत में किया है वहाँ की छोटी-छोटी नदियों का भी नाम निर्देश किया है तथा वर्णन दिया है। उज्जयिनी के प्रति उनके विशेष पक्षपात तथा सूक्ष्म भौगोलिक परिचय के आधार पर यही कहा जा सकता है कि कालिदास वहीं के रहने वाले थे।
- कालिदास नि:सन्देह शैव थे। मेरी दृष्टि में वे उज्जयिनी के विख्यात ज्योतिर्लिङ्ग ‘महाकाल' के उपासक थे। मेघदूत में महाकाल की उपासना के प्रति उनका आग्रह इसका आधार माना जा सकता है। महाकाल की शोभा का वर्णन कर यक्ष मेघ से कहता है कि उज्जयिनी में तुम किसी समय चहुँचों, परन्तु सूर्य के अस्त होने तक तुम्हें वहाँ ठहराना होगा। प्रदोष-पूजा के अवसर पर तुम अपना स्निग्ध गम्भीर घोष करना जो महाकाल की पूजा में नगाड़े का काम तुम्हें अशेष पुण्यों का भाजन बना देगा (मेघ) श्लोक 35 ) । इतना ही नहीं, कालिदास मन्दिर में पूजार्थ नियत की गई देवदासियों से परिचय रखते हैं। यह प्रथा दक्षिण के मन्दिरों में आज भी प्रचलित है, यद्यपि उत्तर भारत के मन्दिरों में यह विशेष रूप से नहीं दीख पड़ती। उज्जयिनी उदयन तथा वासवदत्ता के उदात्त प्रेम की क्रीडास्थली थी। फलतः कालिदास ने इस कथा से सम्बद्ध छोटी-छोटी घटनाओं तथा उनके नियत स्थानों का भी उल्लेख कर नगरी के प्रति पूर्ण पक्षपातप्रदर्शित क्रिया है, जो उसे कवि की जन्मभूमि होने का गौरव प्रदान करने में सचेष्ट है।
राजा विक्रमादित्य के नव-रत्नों के मुखिया
- भारतीय जन-श्रुति के आधार पर कालिदास राजा विक्रमादित्य के नव-रत्नों के मुखिया थे । कालिदास के ग्रन्थों से भी विक्रम के साथ रहने की बात सूचित होती है। विश्वविख्यात शकुन्तला का अभिनय किसी राजा की सम्भवतः विक्रम कि - ‘अभिरूपभुयिष्ठा’ परिषद् में ही हुआ था।
- 'विक्रमोर्वशीय' में पुरूरवा के नामक होने पर भी विक्रम का नामोल्लेख नाटक के नाम में है तथा 'अनुत्सेकः खलु विक्रमालड्कार' आदि वाक्य इस सिद्धान्त की पुष्टिकर रहे है कि कालिदास का विक्रम से सम्बन्ध अवश्य था।
- 'रामचरित' महाकाव्य के 'ख्यातिकामपि कालिदासकवयो नीताः शकारतिना' आदि पद्यो से भी इसी सम्बन्ध की पुष्टि हो रही है। अतः एव जब तक इसके विरूद्ध कोई प्रमाण न मिले , तब तक यह मानना अनुचित नहीं होगा कि कालिदास राजा विक्रम की सभा के रत्न थे ।
- कालिदास ने शुगवंशीय राजा अग्निमित्र को अपने 'मालविकाग्निमित्र' नाटक का नायक बनाया है। अतः वे उसके (विक्रम-पूर्व द्वितीय शतक के) अनन्तर होगे। इधर सप्तम् शताब्दी में हर्षवर्धन के सभा कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित में कालिदास की कविता की प्रशस्त प्रशंसाकी है। अतः कवि का समय विक्रमपूर्व द्वितीय शतक से लेकर विक्रम की सप्तम् शतक के बीच में कहीं होना चाहिए ।
कालिदास के समय विषय में प्रधानतया तीन मत है -
- पहला मत कालिदास को षष्ठ शतक का बतलाता है।
- दूसरा मत गुप्तकाल में कालिदास की स्थिति मानता है ।
- तीसरा मत- विक्रम सं0 के आरम्भ में इनका समय बतलाता है।
षष्ठशतक में कालिदास
- भारतीय इतिहास में विक्रम उपाधि वाले चार राजाओं का उल्लेख पाया जाता है, जिनके समसामयिक होने से कालिदास का भी समय भिन्न-भिन्न सदियों में माना गया है। डॉक्टर हार्नली का मत है कि यशोधर्मन् ने, जिसने कहरूर की लड़ाई में हूणवंश के प्रतापी राजा मिहिरकुल को बालादित्य नरसिंह गुप्त की सहायता से परास्त किया था, 'विक्रमादित्य' की उपाधि भी ग्रहण की थी। अपनी इस महत्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में उसने नवीन संवत् चलाया, जो विक्रम के नाम से व्यवहृत हुआ, परन्तु इसे 600 वर्ष पूर्व, अर्थात् 58 ईस्वी की विजय घटना की यादगार में उसने अपने नवीन संवत् के 600 वर्ष अर्थात् 58 ईस्वी पूर्व से स्थापित होने की बात प्रचारित की विक्रम संवत् की यह नवीन कल्पना डॉक्टर फर्गुसन ने की थी । हार्नली ने इसका उपयोग कालिदास के समय-निरूपण के लिए किया। उसने दिखलाया है कि रघु का दिग्विजय यशोधर्मन् की राज्यसीमा से बिल्कुल मिलता-जुलता है। महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ' ने अनेक कौतुकपूर्ण प्रमाणों से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि कालिदास भारवि के अनन्तर छठी सदी में विद्यमान थे।
इस मत का खण्डन -
- परन्तु कालिदास को इतना पीछे मानना उचित नहीं प्रतीत होता है । हूणों को पराजित करने पर भी यशोधर्मन् ‘शकाराति' - शकों का शत्रु नहीं कहा जा सकता। न उसके शिलालेखों से नवीन संवत् के स्थापना की घटना सच्ची प्रतीत होती है। विक्रम संवत् की स्थापना छठी सदी में यशोधर्मन् के द्वारा मानना ज्ञात इतिहास पर घोर अत्याचार करना है; क्योंकि 'मालव संवत के नाम से यह संवत् अति प्राचीन काल में भी प्रसिद्ध था । 473 ई0 के कुमारगुप्त की प्रशस्ति के कर्ता वत्सभट्टि कि रचना में ऋतुसंहार के कितने ही पद्यों की झलक दीख पड़ती है। ऐसी दशा में कालिदास को पाँचवीं सदी के अनन्तर मानना अनुचित है। अत: इस मत को प्रामाणिक मानकर कितने ही भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने गुप्त नरेशों के उन्नत समय में कालिदास की स्थिति बतलाई है।
गुप्तकाल में कालिदास
- गुप्तकाल में कालिदास की स्थिति माननेवाले विद्वानों में भी कुछ – कुछ भेद दीख पड़ता है। पूना के प्रोफेसर के0बी0 पाठक की सम्मति में कालिदास स्कन्दगुप्त 'विक्रमादित्य' के समकालीन थे, परन्तु डॉक्टर रामकृष्ण भण्डारक, साहित्याचार्य पं0 रामावतार शर्मा तथा अधिकांश पश्चिमीविद्वान् गुप्तों में सबसे अधिक प्रभावशाली चन्द्रगुप्त द्वितीय को कालिदासका आश्रयदाता मानते हैं।
(क) पाठक ने काश्मीरी टीकाकार वल्लभदेव के निम्नलिखित श्लोक के पाठ को प्रामाणिक मानकर पूर्वोक्त सिद्धान्त निश्चित किया (रघु0 4/67)
विनीताध्वश्रमास्तस्य सिन्धुतीरविचेश्टनैः ।
दुधुवुर्वाजिनः
स्कन्थॉल्लग्नकुड्कमकेसनान्।।
- इस पद्य के 'सिन्धु' शब्द के स्थान पर वल्लभदेव ने 'वंक्षू पाठ माना है। 'वंक्षू' शब्द पाठक की सम्मति में OXUS (आक्सस) शब्द का संस्कृतीकरण है। अतः इस पाठ को प्रामाणिक मानने से यह कहना पड़ता है कि रघु ने हूंणो को आक्सस नदी (जो पामीर निकलकर अरब सागर में गिरती है) के किनारे उनके भारत आगमन के पहले ही हराया था। यह घटना 455 ई0 के पूर्व की हो सकती है; क्योंकि उस वर्ष स्कन्दगुप्त के प्रबल प्रताप के सामने हार मान भग्न-मनोरथ होकर हूंणों को लौटना पड़ा था। अतः रघुवंश को कालिदास की प्रथम रचना मानकर पाठक ने उन्हें स्कन्दगुप्त का समकालीन माना है विजयचन्द्र मजुमदार ने कुछ अन्य प्रमाण देकर इन्हें कुमारगुप्त तथा स्कन्दगुप्त दोनों के समय में माना है।
(ख) पश्चिमी विद्वान् शकों को भारत से निकाल बाहर करने वाले, विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले, चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल में (जब भारत में चारों ओर शान्ति विराजमान थी और जो भारतीय कलाकौशल के पुनरून्नति का काल माना जाता है) कालिदास को मानते हैं।
- रघुवंश के
चतुर्थ सर्ग में वर्णित रघु का दिग्विजय समुद्रगुप्त की विजय से सर्वथा
मिलता-जुलता है। रघुवंश में वर्णित शान्ति का समुचित काल चन्द्रगुप्त का ही समय
था। इसके सिवाय इन्दुमती –
स्वयंवर में
उपस्थित मगध राजा के लिए जो उपमा या विशेषण प्रयुक्त किये गये है उनसे भी 'चन्द्रगुप्त' नाम की ध्वनि
निकलती है, परन्तु गुप्तकाल
में कालिदास की स्थिति बताना ठीक नहीं, क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय ही प्रथम विक्रमादित्य नहीं
थे। जब इनसे भी प्राचीन मालवा में राज्य करने वाले विक्रम का पता इतिहास से चलता
है, तब कालिदास
गुप्तकाल में कैसे माने जा सकते है ?
प्रथम शती में कालिदास-
(क) ऐतिहासिक खोज से ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में शकों को परास्त करने वाले, विद्वानों को विपुल दान देने वाले उज्जयिनी- नरेश राजा विक्रमादित्य के अस्तित्व का पता चलता है।
- राजा हाल की 'गाथासप्तशती में (रचनाकाल प्रथम शताब्दी) 'विक्रमादित्य' नामक एक प्रतापी तथा उदार शासक का निर्देश है, जिसने शत्रुओं पर विजय पाने के उपलक्ष्य में भृत्यों को लाखों का उपहार दिया था।
- जैन ग्रन्थों से में इस बात की पर्याप्त पुष्टि होती है। मेरूतुड्गाचार्य विरचित 'पद्यावली' से पता चलता है कि उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों से उज्जयिनी का राज्य लौटा लिया था। यह घटना महावीर-निर्वाणके 470 वें वर्ष में (527-470=57 ई0 पूर्व ) हुई थी। इसकी पुष्टि प्रबन्धकोश तथा शत्रुन्जयमहात्म्य से भी होती है।
- प्राचीन काल में 'मालव' नामक गणों का विशेष प्रभुत्व था। ईस्वी पूर्व तृतीय शतक में इसने ‘क्षुद्रक’ गण के साथ सिकन्दर का सामना कियाथा, पर विशेष सहायता न मिलने से पराजित हो गया था । यही मालव जाति ग्रीक लोगों के सतत आक्रमण से पीडित होकर राजपूताने की ओर आई और मालवा में ईस्वी पूर्व प्रथम द्वितीय शताब्दी में अपना प्रभुत्व जमाया। यह गणराज्य था और विक्रमादित्य इसी गणतन्त्र के मुखिया थे ।
- शकों के आक्रमण को विफल बनाकर विक्रम ने ‘शकारि' की उपाधि धारण की और अपने मालवगण को प्रतिष्ठित किया। इसलिए इस संवत् का 'मालवगण - स्थिति' नाम पड़ा था । गणराज्य में व्यक्ति की अपेक्षा समाज का विशेष महत्व होता है।
- अतः यह संवत् गणमुख्य के नाम पर ही अभिहित न होकर गण के नाम पर 'मालव-संवत्' कहलाता था। अत: ईo पू० प्रथम शतक में विक्रम नाम-धारी राजा या गणमुखिया का परिचय इतिहास से भली-भाँति लगता है। इन्हीं की सभा में कालिदास की स्थिति मानना सर्वथा न्यायसंगत है।
कालिदास का जीवन परिचय का निष्कर्ष -
- अपने आश्रयदाता 'विक्रम' की सूचना कालिदास ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर दी है। विक्रमोर्वशीय त्रोटक के अभिधान में नायक के स्थान पर 'विक्रम' शब्द का प्रयोग विक्रम के साथ कालिदास का घनिष्ठ सम्बन्ध सूचित करता है।
- अभिज्ञानप्रस्तावना में रसभाव- विशेष - दीक्षा- गुरू विक्रमादित्य साहसाड्क नाम्ना निर्दिष्ट किये गये है तथा भरत वाक्य में ‘गणशतपरिवर्तेरेवमन्योन्यकृत्यैः' में राजनीतिक अर्थ में व्यवहृत 'गण' शब्द - गणराष्ट्र' का सूचक स्वीकृत किया गया है। प्रायः अभी तक विक्रमादित्य एकतान्त्रिक राजा ही समझे जाते रहे हैं, परन्तु ऊपर निर्दिष्ट हस्तलेख के प्रामाण्य पर वे गणराष्ट्र (मालव गणराष्ट्र) के गणमुख्य प्रतीत होते हैं ।
- विक्रमादित्य उनका व्यक्तिगत अभिधान था (कथासरित्सागर का पोषक साक्ष्य है) तथा 'साहसाड्क' उनकी उपाधि थी। उन्होने शकों को उनके प्रथम बढ़ाव में पराजित कर इस क्रान्तिकारी घटनाके उपलक्ष्य में 'मालवगण-स्थिति' नामक संवत् का प्रवर्तन किया, जो आगे चलकर 'विक्रमसंवत्' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
- गणराष्ट्र में व्यक्तिविशेष का प्राधान्य नहीं रहता। इसीलिए यह गण के नाम से प्रसिद्ध था। चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा समस्त गणराष्ट्र उच्छिन्न कर दिये गये; फलतः अष्टम नवम शती में सारे देश में निरंकुश एकतन्त्र की स्थापना हो जाने पर गणराष्ट्र की कल्पना ही विलीन हो गई। तभी गणमुख्य का नाम इससे सम्बद्ध कर दिया गया है और यह संवत् 'विक्रम' के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
विक्रमादित्य के गुप्त सम्राट् होने के विरूद्ध निम्नलिखित कठोर आपत्तियाँ हैं
(1) गुप्त सम्राटों का अपना वंशगत संवत् है, उनके किसी उत्कीर्ण लेख में मालव अथवा विक्रम संवत् का उल्लेख नहीं है। जब उन्होने ही विक्रम संवत् का प्रयोग नहीं किया, तब जनता उनके गौरव के अस्त होने पर उनके नाम से इसे विक्रम संवत् ' क्यों कहने लगेगी ?
(2) गुप्त सम्राट
पाटलिपुत्रनाथ थे, किन्तु
विक्रमादित्य उज्जयिनीनाथ थे, अनुश्रुतियों के आधार पर ही नहीं प्रत्युत रघुवंश (6/26) के आधार पर भी ।
यहाँ इन्दुमती - स्वयंवर में अवन्तिनाथ को 'विक्रमादित्य' होने का गूढ संकेत विद्यमान है।
(3) उज्जयिनी के विक्रम का व्यक्तिगत अभिधान ही 'विक्रमादित्य था, उपाधि नहीं कथासरित्सागर में लिखा है कि उनके पिता ने जन्म दिन को ही शिवजी के आदेशानुसार उनका नाम 'विक्रमादित्य' रखा, अभिषेक के समय की यह उपाधि नहीं है। इसके विरूद्ध किसी गुप्त सम्राट् का नाम विक्रमादित्य नहीं था। चन्द्रगुप्त द्वितीय और स्कन्दगुप्त के विरूद्ध क्रमश: ‘विक्रमादित्य' तथा 'क्रमादित्य' ( कहीं-कहीं विक्रमादित्य भी) थे। समुद्रगुप्त की यह उपाधि नहीं थी। कुमारगुप्त की उपाधि थी महेन्द्रादित्य', कोई नाम नहीं था । उपाधि होने से पहिले यह आवश्यक है कि उस नाम का कोई पराक्रमी लोकप्रसिद्ध व्यक्ति रहा हो जिसके नाम का अनुकरण पिछले युग के लोग करते है। गुप्त राजाओं की 'विक्रमादित्य' उपाधि अपनी पूर्व किसी लोकख्यात व्यक्ति की सत्ता की परिचायिका है अतः विक्रमादित्य की स्थिति प्रथम शती में गुप्तों से पूर्व मानना नितान्त समुचित है। इसी विक्रम की सभा के रत्न कालिदास थे।
(ख) बौद्ध कवि अश्वघोष का समय निश्चित है। कुषाण नरेश कनिष्क के समकालीन होने से उनका समय ई० सन् प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध है। इनके तथा कालिदास के काव्यों में अत्यधिक साम्य है।
- कथानक की सृष्टि, वर्णन की शैली, अलंकारों का प्रयोग, छन्दों का चुनाव – आदि अनेक विषयों में कालिदास का प्रभाव अश्वघोष पर पड़ा है। अश्वघोष प्रधानतः सर्वास्तिवादी दार्शनिक थे। काव्य की ओर उनकी अभिरूचि का होना तथा उसे धर्म प्रचार का साधन मानना काव्यकला के उत्कर्ष का द्योतक है (सौन्दर्यनन्द 18/63) | और यह उत्कर्ष कालिदास के प्रभाव का ही फल है।
- बुद्ध चरित में अश्वघोष में कालिदास के बहुत से श्लोकों का अनुकरण किया है। रघुवंश के सातवें सर्ग में (श्लोक 5-15 ) कालिदास ने स्वयंवर से लौटने पर अज को देखने के लिए आने वाली उत्सुक स्त्रियोंका बड़ा ही अभिराम वर्णन किया है। अश्वघोष ने बुद्धचरित ( तृतीय सर्ग, 13-24 पद्य) में ठीक ऐसे ही प्रसंग का वर्णन किया है। कुमारसम्भव मे भी ये ही पद्य मिलते हैं।
- यदि कालिदास ने इसे अश्वघोष के अनुकरण पर लिखा होता, तो वे दो बार इसका प्रदर्शन कर अपना ऋण नितान्त अभिव्यक्त नहीं करते, उसे छिपाने का प्रयत्न करते कालिदास की भाव-सुन्दरता अश्वघोष के द्वारा सुरक्षित न रह सकी । तुलना करने से कालिदास का समय अश्वघोष से प्राचीन प्रतीत होता है। अतः कालिदास का समय ईस्वी पूर्व प्रथम शतक में ही मानना युक्तियुक्त है।
(ग) शाकुन्तल में सूचित सामाजिक तथा आर्थिक दशा का अनुशीलन सूचित करता है कि कालिदास बौद्ध धर्म से प्रभावित उस युग के कवि थे जब हिन्दू देवी देवताओं के विषय में श्रद्धाविहीन विचार प्रचलित थे।
- कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् की नान्दी में भगवान् शिव की अष्टमूर्तियों का वर्णन किया है। इस नान्दी में 'प्रात्यक्षभिः' शब्द का प्रयोग कर कवि ने तत्कालिन देवता विषयक अविश्वास को दूर करने का प्रयत्न किया है। जिस शिव की अष्टमूर्तियों का हमें प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है जिनका साक्षात्कार हमें अपनी आँखों से हो रहा है, उन देवता के विषय में अश्रद्धा कैसे टिक सकती है? अविश्वास कैसे रह सकता है? इसी प्रकार षष्ठ अंक में कालिदास ने कर्तव्य-कर्म होने के कारण यज्ञयागादि का विधान ब्राह्मण के लिए आवश्यक बतलाया है।
- बौद्धों ने हिंसापरक होने के कारण यज्ञो की भरपेट निन्दा की, परन्तु शकुन्तला में एक पात्र कहता है कि क्या यज्ञों में पशु मारने वाले क्षेत्रिय का हृदय दयालु नहीं होता ? कुल परम्परागत धर्म का परित्याग क्या कभी श्लाघनीय है? अतएव यज्ञों का अनुष्ठान सर्वदा श्रेयस्कर है; परन्तु उसके हिंसापरक होने पर भी याज्ञिक ब्राह्मणों का हृदय कोमल होता है-
सहजं किल यद् विनिन्दितं न खलु तत् कर्म विवर्जनीयकम् ।
पशुमारण-कर्मदारूण: अनुकम्पामृदुरेव
श्रोत्रियः ॥
- यहाँ कवि ने बौद्ध धर्म के कारण यज्ञों के विषय में होने वाली निन्दा या अश्रद्धा को दूर करने का उद्योग किया है। अतः कालिदास का जन्म उस समय में हुआ था, जब बौद्ध धर्म के प्रति अश्रद्धा बढ़ती जा रही थी तथा ब्राह्मण धर्म का अभ्युदय हो रहा था। यह समय ब्राह्मणवंशी शुंगनरेशो (द्वितीय शतक विक्रम पूर्व) के कुछ ही पीछे होना चाहिये ।
- अत: विक्रम संवत् के प्रथम शतक में कालिदास को मानना सर्वथा न्यायसंगत प्रतीत होता है।
(घ) कालिदास को प्रथम शताब्दी में रखने के लिए अन्य भी प्रमाण उपस्थित किये जा सकते हैं-
(1) कालिदास ने रघुवंश के षष्ठ सर्ग (श्लोक 36 ) में 'अवन्तिनाथ' का वर्णन करते समय 'विक्रमादित्य' विरूद का संकेत किया है। कथासरित्सागर के अनुसार विक्रमादित्य मालवगण के संस्थापक, काव्यकला के प्रेमी, शैव थे। कालिदास के ग्रन्थों से भी उनके शैव होने का संकेत मिलता है। फलतः उनके विक्रमादित्य के सभापण्डितहोने की अधिक सम्भावना है, न कि वैष्णव मतावलम्बी परमभागवत गुप्तनरेशों की सभा में ।
(2) रघुवंश के षष्ठ सर्ग में इन्दुमती के स्वयंवर के प्रसड़ग में पांडय नरेश का वर्णन किया गया है (श्लोक 59-64)। चतुर्थ शती में पाण्डवों का राज्य समाप्त हो गया था, परन्तु प्रथम शती में उनका राज्य विद्यमान था । कालिदास ने पाण्डव नरेश की 'उरगपुर राजधानी बतलाया है, जो 'उरियाउर' का संस्कृत नाम है। पाण्डव नरेशों की यही राजधानी थी।