कालिदास : शिवसन्देश | Kalidas Shiv Sandesh

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 कालिदास : शिवसन्देश  (Kalidas Shiv Sandesh)

कालिदास : शिवसन्देश | Kalidas Shiv Sandesh


 

कालिदास : शिवसन्देश (Kalidas Shiv Sandesh)

  • राष्ट्रमंगल तथा विश्वकल्याण का मन्जुल सामरस्य कालिदास के काव्यों में दृष्टिगत होता है। इस महाकवि की वाणी में जिस प्रकार आदिकवि वाल्मीकि की रसयवी धारा प्रवाहित होती है उसी प्रकार उपनिषदों तथा गीता का अध्यात्म भी मंजुलरूप में अपनी अभिव्यक्ति पा रहा है। भारतीय ऋषियों के द्वारा प्रचारित चिरन्तन तथ्यों को मनोभिराम शब्दों में भारतीय जनता के हृदय में उतारने का काम कालिदास की कविता ने सुचारू रूप से किया । 


  • कविता का प्रणयन मानव-हृदयकी शाश्वत प्रवृत्तियों तथा भावों का आलम्बन करके किया गया है। यही कारण है कि इसके भीतर ऐसी उदात्त भावना विद्यमान है जो भारतीयों को ही नहींप्रत्युत् मानवमात्र को सदा प्रेरणा तथा स्फूर्ति देती रहेगी। 


  • इस भारतीय कवि की वाणी में इतना रस भरा हुआ हैइतना जोश भरा हुआ है कि दो सहस्र वर्षो के दीर्घ काल ने भी उसमें किसी प्रकार का फीकापन नहीं उत्पन्न किया। उसकी मधुरिमा आज भी उसी प्रकार भावुकों के हृदय को रसमय करती है जिस प्रकार उसने अपनी उत्पत्ति के प्रथम क्षण में किया था। वैदिक धर्म तथा संस्कृति का भव्य रूप इन काव्यों में मधुर शब्दों में उपदिष्ट हैं ।


  • आज के युग में कालिदास का सन्देश बड़ा ही भव्य तथा ग्राह्यहै। 

 

  • मानवजीवन में नैराश्यवाद के लिये स्थान नहीं है। जो लोग इसे मायिक बतला कर नि:सार तथा व्यर्थ मानते है उनका कथन किसी प्रकार प्रामाणिक नहीं है। जो जीवन हम बिता रहे है तथा जिससे हम अपना अभ्युदय प्राप्त कर सकते हैं उसे सारहीन क्यों मानें कालिदास का कहना है कि देहधारियों के लिये मरण ही प्रकृति है। जीवन तो विकृति मात्र है। जन्तु श्वास लेता हुआ यदि एक क्षण के लिये भी जीवित है तो यह उसके लिये लाभ है (रघु0 8/87)

 

मरणं प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधै। 

क्षणमप्यवतिष्ठते श्वसन् यदि जन्तुर्ननु लाभवानसौ ॥

 

  • इस जीवन को महान् लाभ मानना चाहिये तथा इसे सफल बनाने के लिए अर्थधर्म तथा काम का सामन्जस्य उपस्थित करना चाहिये। इस त्रिवर्ग में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है (त्रिवर्गसार: प्रतिभाति भामिनि कुमार0 5/38), परन्तु अर्थ और काम अपनी स्वतन्त्रता और सत्ता बनाये रखने के लिए धर्म से विरोध करते है। धर्म को दबाकर अर्थ अपनी प्रबलता चाहता है। और धर्म को ध्वस्त कर काम भी अपना प्रभाव जमाना चाहता है। भगवान् श्रीकृष्ण के शब्द में धर्म को ध्वसत कर काम भी अपना प्रभाव जमाना चाहता है। भगवान् श्रीकृष्ण के शब्द में धर्म से अविरूद्ध काम' भगवान् की ही विभूति है। कालिदास ने अपने काव्यों तथा नाटकों में 'धर्माविरूद्धः कामोऽस्मि लोकेषु भरतवर्षभइस गीतावाक्य की सत्यता अनेक प्रकार से प्रमाणिता की है।

 

  • मदनदहन का रहस्य यही है । मदन चाहता था कि पार्वती के सुन्दर रूप का आश्रय लेकर समाधिनिरत शंकर के हृदय पर चोट करें। प्रकृति में वसन्त का आगमन होता है। लता वृक्ष पर झूल-झूल कर अपना प्रेम जताने लगती है। एक ही कुसुमपात्र में भ्रमरी अपने सहचर के साथ मधु पान करती हुई मत्त हो जाती है। व्याधि के समान मदन संसार को त्रस्त करने लगता है। वह अपनी आकांक्षा बढाता है और शंकर पर आक्रमण कर बैठता है। 


  • जगत् कल्याणआत्यन्तिक मंगल का ही तो नाम 'शंकरहै। विश्व का कल्याण मदन की उपासना में नहीं हैप्रत्युत उसके धर्मविरोधी रूप के दबाने में है। काम अपनी प्रभुता चाहता है। विश्व-कल्याण पर अपना मोहन बाण छोड़ता है। शंकर अपना तृतीय नेत्र खोलते हैं। तृतीय नेत्र ज्ञाननेत्रहैजो प्रत्येक मनुष्य के भ्रूमध्य में विद्यमान है,परन्तु सुप्त होने से हमे उसके अस्तित्व का पता चलता। 


  • शंकर का वह नेत्र जाग्रत है। इसी ज्ञान की ज्वाला में मदन का दहन होता है। धर्म से विरोधवाला काम भस्म की राशि बन जाता है। शंकर को वश में करने के लिये पार्वती तपस्या करती है जो धर्मसिद्धिका प्रधान साधन है। विना अपना शरीर तपाये तथा विना हृदय स्थित दुर्वासना को जलाये धर्म की भावना जाग्रत नहीं होती कालिदास ने काम का जलना दिखाकर यही चिरन्तन तथ्य प्रकट किया। पार्वती ने घोर तपस्या कर अपना अभीष्ट प्राप्त किया। इस प्रकार कालिदास की दृष्टि में काम तथा धर्म के परस्पर संघर्ष में हमें काम को दबा कर उसे धर्मानुकूल बनाना ही पड़ेगा। जगत् का कल्याण इसी साधना में सिद्ध होता है।

 

  • व्यक्ति तथा समाज का गहरा सम्बन्ध है। व्यक्ति की उन्नति वांछनीय वस्तु हैपरन्तु इसकी वास्तविक स्थिति समाज की उन्नति पर अवलम्बित है। व्यक्तियों के समुदाय का ही के नाम 'समाजहै। कालिदास वैयक्तिक उन्नति के पक्षपाती हैं। उनका समाज श्रुतिस्मृति के आधार पर निर्मितसमाज है। वह त्याग के लिये धन इकट्ठा करता है। सत्य के लिये परिमित भाषण करता है। यश के लिये विजय की अभिलाषा रखता हैप्राणियों तथा राष्ट्रों को पददलित करने के लिये नहीं। गृहस्थी में निरत होता है सन्तान उत्पन्न करने के लियेकामवासना की पूर्ति के लिये नहीं ।


  • कालिदास द्वारा चित्रित नरपति भारतीय समाज का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करते हैं। वे शैशव में विद्या का अभ्यास करते हैंयौवन में विषय के अभिलाषी हैवृद्धावस्था में मुनिवृत्ति धारण कर सारे प्रपंच से मुँह मोड़ कर निवृत्ति मार्ग के अनुयायी बनते हैं तथा अन्त में योग द्वारा अपना शरीर छोड़कर परम पद में लीन हो जाते हैं। यह आदर्श भारतीय समाज की अपनी विशेषता है (रघु0 1/7-8)

 

त्यागाय संभतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम् । 

यशसे विजिगीषुणां प्रजायै गृहमेधिनाम ||

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । 

वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम ॥

 

यज्ञ 

  • उपनिषदों में धर्म के तीन स्कन्ध प्रतिपादित हैं- यज्ञअध्ययन और दान। इनके अतिरिक्त 'तपःकी महिमा से भारतीय धार्मिक साहित्य भरा पड़ा है। कालिदास ने इन स्कन्धों का विवेचन स्थान-स्थान पर बड़ी ही मनोरम भाषा में किया है। यज्ञ का महत्व वे स्वीकार करते हैं। पुरोहित यज्ञ के रहस्यों का ज्ञाता होता है। राजा दिलीप यह बात भली भाँति जानते हैं कि वसिष्ठ जी के यथाविधि सम्पादित होम द्वारा जल की वृष्टि होती हैजो अकाल से सुखने वाले शस्य को हरा-भरा बनाती है (रघु0 1/62)–

 

हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु । 

वृष्टिर्भवतिशस्यानामवग्रहविशोषिणाम् ।

 

नटराज तथा देवराज- दोनों का काम परस्पर संयोग से मानवों की रक्षा करना है। नरराज पृथ्वी को दुह कर उससे सुन्दर वस्तुएँ प्राप्त कर यज्ञ का सम्पादन करता है और देवराज इसके बदले में शस्य उत्पन्न होने के लिये आकाशसे दुहकर पुष्कल वृष्टि करता है । इस प्रकार ये दोनों शासक अपनी सम्पत्ति का विनिमय कर उभर लोक का कल्याण करते है (रघु0 1/26)-


 दोहगां स यज्ञाय शस्याय मघवा दिवम् । 

सम्पद्विनिमयोनोभौ दधतुर्भुवनद्वयम् ॥

 

  • यज्ञपूत जल के द्वारा अनेक अलौकिक पदार्थो की सिद्धि हमारे महाकवि को मान्य है। उसे वसिष्ठ जी ने मन्त्रपूत जल से अभिमन्त्रित कर दिया है और उसमें आकाशनदीपहाड़ आदि विकट तथा विषम मार्गो पर चलने की अपूर्व क्षमता है। इस प्रकार कालिदास की दृष्टि में सामाजिक कल्याण के साधनों मे यज्ञ का भी महत्वपूर्ण स्थान है।

 

  • दान-दान की गौरवगाथा गाते हुए हमारे महाकवि कभी श्रान्त नहीं होते । समाज आदान प्रदान की भित्ति पर अवलम्बित है। धनी-मानी व्यक्ति का संचित धन केवल उन्हीं की आवश्यकता अथवा व्यसन पूरा करने के लिये नहीं हैप्रत्युत उसका सदुपयोग उन निर्धनों की उदर- ज्वाला शान्त करने में भी ।

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