भारवि का अर्थ गौरव |किरातार्जुनीयम् महाकाव्य की अन्य विशेषताएँ | Kirat Arjuniya Ki Visheshtaayen

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भारवि का अर्थ गौरव  (किरातार्जुनीयम् महाकाव्य  की  अन्य विशेषताएँ)

भारवि का अर्थ गौरव |किरातार्जुनीयम् महाकाव्य  की  अन्य विशेषताएँ | Kirat Arjuniya Ki Visheshtaayen



किरातार्जुनीयम् महाकाव्य  की  अन्य विशेषताएँ - 


भारवि ने काव्य के माध्यम से नैतिक गुणों का प्रकाशन आवश्यक माना है इसका पालन अपने काव्य में इन्होंने जम कर किया है। इस विषय में उनकी प्रौढ़ इतनी प्रबल है कि विद्वद्वर्ग उनकी इन सुक्तियों को अपनी जिव्हा पर रखकर वाणी को विभूषित करने में गौरव का अनुभव करते है। उदाहरणार्थ प्रथम सर्ग की नीति विषयक सूक्तियाँ है।

 

( 1 ) हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः 

(2) वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः । 

( 3 ) न वंचनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः 

4 ) सुदुर्लाभाः सर्व मनोहरां गिरः । 

( 5 ) स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपम् । 

6 ) हितान्न यः संश्रृणुते सः किं प्रभुः । 

( 7 ) सदाऽनुकूलेषु हि कुर्वते रतिंनृपेश्वमात्येषु च सर्वसम्पदः । 

8 ) गुणानुरोधेन बिना न सत्क्रिया 

( 9 ) अहो बलवद्विरोधिता। 

( 10 ) ब्रजान्ति ते मूढ़धियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः 

11 ) अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुनान जातहार्देन न विद्विषादरः । 

( 12 ) विचित्र रुपाः खलु चित्तवृत्तयः 

( 13 ) पौरपर्यासितवीर्यसम्पदां पराभवोऽप्युत्सव एव मानिनाम् 

( 14 ) व्रजन्ति शत्रूनवधूय निःस्पृहाः शमेन सिद्धिं मुनयो न भुभृतः 


  • इस प्रकार की नैतिक उक्तियों का भण्डार है किरातार्जुनीय। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इसी प्रकार की व्यवहारपरक बातों से ही भारवि की कृति भरी पड़ी है उसमें हृदय को आवर्जित करने वाले काव्य तत्व नहीं हैंअथवा बहुत कम है। भारवि की कविता कोमल भावों को भी अभिव्यक्त करने में पुर्ण सक्षम है। 


  • महाभारत एवं शिवपुराण की स्वल्प नीरस कथाओं को गुच्छे की भाँति अट्ठारह सर्गों में विस्तृत कर उसे आम्र-मंजरी की मधुर एवं आकर्षक बनाना भारवि की काव्यकला का ही वैशिष्ट्य है। इन्द्र अप्सराओं तथा गन्धर्वो को अर्जुन की तपस्या में विघ्न करने के लिए भेजते है। वे मार्ग में ही सुषमा पर मुग्ध हो पुष्पावचय एवं जलविहार में काल यापन करते हैं ( अष्टम सर्ग) ।


  • चन्द्र की चन्द्रिका में रति क्रीड़ा के सुख का अनुभव करते हैं ( 9 सर्ग) तथा प्रभात होने पर अपने कार्य की ओर अग्रसर होते हैं ( 10 सर्ग ) । बाहा दृष्टि से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि भारवि ने यह सब अनावश्यक विस्तार अपने पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए किया है। काम शास्त्र विषयक अपने ज्ञान के प्रकाशन के लिए किया है।

 

  • अतः इतना लम्बा यह प्रसंग अनावश्यक है तथा काव्य धारा को बोझिल बनाने वाला है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो यह प्रासंगिक है और अर्जुन की महत्ता दृढ़ता को प्रकाशित करने के लिए आवश्यक भी है। उपर्युक्त वर्णनों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि महाकवि भारवि का महाकाव्य अपना अलग स्थान रखता है। उनके महाग्रन्थ में काव्यशास्त्रोक्त नियमों का पूर्णतया निर्वाह हुआ है।


  • व्याकरण के नियमों के साथ-साथ काव्यनियमों का ऐसा सुन्दर निर्वाह कम काव्यों में दिखाई देता है। इतना सब होते हुए भी भारवि की कविता में वह माधुरी सरलता सरसता तथा स्वाभाविकता नहीं है जो कालिदास को “ कविकुलगुरू ” बनाती है। लेकिन कालिदास और अश्वघोष की अपेक्षा भारवि का व्यक्तित्व दर्शन सर्वथा स्वतन्त्र प्रतीत होता है। इसका बड़ा भारी कारण यह है कि भारवि ने वीर रस का बड़ा हृदयग्राही चित्रण और अलंकृत काव्य शैली का सफल वर्णन किया है। 


  • अर्थ गौरव भारवि की सबसे बड़ी विशेषता है। भारवि का व्यावहारिक पक्ष सबल हैमनोवैज्ञानिक पक्ष दुर्बल है। यह कवि अलंकृत शैली का कवि हैविचित्र मार्ग का आचार्य है। यदि मल्लिनाथ जैसा व्याख्याता आचार्य न होता तो कदाचित् भारवि के काव्य का रसास्वाद बहुत ही कम लोग कर पाते । वस्तुतः भारवि ने काव्य के क्षेत्र में विचित्र मार्ग नामक एक एक ऐसे वृक्ष का आरोपण किया जो आगे चलकर खूब फूला-फला। इस प्रकार यह कवि इस प्रकार की काव्य विधा का प्रतिष्ठापकप्रर्वतक आचार्य होने के गौरव का यशस्वी भागीदार है।

 

प्रथम सर्ग के आधार पर भारवि का अर्थ गौरव

 

  • संस्कृत के आलोचना जगत में भारवि अपने अर्थ गौरव के लिए सुविख्यात हैं। स्वल्प शब्दों में अधिक अर्थ को भर देना ही अर्थगौरव की महत्ता हैं। भावाभिव्यक्ति के लिए समुचित अल्प शब्दों का प्रयोग भारवि की निजी विशेषता है । 
  • भारवि का अर्थ गौरव उनकी गम्भीर अभिव्यजंना शैली का फल है और इस शैली में शब्द तथा अर्थ दोनों का समुचित सामन्जस्य है भारवि गम्भीर व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी कविता में भावों की उदात्तता है। 


  • मानव हृदय के भीतर प्रवेश कर उसके अन्तराल में पनपने वाले भावों के सूक्ष्म निरीक्षण तथा उनके प्रकटीकरण की महनीय शक्ति का अभाव उसकी काव्यकला में भले ही विद्यमान हो परन्तु लोकसम्बद्ध तथ्यों के विवरण देने में वे पूर्ण समर्थ हैं। किरातार्जुनीयम् में अर्थगौरव की मनोहरता श्लेषालंकार के अभ्युदय के कारण यत्रतत्र देखने को मिलती है। श्लेषानुप्राणित उपमा के लिए अर्थगौरव से परिपूर्ण निम्न श्लोक अत्यन्त प्रसिद्ध है - 


कथा प्रसडगेन जनैरुदाहृताइनुस्मृताखण्डलसुनूविक्रमः। 

तवाभिधानाद् व्यथतो नताननः सुदुःसहान्मन्त्रपदादिवोरगः ।। ( 1/23 ) 


इस श्लोक में कतिपय श्लिष्ट शब्द अर्थ गौरव की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। 


1 ) तवाभिधावात् आपका नाम लेने सेत ( तार्क्ष्य- गरुड़ ) तथा व ( वासुकि ) के नाम को धारण करने वाला । नामैकदेशग्रहणेन नामग्रहणम्” अर्थात् नाम के एक देश के ग्रहण से पूरे नाम का बोध हो जाता है इस न्याय से त 'अक्षर तार्क्ष्य (गरुड़ ) तथा " व " अक्षर वासुकि का वाचक माना गया है । 


2 ) आखण्डलासुनूविक्रमः इन्द्र पुत्र अर्जुन के पराक्रम कर स्मरण करने वाला। इन्द्र के सुन् (अनुज-विष्णु ) के वि (पक्षी- गरुड़ ) के क्रम- पादविक्षेप का स्मरण करने का भाव यह है कि ) सभंगश्लेष की महिमा से यहाँ कम शब्दों के द्वारा अधिकाधिक अर्थों का बोध कराया जा रहा है । और सही है इस श्लोक के अर्थ का सौन्दर्य भारवेऽर्थ गौरवम् की उक्ति प्रथम सर्ग में पूर्णतया चरितार्थ होती है। प्रथम सर्ग के द्वितीय श्लोक में हमें अर्थ गौरव दिखाई देता है जब वनेचर

 

अपने स्वामी के समक्ष यथार्थ बात प्रस्तुत करते हुए व्यथित नहीं होता है। इस प्रसंग में कवि ने जो उक्ति प्रयुक्त की है वह देखने में बहुत संक्षिप्त है किन्तु अर्थ गाम्भीर्य से ओतप्रोत है।

 

“ न हिं प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिण ।

 

सेवकों को ही कर्त्तव्यपरायण होना चाहिए नहीं है। राजाओं का भी कर्त्तव्य है कि वे अपने सेवकों की हितकारी बातें सुनेंभले ही प्रिय हों या अप्रिय । क्योंकि हितकारी एवं प्रिय लगने वाली बात बहुत ही कम सुनने को मिलती है। वह वस्तुतः दुर्लभ है कवि की सूक्ति सारगर्भित हैं -

 

• अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा 

हिंत मनोहारि च दुर्लभं वचः । 

 


प्रथम सर्ग के आठवें श्लोक में वनेचर कहता है दुर्योधन राज्य सिंहासनस्थ होकर भी वन में रहने वाले व भ्रष्ट राज्य वाले आपसे पराजय की आशंका करता रहता है। इस प्रसंग में कवि ने जो सूक्ति की हैवह अर्थ गौरव का सुन्दर निदर्शन है। 


वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः । 

 

  • अर्थात् ऐश्वर्य को बढ़ाने वाला साधुजनों का विरोध भी दुष्टों की संगति से कहीं अच्छा होता है । 


  • 23वें श्लोक में वनेचर कहता है कि दुर्योधन समुद्र पर्यन्त विस्तीर्ण समृद्वशाली निष्कण्टक राज्य पर शासन करता हुआ भी भविष्य आने वाली विपत्तियों की चिन्ता करता ही रहता है

 

  • सच है कि बलवान से विरोध करना अन्त में दुःखद ही होता है।


 'अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता। "

 

द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती है कि जो व्यक्ति सफल क्रोधवाला होता हैउसके सभी व्यक्ति स्वतः वशवर्ती हो जाते हैंकिन्तु जो व्यक्ति क्रोधरहित होता हैउसका आत्मीयजन आदर नहीं करते और शत्रु उससे भयभीत नहीं होते अर्थात् क्रोध शून्य व्यक्ति का कहीं भी सम्मान नहीं होता

 

“ अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना । 

न जातहार्देन न विद्विषादरः ॥

 


  • क्रोध यद्यपि अरिषड्वर्ग में होने के कारण निन्दनीय हैकिन्तु राजाओं को समयानुकूल उसे अपनाना ही चाहिएयह भाव व्यक्त है। इसी प्रकार द्रौपदी शान्ति से सफलता का मार्ग मुनियों का हैराजाओं का नहीं। ” इस बात का उल्लेख करती हुई युधिष्ठिर से कहती है आप शान्ति का मार्ग का त्याग कर शत्रुओं के वध हेतु अपने उसी पूर्व तेज धारण करने के लिए प्रसन्न हो जाएँक्योंकि इच्छा रहित मुनिजन कामक्रोध आदि छः शत्रुओं पर कान्ति से विजय प्राप्त करने में सफल होते हैंराजा लोग नहीं ।

 

'व्रजन्ति शत्रूनवधूय निस्पृहीः शमेन सिद्धिं मुनयो न भूभृतः । 66

 

इस प्रकार सम्पूर्ण वर्ग में छोटी-छोटी सूक्तियों में गम्भीर और विपुल भाव कवि ने भर दिया है। एक-एक शब्द साभिप्राय है। उपर्युक्त प्रसंगो से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि महाकवि भारवि अर्थ गाम्भीर्य के परमाचार्य हैंकवि शिरोमणि है। वर्णानात्मक और शैली तो मानो कवि भारवि की सहचरी है। इस सम्पूर्ण सर्ग शब्द वैचित्रयअर्थगौरवराजनीति वर्णन कौशल आदि के उदाहरण उपलब्ध हैं । 

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