किरातार्जुनीयम् महाकाव्य की भाषा- शैली
किरातार्जुनीयम् महाकाव्य की भाषा- शैली
- महाकवि भारवि संस्कृत साहित्य के देदीप्यमान रत्नों में से एक हैं। उनका - महाकाव्य वृहत्त्रयी का प्रथम रत्न है। भारवि की भाषा उदात्त तथा हृदय को शीघ्र प्रभावित करने वाली है। वह कोमल भावों को प्रकट करने में उतनी ही समर्थ है, जितनी उग्र भावों के प्रकाशन में । भाषा तथा शैली के विषय में भारवि ने अपने आदर्श का संकेत इस प्रख्यात पद्य में किया है -- (किरात 14/3 )
विविक्तवर्णाभरणा सुखश्रुति प्रसादयन्ती हृदयान्यपि द्विषाम् ।
प्रवर्तते नाकृतपुण्यकर्मणां प्रसन्नगम्भीरपदां सरस्वती ॥
- पुण्यशाली व्यक्तियों की प्रसन्न तथा गम्भीर पदों से युक्त होती है। उसके सुन्दर अक्षर पृथक् रुप रखते हैं तथा कानों को प्रसन्न करते हैं वह शत्रुओं के भी हृदयों को प्रसन्न करती है। प्रसन्न का लक्ष्य शाब्दी सुष्ठुता से है तथा गम्भीर का तात्पर्य अर्थ की गम्भीरता से है। भारवि की शैली का सही मर्म है । वह प्रसन्न होते हुए भी गंभीर है। मित्र आलोचकों को प्रसन्न करने के साथ ही दुष्ट आलोचकों को भी आवर्जित करती है। फलतः प्रसन्नगम्भीर पदा सरस्वती भारवि की भाषा तथा शैली का द्योतक सहनीय मंत्र है।
- भारवि की भाषा में प्रौढ़ता ओज प्रवाह शक्तिमत्ता है। उसका शब्द संचय भावानुकूल है। भावानुसार कहीं प्रसाद हैं, कहीं माधुर्य और कहीं ओज । भाषा में शैथिल्य का नितान्त अभाव है । मनोभाव, उदात्त, कल्पनाओं और गम्भीर विचारों का एक रत्नाकर ही है। अर्थ गाम्भीर्य और अर्थ गौरव की जितनी प्रशंसा की जाए, वह थोड़ी ही है।
- पद-पद पर अर्थ गौरव उसके वैदुष्य और गम्भीर चिन्तन का परिचायक है। भारवि ने प्रायः सभी रसों का अत्यन्त कुशलता के साथ प्रयोग किया है। श्रृंगार और वीर रस उसके अतिप्रिय रस हैं। इनके भेद और उपभेदों तक का लालित्यपुर्ण भाषा में प्रयोग किया है। उसका अलंकारों का प्रयोग दर्शनीय है।
- 15 वें सर्ग में चित्रालंकारों की बहुरंगी छटा इन्द्रधनुष को भी निष्प्रभ कर देती है। कहीं एक ही अक्षर वाले श्लोक हैं तो कहीं दो अक्षर वाले, कहीं पादादियमक हैं तो कहीं पादान्तादियमक कहीं, गोमूत्रिका-बन्ध है तो कहीं सर्वतोभद्र, कहीं एक ही श्लोक सीधा और उल्टा एक ही होता है तो कहीं पूर्वार्ध और उत्तरार्द्ध एक ही हैं। कहीं दो पद समान हैं तो कहीं चारों पद एक ही हैं। कहीं आद्यन्त यमक है तो कहीं श्रृंखला यमक। कहीं निरोष्ठयवर्ण श्लोक हैं तो कहीं अर्धभ्रमक, कहीं द्वयर्थक और त्र्यर्थक श्लोक हैं तो कहीं चार अर्थ वाले भी श्लोक हैं। वस्तुतः भारवि संस्कृत काव्यों में रीति शैली के जन्मदाता हैं।
- उनके ग्रन्थ के आरम्भ में “ श्री ” शब्द तथा सर्गान्त श्लोंकों में “ लक्ष्मी शब्द का प्रयोग उसकी प्रमुख विशेषता है। माघ ने शिशुपालवध में इसी शैली का अनुकरण किया है। भारवि का प्रकृति चित्रण अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति का चित्रण अत्यन्त मनोरम और प्रशंसनीय है। उन्होनें विविध छन्दों का प्रयोग करके अपनी छन्दोयोजना संबंधी दक्षता प्रदर्शित की है। इसलिए मल्लिनाथ ने इनके काव्य सौन्दर्य को 66 नारिकेलफलसंमितम ” माना है। जो बाहर कठोर, किन्तु अन्दर अत्यन्त मधुर है। वेद उपनिषद् दर्शन पुराण, नीति, राजनीति, ज्योतिष, भूगोल, कृषि और कामशास्त्र आदि से संबद्ध वर्णन उसके अगाध पाण्डित्य के सूचक हैं। भारवेऽर्थगौरवम्, भारवेरिव भारवेः, प्रकृतिमधुराभारविगिरिः, आदि सूक्तियाँ वस्तुतः भारवि की गरिमा को प्रकट करती हैं।
भारवि ने अर्थगौरव कल्पना और सूक्ष्म विचारों कर मधुर सम्मिश्रण किया है। अपना मन्तव्य निम्नलिखित श्लोक में प्रस्तुत किया है-
स्फुटता न पदैरपाकृता
न च न स्वीकृतमर्थगौरवम् ।
रचिता पृथगर्थता गिरां
न च सामर्थ्यमपोहितं क्वचित् ॥ (2/26)
- पदों में स्पष्टता, अर्थगौरव युक्तता, अनुरुक्तदोष और साकांक्षता गुण का होना अनिवार्य है । भाषा के वैभव का अत्यन्त सुचारु रुप में वर्णन करते हुए कवि का कथन है कि प्रसाद, माधुर्य और अर्थ गौरव से वाग्देवी पुण्यात्माओं को ही प्राप्त होती है। वाग्मिता की प्रशंसा में कवि "युक्त का कथन है कि “ अपने मनोगत विचारों को सुन्दर भाषा मे अभिव्यक्त करने वाले व्यक्ति ही सभ्यतम होते हैं, उनमें भी विशेष दक्ष व्यक्ति ही गंभीर भावों को सरल रूप में अभिव्यक्त करने में समर्थ होते हैं। भारवि की उक्तियाँ स्वाभाविकता, व्यंग तथा पाण्डित्य से भरी पड़ी है। द्रौपदी की उक्ति में युधिष्ठिर को तीखे व्यंग्य सुनाने की क्षमता है तो भीम की युक्ति वीरता के घमण्ड से तेज और तर्रार युधिष्ठिर की कायरता पर संकेत करती द्रौपदी कहती है कि ( युधिष्ठिर के सिवाय ) ऐसा राजा कौन होगा जो अपनी सुन्दर पत्नी के समान गुणानुरक्त ( सन्धि आदि गुणों से युक्त ) कुलीन राज्यलक्ष्मी को स्वयं अनुकूल साधन से युक्त तथा कुलाभिमानी होते हुए भी दूसरो के हाथों छिनती हुई देखे ।
यथा -
गुणानुरक्तामनुरक्तसाधनः कुलभिमानी कुलजां नराधिपः ।
परस्त्वदन्यः क इवापहारयेन्मनोरमामत्मधूकमिव श्रियम् ॥ ( 1 /31 )
- अब तक के विवेचन और उद्धृत पदों से यह सिद्ध हो जाता है कि कालिदास जैसा प्रसाद गुण भारवि में नही मिलता । भारवि की शैली माघ की भाँति विकट समासान्त पदावली का आश्रय नहीं लेती, तथापि कालिदास जैसी ललित वैदर्भी भी नहीं। भारवि का अर्थ कालिदास के अ की तरह अपने आप सूखी लकड़ी की तरह प्रदीप्त नहीं हो उठता । कालिदास की कविता में द्राक्षापाक है, अंगूर के दाने की तरह मुँह में रखते ही रस की पिचकारी फूट पड़ती है; जबकि - भारवि के काव्य में नारिकेल पाक है, जहाँ नारियल को तोड़ने की सख्त मेहनत के बाद उसका रस हाथ आता है कभी-कभी तो उसे तोड़ते समय इधर-उधर जमीन पर बह भी जाता है और उसमें से बहुत थोड़ा बचा खुचा सहृदय की रसना का आस्वाद बनता है।
- भारवि कालिदास की अपेक्षा पाण्डित्यप्रदर्शन के प्रति अधिक अनुरक्त हैं। वे अपने व्याकरण ज्ञान का स्थान-स्थान पर प्रदर्शन करते हैं। उन्हें कर्मवाच्य तथा भाववाच्य के प्रयोग बड़े पसन्द हैं भारवि में ही सबसे पहले काकु वक्रोक्ति का और विध्यर्थ में निषेधद्वय प्रयोग अधिक पाया जाता है। इसके साथ ही अतीत की घटना का वर्णन करने में भारवि खास तौर पर परोक्षभूते लिट् का प्रयोग करते हैं । अन्त में हम डॉ. डे के साथ यही कहेंगे- भारवि की कला प्रायः अत्यधिक अलंकृत नहीं है, किन्तु आकृति सौष्ठव की नियमितता व्यक्त करती है । शैली की दुष्प्राप्य कान्ति भारवि में सर्वथा नहीं हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं होता; किन्तु भारवि उसकी व्यंजना अधिक नहीं कराते। भारवि का अर्थगौरव जिसके लिए विद्वानों ने उसकी अत्यधिक प्रशंसा की है, उसकी गम्भीर अभिव्यंजना शैली का फल है, किन्तु यह अर्थगौरव एक साथ भारवि की शक्ति तथा भावपक्ष की दुर्बलता दोनों को व्यक्त करता है। भारवि की अभिव्यंजना शैली का परिपाक अपनी उदात्त स्निग्धता के कारण सुन्दर लगता है। उसमें शब्द तथा अर्थ के सुडौलपन की स्वस्थता है, किन्तु महान् कविता की उस शक्ति की कमी है, जो भावों की स्फूर्ति तथा हृदय को उठाने की उच्चतम क्षमता रखती हैं।
रस परिपाक -
- लक्षण ग्रन्थकारों ने शृंगार और वीर रस को ही प्रधान रूप से महाकाव्यो में रखने का निर्देश दिया है, “ एक एव भवेदंगी श्रृंगारों वीर एव च । ” इसी आधार पर महाकवि ने अपने महाकाव्य में वीर अंगीरूप में अभिव्यक्त किया है। वीर रस प्रधान होने पर भी उसके महाकाव्य में अन्य रसों का यथास्थान अंगरूप में चित्रण हुआ है। इसमें भी श्रृंगार रस ही मुख्यतः देखा जाता है । भारवि के टीकाकार मल्लिनाथ ने भी किरातार्जुनीयम् में प्रधान रस वीर को ही स्वीकार किया है।
'श्रृंगारदि रसोअंगमत्र विजयी वीरः प्रधानो रसः । ”
भारवि के भाव और रस के अपूर्य तादात्मय को लक्ष्य कर श्री शारदातनय की उक्ति तादात्मयं भावरसयों: भारविः स्पष्टमुक्तवान् ” भी दर्शनीय है। इसलिए काव्यरस मर्मज्ञ श्रीकृष्ण कवि ने लिखा है कि भारवि के काव्य में अर्थगौरव तो है ही, पर साथ ही इसकी रसपेशलता भी अपूर्व है, सम्पूर्ण काव्य से ओत-प्रोत है। अतएव यह काव्य उत्तरकालीन कवियों के लिए उपजीव्य बन सका है-
प्रदेशवृत्तापि महान्तमर्थ प्रदर्शयन्ती रसमादधानां
सा भारवेः सत्यथदीपिकेव रम्याकृतिः कैरिव नोपजीव्या ।
- यद्यपि अर्थ गौरव और रस योजना इन दोनों का एक साथ प्रयोग कठिन होता है। जहाँ कवि का ध्यान अर्थ वैशिष्टय पर ही रहता है, वहाँ रसाभिव्यक्ति दब जाती है, जहाँ रसाभिव्यक्ति प्रधान लक्ष्य बन जाता है, वहाँ अर्थगौरव नहीं रह पाता परन्तु भारवि में यह अपूर्व क्षमता है कि उन्होंने दोनों का ही कुशलतापूर्वक निर्वाह किया है।
- किरातार्जुनीयम् में वीर रस का प्राधान्य प्रथम सर्ग में ही आरम्भ हो जाता है। जहाँ भीम अपने शान्तिप्रिय ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास करते है। वे कहते हैं कि आपको शत्रुओं की भारी शक्ति से अपनी पराजय की आशंका नहीं करनी चाहिए। आपके अनुज इन्द्र के समान तेजस्वी हैं, कौरवों में ऐसा कोई वीर नहीं है जो उन्हें पराजित कर सके इस प्रकार इस पद्य में वीर रस की अभिव्यक्ति तो है ही, पर व्यंजना के द्वारा यहाँ अर्थगौरव भी स्पष्ट है कि जब अनुज ही इतने शक्तिशाली हैं तो युधिष्ठिर की शक्ति और पराक्रम की बात ही क्या ? इसी प्रकार अन्यत्र भी वीर रस और अर्थ साथ- साथ देखे जा सकते हैं।
- प्रथम सर्ग में द्रौपदी की उक्तियों के माध्यम से वीर रस अभिव्यक्त होता है। वह कहती है कि सोत्साह व्यक्ति के पास लक्ष्मी स्वयं आती है। वीर पुरुष के वश में लोग स्वयं हो जाते हैं। परन्तु जो उत्साही नहीं होता, उसका न तो स्वजन ही आदर करते हैं और न शत्रु ही । वह सर्वत्र निराहत को ही शोभा देता है इत्यादि । भारवि ने वीर और श्रृंगार रसों के वर्णन में अतिशय सिद्धहस्तता दिखाई है सर्ग 8 और 9 में संभोग श्रृंगार का सही वर्णन है। सर्ग 13 से 17 तक युद्ध वर्णन में वीर रस का परिपाक है। जलक्रीड़ा के वर्णन में श्रृंगार रस का चित्रण हुआ है। पति ने पत्नी का हाथ पकड़ा और प्रेम विभोर पत्नी के वस्त्र शिथिल हो गए और आर्द्र मेखला ने उन्हें रोक कर लज्जा संवरण किया-
विहस्य पाणौं विधृते धृताम्भासि
प्रियेण वध्वा मदनार्द्रचेतसः ।
सखीव काञ्ची पयसा धनीकृता ।
बभार वीतोच्चयबन्धमंशुकम् ।। ( 8/51)
- अन्त में भारवि के श्रृंगारिक वर्णनों से स्पष्ट होता है कि भारवि में श्रृंगार रस की वह उदात्तता एवं उत्तमता नहीं हैं जो श्रृंगार रस के एकमात्र कवि कालिदास में देखी जाती है। भारवि का श्रृंगार कहीं-कहीं अश्लील एवं अमर्यादित भी हो गया है और वह विलासवृत्ति एवं कामुकता को उभारने वाला है। फिर भी भारवि के काव्य में रसों का पूर्ण परिपाक हुआ है, इसमें कोई संशय नहीं हैं।