किरातार्जुनीयम् महाकाव्य द्रोपदी का चरित्र | Kirat Arjuniyam Dropadi

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किरातार्जुनीयम् महाकाव्य द्रोपदी  का चरित्र  (Kirat Arjuniyam  Dropadi )


किरातार्जुनीयम् महाकाव्य द्रोपदी  का चरित्र  | Kirat Arjuniyam  Dropadi


किरातार्जुनीयम् महाकाव्य द्रोपदी का चरित्र

  • द्रौपदी इस महाकाव्य की नायिका हैअतः द्रौपदी के चरित्रांकन में कवि ने विशेष सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। यद्यपि द्रौपदी एक वीर क्षत्राणी है तथापि कौरवकृत अपमान से मर्माहत असीम धैर्य एवं सहनशीलता की प्रतिमूर्ति है। यही कारण है कि उसके हृदय में दुर्योधन के विरुद्ध प्रतिशोध की भीषण ज्वाला विद्यमान है। जब वह युधिष्ठिर के मुख से किराता द्वारा कहे गये दुर्योधन की उन्नति के समाचारों को सुनती है तो अत्यन्त व्यग्र हो उठती है और अपने आवेश को रोक नहीं पाती। अतः वह अपने लिए निरस्तनारीसमयादुराधयः कहकर भूमिका बनाकर बोलती है। वह पुरुषों के अधिकार तथा क्षत्रिय के स्वाभिमान को जानती हैअतः उनको चुनौती नहीं देतीअपितु पूर्ण विनम्रता के साथ अपनी भावनाओं को सटीक एवं ओजस्वी वाणी में अभिव्यक्त करती है-

 

भवादृशेषुप्रमदाजनोदितं 66 

भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम् । 

तथापि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां, 

निरस्तनारी समया दुराधयः । ” ( 1 / 28 )

 

द्रौपदी कूटनीति निपुण हैअतः उसकी स्पष्ट मान्यता है कि कपटी के साथ कपट का ही आचरण किया जाना चाहिए। अन्यथा कपटी लोग अवसर पाकर सज्जन व्यक्तियों को समाप्त कर देते हैं।

 

“ व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं 

भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः । ” ( 1 /30 )

 

दौपदी स्वाभिमानी स्त्री हैवह युधिष्ठिर से स्पष्ट शब्दों में कहती है कि आपके अलावा कोई भी ऐसा राजा नहीं होगाजो कुलवधू के तुल्य राज्यलक्ष्मी का शत्रुओं द्वारा अपहरण करवाये तथा फिर भी शान्त बैठा रहे। 

 

गुणानुरक्तामनुरक्तसाधनः कुलभिमानी कुलजां नराधिपः । 

परैस्त्वादन्यः क इवापहारयेन्मनोरमामात्मवधूमिव श्रियम् ।। ” ( 1/31 ) 


  • द्रौपदी युधिष्ठिर पर सीधा दोषारोपण करती है कि तुमने स्वयं अपने हाथों राज्य का परित्याग कर दिया हैन कि वह शत्रु ने जीता है। द्रौपदी स्वयं की पीड़ा की चर्चा न करके भीमअर्जुन एवं युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डवों की दुर्योधन के कपटपूर्ण व्यवहार से हुई दुर्दशा का चित्र खींचती हुईउन्हें उचित प्रतिकार के लिए प्रेरित करती है । वह योद्वा भाईयों की दुर्गति का कारण दुर्योधन की कायरता को मानती है। द्रौपदी राजनीति धर्मशास्त्रआचारशास्त्र आदि में अत्यन्त प्रवीण हैअतः युधिष्ठिर से एक कूटनीतिज्ञ के समान स्पष्ट शब्दों में कहती है कि राजनीति में सन्धि भंग करना कोई दोष नहीं हैं। विजयेच्छु राजा अवसर पाकर किसी भी बहाने से में की गई सन्धि आदि को तोड़ देते हैं।

 

'अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा 

विदधति सोपधि सन्धिदूषणानि ।” ( 1 / 45 )

 

वह भाग्यजनित विपत्ति को दुःख नहीं मानतीकिन्तु शत्रुकृत अपमान को सहन करना कायरता मानती है। वह महाराज युधिष्ठिर की स्थिति को मनस्विगर्हित बतलाती है। वह युधिष्ठिर से आवेश के वशीभूत होकर यहाँ तक कह देती है कि यदि आप अब भी शान्ति नीति की रट लगाए रहते हैंक्षत्रियोचित पराक्रम प्रदर्शित नहीं कर सकते हैं तो यह राजचिन्ह रुपी  धनुष को छोड़कर जटाधारी तपस्वी बन जाइये और शान्ति के साथ हवन कीजिए-

 

विहाय लक्ष्मीपति लक्ष्मकार्मुकं, 

जटाधरः सन् जुहूधीह पावकम् ॥ ” ( 1 / 44 )


  • द्रौपदी युधिष्ठिर में युद्ध के प्रति उत्साह नहीं देखकर व्यथित होती हैलेकिन युधिष्ठिर की धर्मपत्नी है जीवन संगिनी हैअतः अन्त में उन्हें शुभकामना प्रदर्शित करती हुई कहती है कि प्रातःकालीन सूर्य के समान उन्हें भी राज्य लक्ष्मी पुनः प्राप्त होवे । इस प्रकार द्रौपदी ओजस्वी व्यक्तित्व की धनी तथा प्रेरणा और पराक्रम की जीवन्त मूर्ति है। द्रौपदी का व्यक्तित्व और चरित्र ही इस सर्ग का प्राण है। निस्सन्देह द्रौपदी के व्यक्तित्व के चित्रण में भारवि ने श्लाघनीय कौशल का परिचय दिया है।
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