किरातार्जुनीयम् का महाकाव्यत्व | किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के लक्षण | Kirat Arujniyam Ke Tatv

Admin
0

 किरातार्जुनीयम् का महाकाव्यत्व

किरातार्जुनीयम् का महाकाव्यत्व | किरातार्जुनीयम्  महाकाव्य के  लक्षण | Kirat Arujniyam Ke Tatv


 

किरातार्जुनीयम्  महाकाव्य के  लक्षण

आचार्य दण्डी ने महाकाव्य का लक्षण इस प्रकार बतलाया है-

सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणम् । 

आषीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देश वापि तन्मुखम् ॥ 

इतिहासकथोद्भूतमितरद् वा सदाश्रयम् चतुर्वर्गफलायत्त चतुरोदात्तनायकम् ।।

नगरार्णवषैलर्तु चन्दा॒॒र्कोदयवर्णनैः । इत्यादि ।

 

भारवि का काव्य सौष्ठव

 

  • महाकवि भारवि अलंकृत काव्य शैली के जन्मदाता हैं। इन्होंने संस्कृत साहित्य में किरातार्जुनीयम् महाकाव्य ने अपने प्रशस्त गुणों के कारण साहित्य में अपना विशिष्ट पद प्राप्त किया है। संस्कृत के महाकाव्यों की 'बृहत्त्रयी' (किरातशिशुपाल वध और नैषध) में इसका में प्रमुख स्थान है। समस्त संस्कृत साहित्य में किरातार्जुनीय जैसा ओज प्रधान उग्रकाव्य नहीं मिलता है । किरातार्जुनीय में कुल 18 सर्ग हैं।


  • वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से इसका प्रारम्भ होता हैं। इसका कथानक महाभारत की एक प्रसिद्ध घटना के आधार पर निबद्ध हुआ है और यह की प्राप्ति में सहायक है । किरात का नायक अर्जुन धीरोदात्त है। बीच के कई सर्गों में भारवि ने महाकाव्य के लक्षण के अनुसार ऋतुपर्वतसूर्यास्तजलक्रीड़ा आदि का वर्णन करके काव्य अतिशय विस्तार कर दिया है। पूरा चौथा सर्ग शरद ऋतुपंचम हिमालय पर्वतषष्ठ युवति प्रस्थानअष्टम सुरांगना विहार तथा नवम सुरसुन्दरी सम्भोग के वर्णन में रचित है। किरात का प्रधान रस वीर है । इसकी अभिव्यक्ति में कवि को अभूतपूर्व सफलता मिली है। इसमें श्रृंगार तथा अन्य रस गौण रुप में वर्णित हैं। भाषा सर्वत्र अलंकृत हैइसी प्रकार भावों की अभिव्यंजना भी है। छन्द गेय और सुन्दर है। सर्गों में विविध घटनाओं का संयोजन है। 


  • किरातार्जुनीयम का प्रारम्भ श्री शब्द से हुआ है। इसी प्रकार प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक में लक्ष्मी शब्द है का प्रयोग किया गया है। अतः यह महाकाव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। किरातार्जुनीयम् पद का विग्रह इस प्रकार किया जा सकता है - किरातश्च अर्जुनश्च किरातार्जुनौ तौ अधिकृत्य कृतं काव्यम् किरातार्जुनीयम् अधिकृत्य कृते ग्रन्थे सूत्र से यहाँ 'प्रत्यय हुआ है तथा ‘ ’ से को आयनेय) अत्यादि सूत्र से ईय हो गया है। अपनी रचना से एक सर्वथा नवीन एवं काव्य शैली को जन्म दियाजिसे अलंकृत काव्य शैली कहा जाता है। इनके बाद होने वाले माघ आदि कवियों ने इनकी काव्य शैली का अनुकरण किया है। 


किरातार्जुनीय महाकाव्य के तत्व 

किरातार्जुनीय महाकाव्य पर काव्यशास्त्रीय दृष्टि से निम्नलिखित तत्त्वों के आधार पर विचार किया जा सकता है-

 

( 1 ) किरातार्जुनीयम्  महाकाव्य का नायक 

  • इस महाकाव्य का नायक निःसन्देह अर्जुन ही हैक्योंकि इस ग्रन्थ का नाम किरातार्जुनीयम् है । जिसका विग्रह इस प्रकार है- किराताश्च अर्जुनश्च किरातार्जुनौ तौ अधिकृत्य कृतम् काव्यम् किरातार्जुनीयम् । इस ग्रन्थ के नामकरण से ज्ञात होता है के किराता और अर्जुन इस महाकाव्य के प्रमुख पात्र हैंलेकिन काव्य प्रयोजन पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि दिव्यास्त्र प्राप्ति रुपी फल अर्जुन को ही प्राप्त होता है। अतः अन्तिम फल प्राप्ति अर्जुन को होने से अर्जुन ही इसका मुख्य नायक है। किरातार्जुनीयम् ग्रन्थ के टीकाकार श्री चित्रभानु इस महाकाव्य का नायक युधिष्ठिर को मानते हैं और अपना मत पुष्ट करने हेतु तर्क देते हैं कि युधिष्ठिर ही प्रथम सर्ग में उपस्थित रहते हैं। मध्य मे भी कवि ने अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर की ही प्रतिष्ठा कराई है और अन्त में भी अर्जुन दिव्यास्त्र की प्राप्ति कर उन्हीं के चरणों में नतमस्तक होते हैं । विजय भी युधिष्ठिर को ही प्राप्त होती है। अर्जुन की दिव्यास्त्र प्राप्ति युधिष्ठिर की फलप्राप्ति रुप विजय का साधन है। अतः काव्य का नायक युधिष्ठिर को ही मानना चाहिए लेकिन इसका मत समीचीन प्रतीत नहीं होता। महाकाव्यकार भारवि का मन्तव्य भी यही सूचित करता है कि काव्य का नायक अर्जुन ही हैक्योंकि टीकाकार मल्लिनाथ जी ने स्पष्ट कहा है कि इस काव्य का नायक मध्यम पाण्डव अर्थात् अर्जुन ही है। उसी के उत्कर्ष का इसमें वर्णन है और दिव्यास्त्र प्राप्तिरुप फल भी अर्जुन को प्राप्त होता है। निष्कर्षतः अर्जुन ही इस महाकाव्य का नायक है।

 

किरातार्जुनीयम् का प्रथम सर्ग

 

नेता मध्यमपाण्डवो भगवतो नारायणस्यांशज 

स्तस्योत्कर्षकृतेऽनुवर्ण्यचरितो दिव्यः किरातः पुनः 

श्रृंगारादिरसोऽयमत्र विजयी वीरप्रधानो रसः  

शैलाद्यानि च वर्णितानि बहुशो दिव्यास्त्रलाभः फलम् ।।

 

( 2 ) चरित्र चित्रण - 

  • पात्रों के चित्रण में भी भारवि उच्चकोटि के कवि हैं। इसका चरित्र चित्रण अतिशय प्रभापूर्ण है। अपमान की धधकती ज्वाला में जलती हुई बिखेरे केशों वाली द्रौपदीसागर में उठे हुए तूफान की तरह प्रचण्ड पराक्रमी भीमशान्ति एवं सौम्यता की युधिष्ठिर ,नख से शिख तक वीरता एवं स्फूर्ति से लबालब भरे हुए वीरवर अर्जुन - ये सभी प्रमुख पात्र बड़ी सजीवता के साथ कवि के द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं। व्यासगुप्तचरदूत आदि गौण पात्र भी वास्तविक प्रतीत होते हैं । इस पुस्तक का संबंध मात्र प्रथम सर्ग से है । अतः सम्पूर्ण पात्रों के सम्पूर्ण जीवन चरित पर जो कि 18 सर्गों में विस्तृत है प्रकाश न डालकर मात्र प्रथम सर्ग में जो पात्र रुप आये हैं उनका चरित्र चित्रण इस प्रकार है।

 

किरातार्जुनीयम्  प्रथम सर्ग के पात्र

( 1 )  किरातार्जुनीयम् में  युधिष्ठिर का चरित्र 

  • प्रथम सर्ग में जो आये हैंउनमें युधिष्ठिर प्रमुख हैं । वैसे समग्र काव्य की दृष्टि से एवं टीकाकार मल्लिनाथ की दृष्टि में काव्य के नायक युधिष्ठिर नहीं अपितु मध्यम पाण्डव अर्जुन ही हैकिन्तु हम प्रथम सर्ग के परिप्रेक्ष्य मे युधिष्ठिर को नायक मानते है। युधिष्ठिर के चरित्र में अनेक विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं। वे स्वभाव से धीर एवं प्रकृति से गम्भीर हैंवे किसी भी निर्णय विचार-विमर्श के पश्चात् गंभीरतापूर्वक लेते हैंवे कुशल राजनीतिज्ञ हैं। राजनीति के तत्वों कर पूर्ण ज्ञान रखते हैं। जैसा कि हम प्रथम सर्ग में देखते हैं वे वनवास की अवधि में वेशधारी गुप्तचर को दुर्योधन का भेद लेने हेतु भेजते हैंशत्रु से युद्ध करने के पूर्व वे  उसकी सम्पूर्ण के गतिविधियों को जान लेना चाहते हैं ( श्रियः कुरुणामधिपस्य पालनीं० ) 1/1 


  • उनके गुप्तचर योग्य कर्मठ एवं विवेकशील हैं तथा स्वामी के हित को सर्वोपरि मानने वाले हैंलेकिन युधिष्ठिर भी शिष्टाचार में निपुण हैं। वे स्वामिभक्त भृत्यों का सम्मान करते हैं । इसी कारण सम्पूर्ण वृतान्त निवेदन करने के पश्चात् वे वनेचर को (इतीरायित्वा गिरमात्तसात्क्रिये० ) 1/26 पुरस्कृत करते हैं।

 

  • युधिष्ठिर अत्यन्त प्रभावशाली हैं यद्यपि वे वन में निवास कर रहे हैंसैन्य शक्ति व धन से रहित हैंतथापि दुर्योधन जो राज्य सिंहासनारूढ़ हैंधन व सैन्यशक्ति से सम्पन्न होते हुए भी सदैव उनसे आशंकित रहता है । युधिष्ठिर का नाम सुनते ही दुर्योधन व्यथित होकर नतानन हो जाता है। तवाभिधानात् व्यथते नतानन: ” ( 1/24 ) युधिष्ठिर का व्यक्तित्व त्यागी एवं तपस्वी के रूप में व्यक्त हुआ है। वे शान्ति नीति के समर्थकधर्म मर्यादा के पालकन्याय एवं उत्तम मार्ग पर चलने वाले एवं सहनशील हैं। वे प्रतिशोध की भावना से रहित हैं। यही कारण है कि वे द्रौपदी के युद्ध उत्साहवर्द्धक एवं उपालम्भपूर्ण वचनों को सहानुभूति एवं स्नेह के साथ सुनते हैं और युक्तियुक्त शब्दों में अपनी नीति समझा देते हैं और समय की प्रतीक्षा करने हेतु परामर्श देते हैं। युधिष्ठिर भाइयों में भी सम्मान्य हैंइसी कारण उनके अतुल पराक्रमी भाई भी कष्ट सहते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं।


  • युधिष्ठिर धर्मराज हैं यही कारण है कि द्रौपदी बराबर उन्हें उद्बुद्ध करना चाहती हैउनकी शान्ति को कायरता का प्रतीक मानती हैं वह उन्हें सन्धि भंग करने हेतु प्रेरित करती हैलेकिन युधिष्ठिर अपनी मर्यादा का पालन करते हैं और न्यायोचित मार्ग का उल्लंघन नहीं करते हैं । इस प्रकार प्रस्तुत रचना में युधिष्ठिर के चरित्र की अन्य विशेषताओं की अपेक्षा राजनीतिक परिपक्वता को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। वह भीम और द्रौपदी की बात पूर्ण तन्मयता से सुनता हैउनके उचित सुझावों की प्रशंसा भी करता हैकिन्तु उन्हें धैर्यपूर्वक विचार करके निर्णय लेता है । इस प्रकार युधिष्ठिर के व्यक्तित्व में हमें राजनीतिक प्रौढ़तासफलता के प्रति अपेक्षित प्रयत्नशीलताआवेश रहितसंतुलित दृष्टि और नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था आदि गुण दृष्टिगोचर होते हैं।


किरातार्जुनीयम् में द्रौपदी का चरित्र   

  • द्रौपदी इस महाकाव्य की नायिका हैअतः द्रौपदी के चरित्रांकन में कवि ने विशेष सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। यद्यपि द्रौपदी एक वीर क्षत्राणी है तथापि कौरवकृत अपमान से मर्माहत असीम धैर्य एवं सहनशीलता की प्रतिमूर्ति है। यही कारण है कि उसके हृदय में दुर्योधन के विरुद्ध प्रतिशोध की भीषण ज्वाला विद्यमान है। जब वह युधिष्ठिर के मुख से किराता द्वारा कहे गये दुर्योधन की उन्नति के समाचारों को सुनती है तो अत्यन्त व्यग्र हो उठती है और अपने आवेश को रोक नहीं पाती। अतः वह अपने लिए निरस्तनारीसमयादुराधयः कहकर भूमिका बनाकर बोलती है। वह पुरुषों के अधिकार तथा क्षत्रिय के स्वाभिमान को जानती हैअतः उनको चुनौती नहीं देतीअपितु पूर्ण विनम्रता के साथ अपनी भावनाओं को सटीक एवं ओजस्वी वाणी में अभिव्यक्त करती है-

 

भवादृशेषुप्रमदाजनोदितं 66 

भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम् । 

तथापि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां, 

निरस्तनारी समया दुराधयः । ” ( 1 / 28 )

 

द्रौपदी कूटनीति निपुण हैअतः उसकी स्पष्ट मान्यता है कि कपटी के साथ कपट का ही आचरण किया जाना चाहिए। अन्यथा कपटी लोग अवसर पाकर सज्जन व्यक्तियों को समाप्त कर देते हैं।

 

“ व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं 

भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः । ” ( 1 /30 )

 

दौपदी स्वाभिमानी स्त्री हैवह युधिष्ठिर से स्पष्ट शब्दों में कहती है कि आपके अलावा कोई भी ऐसा राजा नहीं होगाजो कुलवधू के तुल्य राज्यलक्ष्मी का शत्रुओं द्वारा अपहरण करवाये तथा फिर भी शान्त बैठा रहे। 

 

गुणानुरक्तामनुरक्तसाधनः कुलभिमानी कुलजां नराधिपः । 

परैस्त्वादन्यः क इवापहारयेन्मनोरमामात्मवधूमिव श्रियम् ।। ” ( 1/31 ) 


  • द्रौपदी युधिष्ठिर पर सीधा दोषारोपण करती है कि तुमने स्वयं अपने हाथों राज्य का परित्याग कर दिया हैन कि वह शत्रु ने जीता है। द्रौपदी स्वयं की पीड़ा की चर्चा न करके भीमअर्जुन एवं युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डवों की दुर्योधन के कपटपूर्ण व्यवहार से हुई दुर्दशा का चित्र खींचती हुईउन्हें उचित प्रतिकार के लिए प्रेरित करती है । वह योद्वा भाईयों की दुर्गति का कारण दुर्योधन की कायरता को मानती है। द्रौपदी राजनीति धर्मशास्त्रआचारशास्त्र आदि में अत्यन्त प्रवीण हैअतः युधिष्ठिर से एक कूटनीतिज्ञ के समान स्पष्ट शब्दों में कहती है कि राजनीति में सन्धि भंग करना कोई दोष नहीं हैं। विजयेच्छु राजा अवसर पाकर किसी भी बहाने से में की गई सन्धि आदि को तोड़ देते हैं।

 

'अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा 

विदधति सोपधि सन्धिदूषणानि ।” ( 1 / 45 )

 

वह भाग्यजनित विपत्ति को दुःख नहीं मानतीकिन्तु शत्रुकृत अपमान को सहन करना कायरता मानती है। वह महाराज युधिष्ठिर की स्थिति को मनस्विगर्हित बतलाती है। वह युधिष्ठिर से आवेश के वशीभूत होकर यहाँ तक कह देती है कि यदि आप अब भी शान्ति नीति की रट लगाए रहते हैंक्षत्रियोचित पराक्रम प्रदर्शित नहीं कर सकते हैं तो यह राजचिन्ह रुपी  धनुष को छोड़कर जटाधारी तपस्वी बन जाइये और शान्ति के साथ हवन कीजिए-

 

विहाय लक्ष्मीपति लक्ष्मकार्मुकं, 

जटाधरः सन् जुहूधीह पावकम् ॥ ” ( 1 / 44 )


  • द्रौपदी युधिष्ठिर में युद्ध के प्रति उत्साह नहीं देखकर व्यथित होती हैलेकिन युधिष्ठिर की धर्मपत्नी है जीवन संगिनी हैअतः अन्त में उन्हें शुभकामना प्रदर्शित करती हुई कहती है कि प्रातःकालीन सूर्य के समान उन्हें भी राज्य लक्ष्मी पुनः प्राप्त होवे । इस प्रकार द्रौपदी ओजस्वी व्यक्तित्व की धनी तथा प्रेरणा और पराक्रम की जीवन्त मूर्ति है। द्रौपदी का व्यक्तित्व और चरित्र ही इस सर्ग का प्राण है। निस्सन्देह द्रौपदी के व्यक्तित्व के चित्रण में भारवि ने श्लाघनीय कौशल का परिचय दिया है।

 

किरातार्जुनीयम्  वनेचर - गुप्तचर संस्था 

  • भारवि गुप्तचर संस्था को अति महत्त्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने गुप्तचरों को शासकों का नेत्र घोषित किया है वे गुप्तचरों में कर्त्तव्यनिष्ठाकार्यनिपुणतानिर्भयता एवं स्पष्टवादिता आदि गुण आवश्यक मानते हैं। उनके मतानुसार शासक अपने अमात्यों पर पूर्ण विश्वास करें वे शासकों के हित को महत्त्व देते हुए सही परामर्श देंतभी शासनतन्त्र सुचारु रुप से चल सकता है प्रथम सर्ग भी वनेचर रुपी गुप्तचर की उक्तियों से प्रारम्भ होता है । 


  • वह दुर्योधन की गतिविधियों का पता लगाने के लिए युधिष्ठिर द्वारा भेजा गया था वनेचर में गुप्तचर सम्बन्धी समस्त गुण विद्यमान थे। अतएव उसने ब्रह्मचारी के वेश में हस्तिनापुर जाकर दुर्योधन के सभी विचारोंउसकी योजनाओंकार्यों और उद्देश्यों को जान लिया था और युधिष्ठिर को बतला दिया था । वनेचर स्वामिभक्त थाउसे यह ज्ञात था कि यथार्थ कटु होता है तथा दुर्योधन संबंधी योजनाएँ एवं विचार युधिष्ठिर को बताने पर उन्हें कुछ क्षणों के लिए बुरा भी लगेगालेकिन राजा एवं राज्य दोनों के कल्याण के लिए वह युधिष्ठिर को सत्य से अवगत कराता हैक्योंकि वह जानता था कि-

 

हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ) ( 1/4 )

 

  • वह युधिष्ठिर का सच्चा हितैषी था इसी कारण उसमे स्वामी को अंधकार में रखना उचित नहीं समझाक्योंकि वह जानता था कि यदि वास्तविकता को बतलादिया जायगा तो महाराज युधिष्ठिर उसका यथोचित प्रतीकार करने में समर्थ हो सकते है।


न विव्यथे तस्य मनो न हि प्रियं 

प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषाहितैषिणः । ( 1/2 )

 

  • वनेचर अति विनम्र भी है इसी कारण वह आपको अबोधविक्लव मानता है। उसके द्वारा जो दुर्बोध नीति मार्ग जाना गया वह युधिष्ठिर का ही प्रभाव मानता है अर्थात् अपने कार्य की सफलता का श्रेय भी वह युधिष्ठिर को ही देता है। 


  • वनेचर नीतिविद् बुद्धिमान् एवं अपने कार्य में निष्णात है इसी कारण उसने अपने कपट वेश में दुर्योधन की समस्त भावी योजनाओं का पता लगा लिया वह युधिष्ठिर के समक्ष वृतान्त ही निवेदन नहीं करताअपितु सच्चे सेवक की भाँति परामर्श भी देता और दुर्योधन का प्रतिकारकरने हेतु प्रेरित भी करता है। स्पष्ट वक्ता होने पर भी शिष्टता का उल्लंघन नहीं किया । सम्पूर्ण वृतान्त निवेदन करते समय उसकी भाषासौष्ठव एवं अर्थगरिमा से थीउसका प्रत्येक सप्रमाण था । इस प्रकार वनेचर स्वामिभक्तस्पष्ट वक्तासत्यवक्तानीतिविद् व कर्त्तव्यपरायण सेवक है एवं चाटुकारिता से रहित है। प्रथम सर्ग में भारवि ने वनेचर का चरित्र एवं व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली ढंग से किया है।

Tags

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top