महाकवि जयदेव का जीवन परिचय |जयदेव के व्यक्तित्व एवं कृतियों का विस्तृत परिचय| Maha Kavi Jaidev Biography in Hindi

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 महाकवि जयदेव का परिचय , जयदेव के व्यक्तित्व एवं कृतियों का विस्तृत परिचय

महाकवि जयदेव का जीवन परिचय |जयदेव के व्यक्तित्व एवं कृतियों का विस्तृत परिचय| Maha Kavi Jaidev Biography in Hindi


प्रस्तावना

 

  • इस आर्टिकल में जयदेव के भक्तिमय जीवन के विषय में विस्तार से बताया गया है राधा कृष्ण की प्रेम की निर्मलता बड़े सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त की गयी है। साथ ही जयदेव की काव्यचातुरी का निदर्शन भी इस आर्टिकल में प्राप्त है। महाकवि जयदेव राजा लक्ष्मणसेन की सभा में रहते थे। जिनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'गीतगोविन्द' है, महाकवि जयदेव भक्तिरस में ही लिप्त रहते थे । इनके ग्रन्थ गीतगोविन्द में 12 सर्ग थे । प्रत्येक सर्ग में गीतों का ही वर्णन है। गीतों को परस्पर मिलाने से कहीं कहीं पद्य का भी वर्णन दृष्टिगत होता है। 


जयदेव के व्यक्तित्व एवं कृतियों का विस्तृत परिचय

 

महाकवि जयदेव का जीवन परिचय (Maha Kavi Jaidev Biography in Hindi)

 

  • राजा लक्ष्मणसेन की सभा में आश्रित ये बंगाल के सेनवंश के अन्तिम राजकवि थे, जिनकी लेखनी ने गीतगोविंद जैसे अमर काव्य की सृष्टिकी है। महाकवि जयदेव उत्कल (बंगाल) के केन्दुबिल्व नामक स्थान के निवासी थे।
  • महाकवि जयदेव के पिता का नाम भोजदेव तथा माता का नाम राधा देवी था। 
  • राजा लक्ष्मणसेन का एक शिलालेख 11160 का मिलता है अत: जयदेव का समय 11000 के लगभग माना जाता है। एकनिष्ठ होकर इस महाकवि के भक्तों ने इसकी लोकातीत का संरक्षण चरितों में बड़ी तत्परता के साथ किया है। इसका जीवन आनन्दकन्द व्रजचन्द्र की दिव्य भक्ति में पगे हुए भक्त का जीवन था ।

  • इसका जीवन एक ही रस से बाहर भीतर ओत-प्रोत था और वह था भक्तिरस ।

गीतगोविंद

  • इसके 'गीतगोविंद' में 12 सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग गीतों से ही समन्वित् है। सर्गों को परस्पर मिलाने के लिए कथा के सूत्र को बतलाने के लिए कतिपय वर्णनात्मक पद्य भी हैं। 'गीतगोविंद ' भगवती संस्कृत-भारतीके सौन्दर्य तथा की पराकाष्ठा है।


  • महाकवि कालिदास की कविता में भी इस रसपेशलता मधुर भाव का हमें दर्शन नहीं मिलता । इस काव्य में कोमलकान्त पदावली का सरस प्रभाव तथा मधुरता का मधुमय सन्निवेश है। आनन्दकन्द व्रजचन्द्र तथा भगवती राधिका की ललित लीलाओं का जितना सुन्दर वर्णन यहाँ मिलता है, वह अन्यत्र कहाँ देखने को मिलता है ? शब्दमाधुर्य के लिए ललित-लवंगलतापरिशीलन-कोमल-मलय-समीरे (गीत01/3) “ वाली अष्टपदी का पाठ पर्याप्त होगा।

 

  • भावों का सौष्ठव भी उतना ही चित्ताकर्षक है। विरहिणी राधिका के वर्णन मे कवि की यह उक्ति कितनी अनूठी है। राधा के दोनों नेत्रों से आँसुओं की धारा झर रही है। ऐसा जान पड़ता है कि राहु के दाँतों के गड़ जाने से चन्द्रमा से अमृत की धारा बह रही हो :--

 

वहति च वलित-विलोचनजलभरमाननकमलमुदारम् । 

विधुमिव विकटविधुन्तुददन्तदलन-गलितामृतधारम् ।।

 

  • उपमा की कल्पना तथा उत्प्रेक्षा की उड़ान में यह काव्य अनूठा तो है ही, परन्तु इसकी सबसे बड़ी विशिष्टता है प्रेम की उदात्त भावना। राधाकृष्ण के प्रेम की निर्मलता तथा अध्यात्मिकता के सुन्दर शब्दों में यहाँ अभिव्यक्त की गई है। श्रृंगार - शिरोमणि कृष्ण का मिलन जीव-ब्रह्म का मिलन है। साधनामार्ग के अनेक तथ्यों का रहस्य यहाँ सुलझाया गया है। 


अर्थ माधुर्य के लिए इस पद्य का अवलोकन पर्याप्त होगा --

 

दृशौ तव मदालसे वदनमिन्दुसंदीपकं 

गतिर्जमनोरमा विजितरम्भमूरूद्वयम् । 

रतिस्तव कलावती रूचिर- चित्रलेखे ध्रुवा वहो विबुधयौवतं वहसि तन्वि ! पृथ्वीगता ।।

 

राधा के विविध अंगों में विविध अप्सराओं का मिलान है, अत: उसका शरीर अप्सरा मय है। 


इस प्रकार राधा का रसमय वर्णन है -- 

  • तुम्हारे नेत्र मद से अलस-आलसी है ( पक्षान्तर में मदालसा · नामक अप्सरा है)
  • तुम्हारा मुख चन्द्रमा को दीप्त करने वाला है ( पक्षान्तर · इन्दुमती 'अप्सरा)
  • गति जनों के मन को रमण करने वाली है ( पक्षान्तर ---  मनोरमा 'अप्सरा )
  • तुम्हारे दोनों उरूओं ने रम्भा ( केला तथा 'रम्भा 'नामक विख्यात अप्सरा) को जीत लिया है तुम्हारी रति कला से युक्त है ( 'कलावती अप्सरा ) । 
  • तुम्हारी दोनों भौंहे सुन्दर है ( पक्षान्तर -- · चित्रलेखा ' अप्सरा ) हे तन्वी, पृथ्वी पर रहकर भी तुम देव-युवतियों के समूह 6 को अपने शरीर में धारण करती हो। इस कमनीय पद्य में श्लेष के माहात्म्य से देवांगनाओं के नाम निर्दिष्ट किये गये है ।
  • मुद्रालंकार के द्वारा पृथ्वी छन्द का भी रूचिर संकेत सहृदयों के आनन्द का विषय है।
  • गीतगोविन्द का व्यापक प्रभाव उत्तर भारत में ही नहीं, प्रत्युत महाराष्ट्र, गुजरात तथा कन्नड़ प्रान्त के साहित्य पर भी पड़ा। 


  • महाप्रभु चैतन्यदेव गीतगोविन्द की माधुरी के परम उपासक थे। गीतगोविंदउनके शिष्य प्रतापरूद्रदेव ( २६ शतक 11990 ) ने उत्कल के अनेक मन्दिरों में इसके नियमित गायन के लिए भूमिदान की व्यवस्था की थी। 


  • मराठी साहित्य में महानुभानी ग्रन्थकार भास्कर भट्ट बोरीकर (१२७५ ई. १३२० ई. ) के काव्य ग्रन्थ · शिशु पालवध ' में गीत-गोविन्द से अनेक भाव-सादृश्य उपलब्ध होते है, जिसे ग्रन्थकार ने जयदेव से निश्चित रूप से ग्रहण किया है। गुजरात के राजा सारंगदेव के एक शिलालेख (संवत् ई.) का मंगलश्लोक गीतगोविंद के प्रथम सर्ग का अंतिम पद्य है.  


  • अप्रमेय शास्त्री ( ई. ) ने इस ग्रन्थ पर श्रृंगार - प्रकाशिका नामक व्याख्या कन्नड़ भाषा में लिखी है। मैसूर के राजा चिवकदेवराय ( ई. ) ने गीत-गोविन्द के आदर्श पर ' गीतगोपाल' नामक सुन्दर काव्य लिखा है, जो कन्नड़ देश मे गीत-गोविन्द की लोकप्रियता का स्पष्ट प्रमाण है। इसके सप्तांकी नाटक प्रसन्नराघव ' में रामकथा का वर्णन बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है।


  • इसमें भवभूति के नाटकों के समान हृदय के भावों का चित्रण नहीं है और राजशेखर के बालरामायण की तरह वर्णन का विस्तार ही है, परन्तु इतनी मंजुल पदावली है कि पढ़ते ही पूरा चित्र आँखों के सामने खिंच जाता है। प्रसादमयी कविता के कारण इसका प्रसन्नराघव नाम यथार्थ है। 


  • प्रसन्नराघव की प्रस्तावना से केवल इतना ही पता चलता है कि जयदेव का गोत्र कौण्डिन्य था और वे सुमित्रा तथा महादेव के पुत्र थे। वे कवि तथा तार्किक दोनों एक साथ थे और इस बात पर उनका विशेष अमग है कि कोमलकाव्य के निर्माण में लीलावती भारती कर्कश तर्क से युक्त वकवचन के उद्गार में भी पूर्णतया समर्थ हो सकती है और इसीलिए कविता और तार्किकत्वं का एक स्थान मे निवास विस्मयकारी नहीं मानना चाहिए। अनुमान से कवि के देश तथा काल का परिचय लगता है जयदेव से ये भिन्न नहीं हैं, परन्तु गीतगोविन्दकार जयदेव से ये भिन्न तथा कालक्रम से अर्वाचीन हैं। 


  • गीतगोविन्द के कर्ता जयदेव भोजदेव तथा राधा (रामा) देवी के पुत्र , लक्ष्मण सेन १२ वीं सदी ) के सभा -कवि थे तथा उड़ीसा के केन्दुबिल्व के निवासी थे। विश्वनाथ ( २४ वीं शती) ने प्रसन्नराघव का एक पद्य 'कदली कदली 'ध्वनि के उदाहरण में उद्धृत किया है, जिससे इसका समय उनसे पूर्ववर्ती त्रयोदश शतक में मानना उचित होगा। प्रसन्नराघव ' में सात अंक हैं।


  • कवि को बालकाण्ड की कथा से इतना अधिक प्रेम है कि उन्होंने प्रथम चार अंको का विस्तार किया है। प्रथम अंक में मंजीरक और नुपूरक नामक बन्दीजनों के द्वारा सीता स्वयंवर की सूचना मिलती है, जिसमें रावण और बाणासुर अपने-अपने प्रचुर प्रशंसा करते है और आपस में संघर्षकर बैठते हैं। 


  • द्वितीय अंक में हम जनक की वाटिका में उपस्थित जनों को पाते हैं, जहाँ राम और लक्ष्मण फूल तोड़ने के लिए आते हैं और सीता को भुजबल की देखने का प्रथम अवसर प्राप्त होता है। 


  • तृतीय अंक में विश्वामित्र राम-लक्ष्मण के साथ स्वयंवर - मण्डप मे पधारते है और जनक के साथ उनका परिचय कराते है, जो राम के सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो उठते है तथा धनुष चढ़ाने की प्रतिज्ञा से वे चिन्तित हो जाते हैं। इसी बीच विश्वामित्र के आदेश से राम धनुष को चढ़ाने के स्थान पर तोड़ देते हैं। विवाह आनन्द के साथ सम्पन्न होता है । 


  • चतुर्थ अंक में परशुराम का प्रसंग उपस्थित किया गया है जिसमें राम के साथ उसका वाक् में कलह होता है । प्रथमतः ताण्डचायन ने रावण को ही धनुष का तोड़ने वाला कहा था, परन्तु पीछे सच्ची बात का पता चलता है। परशुराम जी के पूछने पर राम ने सरल उत्तर दिया कि यह पुराना धनुष छूते ही स्वयं टूट गया । लक्ष्मण के साथ भी नोक-झोंक की बातें होती है। .


  • पंचम अंक मे गंगा, यमुना और सरयू के संवाद रूप मे राम का वनवास तथा दशरथ की मृत्यु आदि घटनायें अंकित है । हंस नामक पात्र सीताहरण तक की कथा सुनाता है।


  • षष्ठ अंक में वियोगी राम का बड़ा ही मार्मिक चित्रण है। हनुमान लंका जाते है जहाँ जानकी शोक से जल मरने के लिए अंगार की याचना करती है। उसी समय हनुमान जी रामनाम से अंकित अँगुठी गिराते हैं। 


  • सप्तम अंक में मन्त्री माल्यवान् का परिचारक ' करालक' आरम्भ में विभीषण आदि की बातें कहता है। विद्याधर तथा विद्याधरी युद्ध का वर्णन करते रावण मारा जाता है। चन्द्रमा के उदय होने पर सुग्रीव तथा विभीषण बड़ी सुन्दर कल्पनायें सुनाते है । अंत में ! पुष्पक विमान पर चढ़कर राम अयोध्या लौट आते हैं।'


  • प्रसन्नराघव ' की कथा के वर्णन से स्पष्ट है कि इस नाटक में नाटकीय तत्त्व की अपेक्षा कवित्व की ही सत्ता विशेष है। कवि में कोमल कविकला की पूर्ण अभिव्यक्ति करने की क्षमता है और वह उसे ललित अवसरों की खोज में रहता है। द्वितीय अंक का वाटिका-वृत्तान्त कवि की निजी कल्पना है बहुत ही सुन्दर कल्पना है। षष्ठ अंक में राम का विरही ही जनक है, जब जंगल की प्रत्येक वस्तु से सीता का विलखते हुए घूमते हैं। प्रभात तथा चन्द्रोदय का वर्णन भी प्रतिभा संपन्न है। इस प्रकार कविता की दृष्टि से यह बहुत ही सुन्दर, गुण से युक्त तथा लालित्य से मण्डित हैं। परन्तु नाटकीय दृष्टि से इसका मूल्यांकन विशेष नहीं किया जा सकता। प्रसिद्ध घटनाओं का यहाँ केवल नाटकीयरूप ही दिया गया है। उसमें व्यापार की प्रसृति तथा प्रगति खोजने पर भी नहीं मिलती।

 

जयदेव की रचना गीति काव्य 

  • गीतिकाव्य का सामान्य वैशिष्ट्य संस्कृत - गीतिकाव्यों में भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है गीति की आत्मा भावातिरेक है। कवि अपनी रागात्मक अनुभूति तथा कल्पना से वर्ण्य विषय तथा वस्तु को भावात्मक बना देता है । 
  • गीतियों का निर्माण उस बिन्दु पर होता है, जब कवि का हृदय सुख-दुःख के तीव्र अनुभव से आप्लावित हो जाता है और वह अपनी रागात्मिका अनुभूति को अपनी हार्दिक भावना के कारण बाह्य अभिव्यक्ति के रूप में परिणत करता है। स्व गम्य अनुभूति 'पर' के रूप में परिणत करने के लिए कवि जिन मधुर भावापन्न रससान्द्र उक्तियों का माध्यम पकड़ता है, वही होती है गीतियाँ। इसके लिए कतिपय उपकरण आवश्यक होते है, जो इसके साधक तत्त्व होते है। 
  • भावमयता इनमें मुख्य है। यों तो संस्कृत के आलंकारिकों की दृष्टि में काव्यमात्र के लिए रसात्मकता अपेक्षित गुण  है , परन्तु गीतिकाव्य के लिए तो यह अनिवार्य है। 


 FAQ 

1. महाकवि जयदेव किस राजा के महाकवि थे। 

2. गीतगोविन्द का लेखक कौन है। 

3. महाकवि जयदेव का निवास स्थान कहाँ था

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