महाभारत के टीकाकार Mahabharat Ke Teeka Kaar
महाभारत के टीकाकार Mahabharat Ke Teeka Kaar
महाभारत के टीकाकारों की एक दीर्घ परम्परा है जिसके अन्तर्गत बड़े विद्वानों तथा अध्यात्मवेत्ता की गणना है।
डॉ० सुखठणकर के अनुसार महाभारत के टीकाकारों के नाम निम्नलिखित हैं:-
- अनन्तभट्ट, अर्जुन मिश्र, आनन्द, चतुर्भुज मिश्र, जगदीश चक्रवर्ती, देवबोध नीलकण्ठ, महानन्द पूर्ण, यज्ञनारायण, रत्नगर्भ, रामकिंकर, रामकृष्ण,
- रामानुज, लक्ष्मण, वरद, वादिराज, विद्यासागर, विमलबोध, शंकराचार्य श्रीनिवास, सर्वज्ञनारायण, सृष्टिधर (22) ।
इन बाइस टीकाकारों के अतिरिक्त अन्य टीकाकार भी हैं-
- गदानन्द ('भारत-ज्ञान-दीपक नामक टीका के कर्ता, जिनकी टीका का हस्तलेख वर्गीय साहित्य परिषद् में उपलब्ध है), जगद्धर,जनार्दनमुनि और विद्यानिधिभट्ट (जिन चारों का निर्देश आनन्द - पूर्ण ने अपनी भारत-टीका में किया है), वैशम्पायन तथा शान्डिल्य माधव (30) - ( जिनमें प्रथम का निर्देश विमलबोध ने तथा अन्तिम दो का अर्जुन मिश्र ने अपनी टीकाओं में किया है), किसी रामकृष्ण की विरोधार्थभंजिनी व्याख्या तथा अज्ञातनामा लेखक का 'विषमपद-विवरण' विराटपर्व के ऊपर प्रकाशित हैं। आठ टीकाओं के 'लक्षाभरण' की कुछ टिप्पणियों विराट तथा उद्योग प्रकाशित हैं। आठ टीकाओं के साथ विराट पर्व को 1915 ई0 में तथा पाँच टीकाओं के साथ उद्योग पर्व को 1920 में गुजराती प्रिंटिंग प्रेस ने प्रकाशित कर महाभारत के अनुशीलन कार्य में विशेष योगदान दिया है। 'निगूढ़पदबोधिनी' तथा 'भारतटिप्पणी' नामक अज्ञातनामा लेखकों की व्याख्या के अतिरिक्त उत्कल के कवीन्द्र (लगभग 1600 ई0) की 'भारत व्याख्या' मिलती है।
- वादिराज की व्याख्या का नाम 'लक्षश्लोकालंकार' भी है। श्रीधराचार्य ने मोक्षधर्म के ऊपर अपनी व्याख्या लिखी है। इस प्रकार महाभारत के 36 टीकाकारों का पता पूर्णरूप से चलता है। इन टीकाकारों में से अनेक के तो नाम ही यत्र-तत्र निर्दिष्ट हैं तथा कतिपय टीकाकारों की टीका एक पर्व पर अथवा अनेक पर्व पर मिलती है। ऐसे श्लाध्य टीकाकार भी हैं जिनकी टीका भारत के 18 पर्वो पर उपलब्ध होती है .
महाभारत के टीकाकारों का कालक्रम से संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:
(1) देवबोध या देवस्वामी-
- महाभारत के सर्वप्राचीन उपलब्ध टीकाकार है, जिनका उल्लेख पिछले टीकाकारों ने बड़े आदर तथा सम्मान के साथ किया है। इनकी टीका आदि, सभा' 'भीष्मपर्व' तथा उद्योग पर्व के ऊपर प्रकाशित भी हो चुकी है। टीका की पुष्पिका में ये परमहंस परिव्राजकाचार्य कहे गये हैं। फलतः ये अद्वैतवादी सन्यासी थे। इनके गुरू का नाम सत्यबोध मिलता है। यह विस्तृत नहीं है; कठिन शब्दों का अर्थ देकर यह विषम स्थलों का तात्पर्य भी देती है। यह टीका अत्यन्त प्रामाणिक मानी जाती है। इसका प्रभाव पिछले टीकाकारों पर प्रचुर मात्रा में है। और मतभेद होने पर भी टीकाकारों ने इसका उल्लेख बड़े आदर तथा सम्मान के साथ किया है। अर्जुनमिश्र के द्वारा यह श्लाघ्य स्तुति टीकाकारों के हार्दिक भाव को प्रकट करती है
वेदव्यासमुखाम्भोजगलितं वाड़मयामृतम्।
संभोजयन्तं भुवनं देवबोधं भजामहे ।।
विमलबोध ने इनके मत का उल्लेख अपनी टीका में किया है। फलत: इनका समय 1150 ईस्वी से पूर्व होना चाहिए।
(2) वैशम्पायन-
मोक्षधर्म, अर्थात् शान्तिपर्व, के ऊपर लिखी इनकी व्याख्या उपलब्ध है। विमलबोध ने अपनी 'विषम-श्लोकी' नामक महाभारत व्याख्या में इनके नाम का उल्लेख किया है-
वैशम्पायन-टीकादिदेवस्वामिमतानि च |
वीक्ष्य व्याख्या विरचिता दुर्घटार्थप्रकाशिनी ॥
अत: इनका भी आविर्भावकाल 1150 ईस्वी से पूर्व होना चाहिए । देवबोध तथा विमलबोध के बीच की व्याख्याश्रृंखला वैशम्पायन के द्वारा निश्चित रूप से निर्मित की गई है।
(3) विमलबोध -
- इनकी व्याख्या अठारहों पर्वो के ऊपर उपलब्ध होती है। फलत: इनका महत्व प्रौढ़ टीकाकारों में समधिक वैशिष्ट्यपूर्ण है। इन्होने अपनी टीका में धर्मनिबन्धकार के रूप में धारेश्वर (भोज) का, उनके प्रख्यात ग्रन्थ 'सरस्वती काण्ठा- भरण' का तथा उनके अज्ञातपूर्व धर्मशास्त्रीय ग्रन्थ 'व्यवहार-मन्जरी' का सप्रमाणउल्लेख किया है। भोजराज का समय 1010 ई0 से लेकर 1055 तक साधारणतया माना जाता है । 1062ई0 के पीछे इनका समय कथमपि नहीं है। इस उल्लेख के कारण विमलबोध का समय धारेश्वर भोज तथा आनन्दपूर्ण के बीच में है ।
- इनकी टीका का नाम- 'विषमश्लोकी' या 'दुर्घटार्थ- प्रकाशिनी या ‘दुर्बोधपदभंजिनी’ है और यह विराट तथा उद्योगपर्व के ऊपर प्रकाशित हुई है (गुजराती प्रिंटिंग प्रेस) ।
(4) नारायण सर्वज्ञ-
- यह टीकाकार कहीं सर्वज्ञ नारायण या केवल नारायण नाम से भी निर्दिष्ट किया गया है। मनुस्मृति के टीकाकारों में भी 'सर्वज्ञ नारायण' अन्यतम है, जिसका समय काणे के अनुसार 1130-1300 ई0 है। मनु की टीका का नाम 'मन्वर्थवृत्ति - निबन्ध' है, जो मनु की प्रख्यात टीका मानी जाती है। ये दोनों सर्वज्ञ नारायण अभिन्न वयक्ति माने जाते हैं। इनकी टीका के विस्तार का ठीक-ठीक पता नहीं चलता कि वह कितने पर्वो के ऊपर विशेष पड़ा। विराट तथा उद्योग पर्व की टीका प्रकाशित है। इस टीका का प्रभाव टीकाकारों के ऊपर विशेष पड़ा। उद्योगपर्व की टीका के परिशिष्ट के रूप में अर्जुन मिश्र ने निम्न कूट श्लोक का व्याख्यान सर्वज्ञ नारायण के मतानुसार किया है।
विषं भुङ्क्ष्व सहामात्यैर्विनाशं प्रान्नुहि ध्रुवम् ।
विना केन विना नाभ्यां स्फीतं कृष्णाजिनं वरम् ॥
अत: अर्जुन मिश्र के ऊपर इनके प्रकृष्ट प्रभाव का संकेत इससे स्पष्ट है। इनकी टीका का नाम 'भारतार्थ - प्रकाश है ।
(5) चतुर्भुज मिश्र -
- ये भी महाभारत के एक मान्य टीकाकार हैं। इनके समय का परिचय अनेक साधनों से मिलता है। इन्होंने अपनी टीका में 'मेदिनी कोष' को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है। मेदिनी का समय 1200 ई0- 1275 ई0 के बीच माना जाता है। उधर आनन्दपूर्ण विद्यासागर ने ( 1350 ई0) अपनी 'विद्यासागरी' टीका में चतुर्भुज मिश्र का नाम निर्देश किया है। फलत: इनका समय दोनों के मध्य में कभी मानना होगा। 1300 ई0 के आसपास सर्वज्ञ नारायण के अनन्तर इन्हें स्थान देना समुचित होगा टीका का नाम ‘भारतोपाय-प्रकाश' है; जो केवल विराट पर्वपर प्रकाशित है।
- चतुर्भुज मिश्र के द्वारा रचित 'अमरूशतक' की एक व्याख्या (भाव-चिन्तामणि) का पता चलताहै, जिसमें ये अपने को 'काम्पिल्य' बतलाते हैं। फलत: ये कंपिला ( उत्तर प्रदेश के फतेहगढ़ के पास) के निवासी थे । अर्जुनवर्मदेव (1211 ई0 -1215 ई0 के द्वारा रचित अमयशतक की व्याख्या से वे परिचय रखते हैं। फलत: इनका समय 1250 ई के अनन्तर तथा 1660 ई0 के पूर्व (जब इनकी टीका का हस्तलेख मिलता है) होना चाहिए।
- महाभारत के टीकाकार चतुर्भुज मिश्र ही 'अमयशतक' के भी टीकाकार हैं और इनका समय 13 वीं शती के अन्तिम भाग में मानना कथमपि अनुचित न होगा।
(6) आनन्दपूर्ण 'विद्यासागर'-
- ये 14वीं शती के मध्य में एक प्रख्यात सन्यासी थे। विद्यासागर इनका उपनाम था। इनके गुरू का नाम था परमहंस परिव्राजकाचार्य अभयानन्द अद्वैत वेदान्त के इतिहास में आनन्दपूर्ण एक महिमाशाली प्रौढ़ ग्रन्थकार है जिनकी दार्शनिक कृतियाँ ये है- (1) पंचपादिका टीका, (2) न्यायकल्पलतिका (सुरेश्वराचार्य की बृहदारण्यवार्तिका की टीका ), (3) भावशुद्धि (मण्डन मिश्र की ब्रह्मसिद्धि की टीका), (4) खण्डन खण्डखाद्य की टीका (विद्यासागरी), (5) महाविद्या - विडम्बन टीका (1225 ई0 के आसपास लिखितवादीन्द्र के प्रौढ़ ग्रन्थ की व्याख्या), (6) समन्वय-सूत्र- विवृति (ब्रह्मसूत्र 1।1।4 की टीका), (7) न्यायचन्द्रिका (चार परिच्छदों मे न्याय, मीमांसा तथा वैशेषिक मतों का खण्डन), (8) वेदान्त–विद्यासागर ( वेदान्त का मौलिक ग्रन्थ ), (9) प्रक्रियामंजरी इनकी महाभारत पर टीका बहुत ही विस्तृत तथा पाण्डित्यपूर्ण है, जिसमें प्राचीन टीकाकारों के मतों का उल्लेख विस्तार के साथ है।
- पाँच पर्वो की टीका उपलब्ध है- आदि पर्व (जयकौमुदी), सभा,भीष्म, शान्ति तथा अनुशासन पर्व (व्याख्या रत्नावली) इनके समय का निर्धारण किया जा सकता है। ऊपर के छठे ग्रन्थ का हस्तलेख 1405 ई0 का तथा दूसरे ग्रन्थ का हस्तलेख 1434 ई0 का है। फलत: 1400 ईस्वी से इन्हें प्राचीन होना ही चाहिये।
- नौवें ग्रन्थ की रचना कामदेव' नामक राजा के समय की गई। ये कामदेव गोवा में राज्य करने वाले कदम्बवंशी नरेश थे, जिनका शिलालेख 1315 ई० का उपलब्ध होता है। फलत: आनन्दपूर्ण का समय 1350 ई0 में, अर्थात् 14वीं शती का मध्यभाग मानना उचित होगा। इन्होंने आदिपर्व की टीका (संस्कृत साहित्य परिषद् में उपलब्ध) में सात नये महाभारत के टीकाकारों का उल्लेख किया है, जिनमें से अनेक टीकाकार एकदम नये हैं। इन व्याख्याकारों के नाम है- जगद्धर, जनार्दन, मुनि लक्ष्मण (टीका का नाम 'विषमोद्धारिणी' जो सभा तथा विराट पर्व पर उपलब्ध है), विद्यानिधि भट्ट तथा सृष्टिधर । विद्यासागर के द्वारा उद्धृत होने से उन सभी का समय 14 शती के मध्यकाल से निश्चित रूप से प्राचीन है।
(7) अर्जुन मिश्र -
इनकी टीका का नाम 'भारतार्थदीपिका' और 'भारतसंग्रही- दीपिको' है । इसका केवल एक अंश (विराट तथा उद्योग की टीका) अब तक प्रकाशित हुआ है। टीका की पुष्पिका में ये अपने को ‘भारताचार्य' की महनीय उपाधि से विभूषित करते है। इनके पिता का नाम था- ईशान, जो भारत के पाठक या पाठकराज थे और अपने पुत्र के समान ही ‘भारताचार्य' की उपाधि धारण करते थे। ये बंगाल के निवासी तथा गंगा के तीरस्थ किसी नगर या ग्राम के वासी थे। अपने कुल को 'चम्पाहेटीय' या 'चम्पाहेठि' के नामक स्थान का निवासी था। कलकत्ते से 15 मील दक्षिणपश्चिम में 'चम्पाहाटी' नामक एक स्थान है। सम्भव है कि अर्जुन मिश्र का कुल यहीं का मूल निवासी था। इन्होंने अपने से प्राचीन टीकाकारों में देवबोध, विमलबोध, शाण्डिल्य तथा सर्वनारायण का उल्लेख किया है और ये स्वयं नीलकण्ठ ( 17 शती का उत्तरार्ध) के द्वारा उद्धृत हुए हैं। इनकी ‘अर्थदीपिका' देवबोध की प्रख्यात टीका के आदर्श पर निर्मित है। इसका संकेत इन्होंने अपनी टीका (उद्योगपर्व की ) में स्पष्टतः किया है। मोक्षधर्म पर इनकी टीकाके हस्तलेख का समय 1534 ईस्वी है। इन्होंने मेदिनी कोष (1200ई0 -1275) को उद्धृत तथा सर्वज्ञ नारायण ( 13वी शती) का निर्देश किया है। फलत: इनका समय 14वीं शती का उत्तरार्ध (1350ई0-1500 ई0) माना जा सकता है। इनकी टीका अल्पाक्षर होने पर भी सारगार्भित है। सनत्सुजातीय पर्व की व्याख्या में अध्यात्मशास्त्र के सिद्धान्तों का बड़ा ही प्रामाणिक और पाण्डित्यपूर्णविवेचन है।ये हरिवंश को भी महाभारत का अविभाज्य अंग मानते है। इसीलिए इनकी टीका हरिवंश के ऊपर भी उपलब्ध है।
(8) नारायण-
- पर्व निर्दिष्ठ सर्वज्ञ नारायण आवन्त रकालिन भिन्न टीका कार है; क्योकि इन्होंने स्पष्तः नारायण सर्वज्ञ के मत की आलोचना कर अपनी व्याख्या की रचना की।" इन्होने अर्जुनमिश्र का पूर्व टीकाकारों की गणना में उल्लेख किया है। फलत: इनका समय 14वीं शती के अनन्तर कभी होना चाहिए। इनकी टीका का नाम 'निगुद्धार्थ पदबोधिनी' है।
(9) वादिराज-
- यह टीकाकार दक्षिण भारत के निवासी थे, परन्तु इनके पाठ दक्षिणि कोष से पूर्णत: नही मिलते है न उत्तरीयकोष से मिलते है। इनके पाठ दोनो के बीच नहीं है। विराट पर्व की टीका के अन्त में अपने मध्वगुरू को इन्होंने प्रणाम अर्पित किया है।
- वादिराज का समय तथा कार्य माध्व सम्प्रदाय के इतिहास में नितान्त महत्वपूर्ण है। अपने तीर्थप्रबन्ध काव्य ' (हस्तलेख भण्डार कर संस्थान में ) में इन्होंने पण्डरपूर के विढोवा (विट्ठल ) की मूर्ति के तुंगभद्रा तीरस्थ विजयनगर के स्थानन्तरण का उल्लेख किया है। कृष्ण देव राम के समय में (1509-1530 ई0) इस स्थानतरण की घटना की संभावना है। इन्हें अग्रहार देने का उल्लेख 1493 शक वर्ष के (1571ईव) एक शिलालेख में मिलता है। इनके प्रधान शिष्य कर्नाटक के प्रख्यात संत कनकदास का समय 1550 ई0 1570 ई0 के आसपास है।
- फलतः वादिराज - का समय 16वीं शती का मध्यभाग लगभग 1525 ई0 -1575 ई0 मानना उक्त शिलालेख के स्पष्ट आधार पर सुनिश्चित है। अपने नाम का अर्थ इन्होंने स्वयं लिखा है' - वादी (माध्वाचार्य) राजा है जिसके वह व्यक्त, अर्थात् माध्वाचार्य का दास । वादिराज द्वैतमतानुयायी आचार्यों में अन्यतम प्रौढ नैयायिक थे। इनकी महाभारत टीका का नाम 'लक्षाभरण' या लक्षालंकार भी है। विराट तथा उद्योग पर्व पर यह प्रकाशित है ( गुजराती प्रैस )।
(10) नीलकण्ठ –
- इनका पूरा नाम नीलकण्ठचतुर्धर (चौधरी) है और इनके वंशज आज भी महाराष्ट्र में विद्यमान है। इनकी टीका नितान्त प्रख्यात, 'भारतभाव भावदीप' बहुश: प्रकाशित हुई है। यह महाभारत के 18 पर्वो पर उपलब्ध है। नीलकण्ठ के पूर्वज महाराष्ट्र कूर्पर ग्राम ( आजकल कोपर गाँव, बम्बई प्रान्त का अहमदनगर जिला) के मूल निवासी थे. परन्तु इस टीका की रचना काशी में की गयी, जहाँ वे आकर बस गये थे।
- नीलकण्ठ ने मन्त्र रामायण तथा मन्त्र– भागवत नामक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया है, जिसमें रामयण और भागवत की कथा से संबद्ध मन्त्र ऋगवेद से क्रमबद्ध संग्रहीत है तथा नीलकण्ठ ने इनके ऊपर अपने सिद्धान्तानुसार टीका भी लिखी है।
- नीलकण्ठ चतुर्धर के पिता का नाम गोबिन्द ' था तथा पुत्र का भी नाम गोबिन्द' था, जिनके पुत्र (अर्थात् नीलकण्ठ के पौत्र) शिव ने पैठण मे रहते हुए 'धर्मतत्व - प्रकाश' ग्रन्थ का निर्माण 1746 ई0 में किया। नीलकण्ठ की 'शिवतान्डव टीका' का रचनाकाल 1680 ई0 तथा गणेश गीता की टीका का रचना काल 1693 ई0 है। 'भारत-भाव द्वीप' के नानाहस्तलेखों का समय 1687 ई0 से लेकर 1695 ई० है, अत: इनका समय 1650 ई0 1700 ई0 मानना उचित प्रतीत होता है।
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