मृच्छकटिक की कथावस्तु
- मृच्छकटिक के दस प्रकरण के कथावस्तु के दो अंश है - पहिला भाग चारूदत् तथा वसन्तसेना का प्रेम दूसरा भाग आर्यक की राज्यप्राप्ति । शूद्रक ने पहले अंश को भास के 'दरिद्र- चारूदत्त नाटक से अविकल लिया है। शब्दतः और अर्थतः दोनो प्रकार की अपनी सम्पति प्राचीन ऐतिहासिक घटना के आधार पर लिखा गया मानते है। दोनों अंशों को शूद्रक ने बड़ी सुन्दरता के साथ सम्बद्ध किया हैं।
शूद्रक मृच्छकटिक का चरित्र-चित्रण
- शूद्रक चरित्र चित्रण में खूब सिद्धहस्त हैं। इनके पात्र जीते-जागते है., सजीवता की मूर्ति हैं । प्रत्येक पात्र में कुछ विशेषता है। मृच्छकटिक का नाटक चारूदत हैं । प्रकरण का नायक धीरप्रशान्त ब्राह्मण, वणिक् या मन्त्री हुआ करता है । चारूदत ब्राह्मण है तथा धीर प्रशान्त हैं शूद्रक ने चारूदत के रूप में भारत के आदर्श नागरिक का चित्र खींचा है। वह सदाचार का निदर्शन है। (1। 48 ) -
दीनानां कल्पवृक्षः स्वगुफलनतः सज्जानानां कुटुम्बी
आदर्श: शिक्षितानां सुचरितनिकषः शीलवेलासमूद्रः।
सत्कर्ता नावमन्ता पुरुषगुणनिधिर्दक्षिणोदारसच्वो
त्द्योक: श्लाध्यः स जीवत्यधिकगुणतया चोच्छवसन्तीव चान्ये ॥
चारूदत्त का चरित्र
- चारूदत्त दीनों के कल्पवृक्ष हैं। दरिद्रों की सहायता करने से उन्हें निर्धनता प्राप्त हो जाती है, परन्तु फिर भी दीनों की सहायता करने से विरत नहीं होता। उसमें आत्माभिमान की मात्रा खूब है । उसे यह जानकर अत्यन्त दुःख होता है कि हमारे घर से छूछे हाथ लौट जानेवाला चोर अपने मित्रो से मेरी दरिद्रता की निन्दा करेगा। स्वभाव उसका बड़ा उन्नत है। वसन्तसेना का अलंकार चोरी चला जाता है, परन्तु उसे प्रसन्नता होती है कि उसके घर में सेंध मारने वाला चोर विफल मनोरथ होकर नहीं गया ।
चारूदत्त वसन्तसेना चरित्र
- वसन्तसेना के अल्पमूल्य भूषण के बदले में अपनी पत्नी की बहुमूल्य रत्नावली देने में वह तनिक भी नहीं हिचकता। जो शकार उसके जीवन का गाहक था, जो उस पर वसन्तसेना के मारने का मिथ्या अभियोग लगाकर शूली पर चढ़ाये जाने का कारण था, उसी दृष्टबुद्धि मूर्ख शकार को वह क्षमा कर देता है। इस नाटक में सचमुच चारूदत्त के रूप में हम आर्दश · आर्य सज्जन का मनोरम चित्र पाते है। भारतीय दृष्टि से पूर्ण सज्जनता का जीवितरूप हमें आर्य चारूदत के रूप में प्राप्त होता है। फलतः वे 'परफेक्ट जेन्टिलमेन' के जीवन्त उदाहरण हैं ।
- वसन्तसेना उज्जयिनी की एक वेश्या है जो इस प्रकरण की नायिका है। उसके चरित्र में हम अनेक स्त्रीसुलभ गुणों का सन्निवेश पाते हैं। वेश्या होने पर भी वह सच्चे प्रेम का मूल्य जानती है । माता के आग्रह करने पर भी वह शकार की संगति नहीं चाहती और विरोध करने पर भी सदाचारी आर्य चारूदत्त की प्रेमपात्री बनने के लिए वह सतत उद्योगकरती है। उसका हृदय अत्यन्त कोमल है। सेवकों पर दया करना उसका स्वभाव है। यद्यपि शकार उसे मार डालने का उद्योग करता है, तथापि वह अपने सद्गुणों के कारण जीवित बच जाती है ।
- वसन्तसेना के अतिरिक्त अन्य पात्रों के भी चरित्र चित्रण में शूद्रक को सफलता प्राप्त हुई है। धूता सच्ची पतिव्रता हिन्दू नारी है, जो अपने पतिदेव की प्रसन्नता के लिए कठिन से कठिन संकट झेलने के लिए भी उपस्थित है। अपने पति को कलंक से बचाने के लिये वसन्तसेना के अल्पमूल्य आभूषण के लिए बहुमूल्य रत्नावली देते समय उसे तनिक भी दुविधा नहीं होती। रोहसेन भी स्निगध हृदय पुत्र है ।
- मैत्रेय केवल मोदक से अपनी उदर- ज्वाला को शान्त करनेवाला ‘औदरिक' पेटू नहीं है, न वह केवल हास्य का साधन है, प्रत्युत वह एक सच्चा मित्र है। विपत्ति में साथ देनेवाला सच्चा बन्धु है। अन्य साधारण पात्रों में शर्विलक का चरित्र सज्जनता तथा दुर्जनता का अपूर्व मिश्रण है। वेश्या की गृहदासी मदनिका को अपनी प्रिय पात्रों बनाने में यह ब्राह्मण देवता तनिक भी नहीं सकुचाते। उसे ऋण मुक्त करने के लिए चोरी करने में उसे कुछ भी लज्जा नहीं, परन्तु अपने मित्र आर्यक के कारागृह में बन्धन की वार्ता सुन वह अपनी प्रणयिनी को छोड सहायता करने के लिये खम ठोंककर 'मैदान जंग में आ जुटता है।
- मृच्छकटिक में सबसे विचित्र नाटकीय पात्र है- शकार । यह राजा का श्यालक है । नाम है संस्थानक यह गर्व का जीता-जागता पुतला है। उसमें दया छूकर भी नहीं है। वसन्तसेना को अपने प्रणयपाश में बाँधना चाहता है, परन्तु वह इस मूर्ख को पसन्द नहीं करती है। शार चारूदत्त का अकारण शत्रु है । वसन्तसेना का गला अपने ही हाथ घोट डालता है, परन्तु दोष मढ़ता है चारूदत के सिर पर। अपने किये कर्म का फल चखने का भी सुयोग आता है। परन्तु चारूदत्त उसे क्षमा कर देता है। शकार के कथन सर्वथा क्रमहीन, लोक-विरूद्ध तथा व्यर्थ होते है। इसकी शकार - बहुला भाषा भी शकारी के नाम से प्रसिद्ध है। शकार की भाषा तथा तात्पर्य के लिए श्लोक प्रर्याप्त होगा (1125) -
झाणज्झणन्तबहुभूशणशद्दमिश्शं किं दोवदी विअ पलाअशि लामभीदा।
एशे हलामि शहशति जधा हणूमें विश्शावशुश्श बहिणिं विअतं शुभद्दम्।।
- अरी ? अपने गहनों को झनझनाती हुई, राम से डरी हुई द्रौपदी की तरह क्यों भाग रही हो ? मै तुम्हें उसी भाँति ले भगता हूँ, जिस प्रकार हनुमान् विश्वावसु की भगिनी सुभद्रा को ले भागे थे। रामायण तथा महाभारत की कथा की भी अच्छी जानकारी है शकार को ! लोकविरूद्ध वृत का निदर्शन इससे बढ़कर और क्या सकता है। 'शकार' की अवतारणा प्रथम तथा अन्तिम बार इसी नाटक में हुई है, इसलिए उसकी ओर आलोचकों का ध्यान होना स्वाभविक है । वह राजा की रक्षता का भाई है और इस पद की भूयसी प्रतिष्ठा का ज्ञान ही उसके अभिमान तथा अहंकार का एक जीता-जागता पुतला बनाये हुए है। नाटक में न तो उसके वर्ण संकेत है न उसके देश का । डाक्टर सिल्वाँ लेवी की यह कल्पना है वह शक जाति का था और उसका नाटक में प्रवेश उस युग का स्मारक है जब भारतीय राजा लोग शकदेश की स्त्रियों को अपनी महलों में विवाहिता या रक्षिता बनाकर रखा करते थे। शकार की विचित्र भाषा तथा भारतीय परम्परा का स्थूलतम अज्ञान इस कल्पना के लिए आश्रम माने जा सकें है, परन्तु इसकी पर्याप्त पुष्टि के साधन आज भी अपर्याप्त है। सबसे महत्व की बात यह है कि संस्कृत के नाटककार ने किसी भी विदेशी पात्र की कल्पना अपने नाटकों में नहीं की है। अतः यह कल्पना रोचक होने पर भी तक पुष्ट नहीं मानी जा सकती है।
मृच्छकटिक -सामाजिक दशा
- मृच्छकटिक में तत्कालीन हिन्दू समाज का सच्चा चित्र हमें मिलता है। राजा का प्रभुत्व अधिक अवश्य था, परन्तु वह अपने मन्त्रियों की सहायता से राज्य संचालन किया करता था । पुलिस का इन्तजाम भी उस समय अच्छा था- मनु की प्रामाणिकता सर्वत्र मानी जाती थी । अधिकरणिक (जज) की सहायता करने के लिए 'असेसर हुआ करते थे, जिसमें ब्राह्मण तथा साहुकारों को भी जगह मिलती थी वैश्यों का उस समय अच्छा, संगठन था। वे दूर देशों से व्यापार किया करते थे-विदेशों में जहाज भी आया-जाया करते थे -
आपार्थमक्रमं व्यर्थ पुनरूक्तं हतोपमम् ।
लोकन्यायविरूद्व च शकारवचनं विदुः ।।
- ब्राह्मण का काम केवल अध्ययन अध्यापन ही नहीं था, बल्कि उनमें भी बड़े धनाढ्य सम्भवतः व्यापारी से धन प्राप्त करने वाले व्यक्ति थे। आर्य चारूदत्त के पितामह बड़ी भारी सेठ थे। ब्राह्मण यज्ञ किया करते थे-उनके घर मन्त्रपाठ से सदा गूंजा करते थे । ब्राह्मण-धर्म पर खूब विश्वास था । उस समय की धार्मिक चर्चा आजकल से भिन्न न थी संध्यावन्दन बलि देना, देवताओं के मन्दिरों में सायंकाल को दीप-दान आदि आजकल की तरह उस समय भी प्रचलित थे। इन्द्रध्वज तथा कामदेवोत्सव आदि उत्सवों का सर्वत्र प्रचार था ।
- ब्राह्मणधर्म के अतिरिक्त बौद्धधर्म भी सम्मुन्नत दशा में था चैत्य और विहार भिक्षुओं के लिये बने थे, जिनमें रोगियों की शुश्रूषा भी हुआ करती थी उस समय लोग धनाढ्य थे- वसन्तसेना के महलमें राजसी ठाटबाट था। इतना होने पर भी दाम देकर खरीदे गये दासों की प्रथा उस समय थी परन्तु क्रीतदासों की दशा बहुत अच्छी थी । उनके साथ मालिक का व्यहार बहुत अच्छा होता था । उस युग में उज्जयिनी भारतवर्ष की एक समृद्ध नगरी थी, जहाँ पश्चिम समुद्र के बन्दरगाह भरूकच्छ (वर्तमान 'भड़ोंच) के के साथ सीधा आवागमन का सम्बध था और इसी मार्ग से विदेशों से आनेवाली वस्तुएं भारत के भीतर आती थीं। समृद्धिनाना प्रकार की बुराईयों को भी पैदा करती है। फलतः जुओं और चोरी जैसे जघन्य व्यावसाय दिन-दहाड़े करनेवाले लोगों की कमी न थी। नगर में 'वेशवाट' की सत्ता उसके नागरिकों की विदग्धता, केलिशीलता तथा भववुक्ता की पर्याप्त परिचायिका है। रूपाजीवी वेश्या के साथ उदात्तचरितात्र कलाप्रवीण गणिका (जैसे वसन्तसेना) का भी अस्तित्व नगरी की महत्ता का द्योतक था ।
- राजशक्ति बहुत ही क्षीण थी। शासन बेहद कमजोर था। जनरक्षण का इतना कुप्रबन्ध या कुप्रबन्धाभाव था किं शाम होते ही बड़े घरों की बहू-बेटियाँ घर से बाहर सड़क पर आने में भी भय खाती थीं कि कही उनके इज्जत का गहना कोई बदमाश कही से टूट न पड़े। नगर के रक्षे रक्षी पुरूष (पुलिस) वहाँ अवश्य विद्यमान थें, परन्तु शत्रु-मित्र की परख करने में बड़ी ढिलाई की जाती थी। राजा के इस कुप्रबन्ध के कारण ही घंटों में सिंहासन उलट जाता था और दूसरा राजा आ धमकता था। नाटक में प्रदर्शित राज्य परिवर्तन का रहस्य इसी दुर्बल राजशक्ति के भीतर छिपा हुआ है।
- आर्यचारूदत्त अपने पैतृक कार्य को छोड़कर व्यापार के कार्य में व्यस्त थे आर्यचारूदत्त के पितामह इसी प्रकार के एक धनवान सेठ थे । ब्राह्मणों के भीतर भी विशेष बुराई तथा छल-कपट का प्रवेश हो गया था और ब्राह्मण युवकों में से अनेक पुरूषों का जीवन जुआ और चोरी में बीतता था शर्विलक ऐसा ही ब्राह्मण है, जो अपने पवित्र जनेउ की भी हँसी उड़ाने से बाज नहीं आता बौद्ध धर्म भी सम्पन्नदशा में अपना समय बिता रहा था, परन्तु इसके भी अनुयायियों में निकम्मे लोग भर गये थे। जो सर्वथा बेकाम तथा लाचार होता वह बौद्ध बिहार में भिक्षु बनकर अपना कालक्षेपे करता "संन्यासं कुलदूषणैरिव जनै “ (5114)का लक्ष्य ऐसे ही लोगो की और है। श्रमण का दर्शन 'अनाभ्युदयिक' माना जाता था। गरज यह है कि वह युग समुद्धि का युग था और उसके साथ आनेवाली सब बुराईयों के लिए वहाँ पूरा दरवाजा खुला था। ऐसे भ्रष्ट वातावरण के भीतर से 'चारूदत्त' जैसे आदर्श तथा सच्चरित्र पात्र की कल्पना सचमुच कवि की विमल प्रतिभा का निदर्शन है।
मृच्छकटिक प्राकृत का वैशिष्टय
- मृच्छकटिक प्राकृत भाषा की दृष्टि से एक नितान्त उपादेय रूपक है। यहाँ जितनी भाषाएं तथा विभाषायें प्राकृत की उपलब्ध होती है उतनी अन्य किसी नाटक में नहीं, जान पड़ता है कि भरत के भाषाविधान (नाटकशास्त्र अध्याय 18) को लक्ष्य में रखकर शूद्रक ने इन भाषाओं का प्रयोग भिन्न भिन्न पात्रों के भाषणों के लिए किया है। टीकाकार पृथ्वीधर के कथनानुसार इस प्रकरण में शौरसेनी, मागधी. अवन्तिका प्राच्या शकारी चाण्डाली तथा ढाक्की इन सात प्राकृतों का प्रयोग किया है. जिनमें से प्रथम चार को वह 'भाषा' मानता है तथा अन्तिम तीन शकारी चाण्डाली तथा ढाक्की को विभाषा । वररुचि जैसे मान्य प्राकृत व्याकरण के कर्ता ने 'विभाषा' के भाषा से पार्थक्य तथा वैशिष्टय का समुचित प्रतिपादन नहीं किया है। 'विभाषा' या तो वह प्राकृत भाषा है जो कवि के द्वारा किसी पात्र विशेष के बोलचाल के लिए ही कल्पित की गई है अथवा जिसमें नियमों का 'बाहुलकात् प्रयोग होता है। पृथ्वीधर के अनुसार सूत्रधार नटी रदनिका. मदनिका, वसन्तसेना, उसकी माता, चेट, कर्णपूरक, धूता, श्रेणी तथा शोधनक , (11 पात्र) शौरसेनी बोलते है । संवाहक, तीनों चेट भिक्षु तथा रोहसेन (छः पात्र) मागधी का प्रयोग करते है वीरक तथा चन्दन अवन्ती बोलते है, तो विदूषक 'प्राच्य' बोलते है शकार की भाषा ‘शकारी' है, दोनों चाण्डाली, माथुर और द्यूतकर की भाषा ढाक्की है। इन भाषाओं में शौरसेनी तथा मागधी तो सुप्रख्यात तथा बहुशः व्याख्यात भाषायें हैं। अवन्ती तथा प्राच्य का पृथ्वीधर द्वारा विहित लक्षण- नितान्त अशुद्व है; क्योकि यह लक्षण इन पात्रों की भाषाओं में नहीं मिलता। मार्कण्डेय कवीन्द्र ( 11 वीं शती) ने अपने ‘प्राकृतसर्वस्व' में इनके शुद्ध लक्षण देने की कृपा की है। उनके मतानुसार 'प्राच्या' की प्रकृति शौरसेनी है अर्थात् शौरसेनी के आधार पर कतिपय परिवर्तनों से प्राच्य' निष्पन्न हाकती है। इन नियमों में 'मूर्ख' का 'मुरूक्ख', ‘भवती‘ का ‘भोदि‘, ‘वक' का 'वक्नु' या बंकुभ', नीच पात्र के सम्बोधन में आकर का दीर्घत्व आदि कतिपय मान्य नियम है। आवन्ती महाराष्ट्रीय तथा शौरसेनी के मिश्रण से निष्पत्र है, जिसमें सदृक्ष = तूण, दृश= पेच्छ अथवा इरिस भविष्य सूचक प्रत्यय ज्ज, (भोज्जा = भविष्यति) आदि मुख्य याज्जा है लेखक की तो यह दृढ़ धारणा है, कि इन भाषाओं के प्राचीन लक्षणों का निर्देश किसी कारण से नष्ट हो गया था और इसीलिए इस नाटक में उपलब्ध तत् भाषाओं के समीक्षण पर ही मार्कण्डेय ने अपना नियम बनाया है। इसीलिए वे नियम पूरे तौर से न मिलते है न सुसंगत होते हैं।
- मागधी में शकार तथा ककार की बहुलता लाने से शकार के ऊटपटांग अनर्गल भाषण के लिए , शूद्रक के द्वारा 'कल्पित' भाषा है। चाण्डाली की भी यही दशा है ढक्की वस्तुतः ढक्क देश की भाषा थी, जो पंजाब का पूर्वीभाग माना जाता था। इस भाषा में उकार की इतनी बहुलता है कि यह अपभ्रंश की ओर सचमुच खुलता है। मार्कण्डेय कवीन्द्र ने किसी हरिश्चन्द्र नामक प्राकृत वैयाकरण की सम्मति दी है, जो ढक्की सचमुच अपभ्रंश ही मानते थे | भरत के द्वारा निर्दिष्ट उकारबहुला भाषा हिमवत्, सिन्धुसौवीर देशों में बोली जाती थी। लेखक की सम्मपति में ढक्क देश सिन्धुसौवीर से मिला-जुला पंजाब का पूरवी भाग प्रतीत होता है और इसीलिए दोनों की भाषाओं में साम्य होना है और इसीलिए दोनों की भाषाओं में उचित है।